उत्तर-प्रदेश- सोशल मीडिया का लोकसभा चुनाव में प्रभाव

Arvind Vidrohi on how social media is shaping Uttar Pradesh Lok Sabha elections, influencing voters in rural and urban India alike.;

By :  Hastakshep
Update: 2019-03-22 13:00 GMT

opinion, विचार

  • Social Media’s Growing Influence in Uttar Pradesh Lok Sabha Elections
  • How Political Parties are Using Social Media to Mobilise Voters
  • Impact of Social Media on Rural and Urban Voters in UP
  • Why Politicians Fear the Power of Social Media
  • Akhilesh Yadav and the Role of Social Media in Past Elections
  • Social Media as a Tool for Political Campaigns and Public Debate
  • Challenges for Traditional Media in the Age of Social Media

Social Media and Law and Order Concerns in Uttar Pradesh

सर्वेक्षण और तमाम पत्रकारों के मतानुसार इस बार के लोकसभा चुनावों में सोशल मीडिया काफी प्रभावी भूमिका निभाएगा। तक़रीबन 200 सीटों पर सोशल मीडिया का सीधा प्रभाव पड़ने की सम्भावनाओं से तमाम दलीय राजनेता, जातीय-धार्मिक मठाधीश भौंचक हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर इस नये मीडिया यानी कि सोशल मीडिया का क्या इलाज किया जाए ? सोशल मीडिया पर बंदिश लगाने के उपायों में चिन्ताग्रस्त तमाम लोग सोशल मीडिया के प्रभाव का तोड़ भी तलाशने लगे हैं। लेकिन समझदार राजनेता, जातीय -धार्मिक मठाधीशों ने इस सोशल मीडिया की शुरूआती आगमन बेला से ही इसका जमकर उपयोग किया। इस प्रभावी मंच पर सक्रिय रहकर इन्होंने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया, अपने समर्थकों की तादाद में इजाफा किया और आज भी बखूबी कर रहे हैं।

आज तो मीडिया के भी धुरंधरों से लेकर नवोदित पत्रकार, राजनैतिक दलों के प्रमुखों से लेकर सामान्य कार्यकर्ता तक के चेहरे व लिखत सोशल मीडिया पर मौज़ूद हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार-विमर्श हो या दूर दराज के ग्राम्यांचलों की कोई घटना सोशल मीडिया पर कुछ भी दिखना सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है। हर एक छोटी से छोटी खबर भी सोशल मीडिया पर आ ही जाती है, नेता हो या अधिकारी-पत्रकार सबकी खबर अब सोशल मीडिया ले रहा है। सोशल मीडिया का प्रभाव या कहें भूत कई राजनेताओं की दिली परेशानी का सबब बन चुका है।

उत्तर-प्रदेश में लोकसभा चुनावों में सोशल मीडिया कितना असरदार हो सकता है यह विचारणीय प्रश्न है और बेहद रोचक-दिलचस्प भी।

यह सत्य है कि उत्तर-प्रदेश में सक्रिय प्रत्येक राजनैतिक दल सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ है, उसके कार्यकर्ता -नेता खूब सक्रिय हैं। सोशल मीडिया से भारी तादात में शहरी गृहणी, कामकाजी महिला-पुरुष, शहरी-ग्रामीण दोनों इलाकों के छात्र-छात्रायें जुड़े हुए हैं। मोबाइल -इंटरनेट की सुविधा ने तो गाँव-गाँव में भी किसान के, किसान के बेटे-बेटियों के हाथ में सोशल मीडिया रूपी यह नया हथियार उपलब्ध करा दिया है। गाँव-देहात की चौपाल व चौराहे की दुकान, खेत-खलिहान पर आपस में बहस करने वाला, एक दूसरे से जानकारी लेने वाला किसान भी अब खुद या अपने बेटे-बेटियों की मदद से सोशल मीडिया की ख़बरों को पढ़ने-सुनने-देखने लगा है। उत्तर-प्रदेश के दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले ग्रामीण भी अब सोशल मीडिया से अपरिचित नहीं रहे हैं।

आज शहरों-महानगरों के ही युवा वर्ग मोबाइल– कम्प्यूटर- लैपटॉप पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं वरन गाँव-देहात के नौजवान भी इसका भरपूर एवं धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं।

अभी भी स्थापित मीडिया से जुड़े तमाम लोगों के दिमाग से यह मुगालता निकल नहीं पा रहा है कि गाँव-देहात के लोग इस सोशल मीडिया से दूर ही हैं। पोर्न साइट्स, अश्लील साहित्य, मित्रों की खोज व वार्तालापों से गुजरते हुए युवा मन और आम जन कब सामाजिक-राजनैतिक विषयों की ख़बरों, बहसों को पढ़ने लगा यह उन्हें भी आभास नहीं हुआ और यह प्रक्रिया जारी है। अब तो सोशल मीडिया की ख़बरों को ग्रामीण अंचलों में भी वार्तालाप के दौरान सुना जा सकता है।

अभी 2012 में सम्पन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पूर्व व दौरान सोशल मीडिया पर राजनैतिक तौर पर बसपा सरकार के तौर-तरीके की भर्त्सना जोरदार तरीके से हुई। परम्परागत मीडिया की संस्थागत ख़ामोशी के बीच सोशल मीडिया ने पार्क निर्माण, मूर्ति प्रकरण, नोटों की माला प्रकरण आदि को चर्चा के केन्द्र बिन्दु में लाने का कार्य किया था और इसी सोशल मीडिया पर बसपा सरकार को जमकर लताड़ लगती रहती थी। यह वह दौर था जब उत्तर-प्रदेश सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव (सांसद ) मुखरित थे, सड़क पर भी और सोशल मीडिया पर भी।

सड़क पर साइकिल यात्रा और क्रांति रथ के माध्यम से अगर अखिलेश यादव कई चरणों में जनसंवाद कायम करने व विश्वास अर्जित करने में कामयाब हुए थे तो उस वक़्त क्रांति रथ यात्रा के सम्पूर्ण विवरण को तत्काल सोशल मीडिया पर उपलब्ध कराने के तात्कालिक प्रबन्ध ने सोने पर सुहागा का कार्य किया था। साइकिल यात्रा- क्रान्ति रथ यात्रा और यूँ ही ब्लैक बेरी के माध्यम से अखिलेश यादव द्वारा खुद सोशल मीडिया के इस्तेमाल और सक्रियता के कारण अखिलेश यादव ने खूब समर्थन हासिल किया।

समाजवादियों की कलम ने उत्तर-प्रदेश की आम जनता के रोष को सपा के पक्ष में मोड़ने का कार्य किया और सोशल मीडिया का जमकर उपयोग करते हुए चुनावी विजय हासिल करने के सपा के लक्ष्य को पूरा करने में महती भूमिका निभाई थी। इस वक़्त भी सोशल मीडिया मौज़ूद है, अखिलेश यादव भी और उनके पार्टी के कार्यकर्ता-समर्थक भी। लेकिन अब विपक्ष की जगह सत्ता सुंदरी को अंगीकार कर चुके अखिलेश यादव- मुख्यमंत्री, उत्तर-प्रदेश की सक्रियता सोशल मीडिया में कम हुई, उनका अपने ही सोशल मीडिया पर सक्रिय समर्थकों -समाजवादियों से जुड़ाव-लगाव कम ही होता गया। अब सोशल मीडिया पर सपा सरकार पर प्रहार की तीव्रता बढ़ी है और बचाव में उतरे सपा समर्थकों के बचकाना वक्तव्य-व्यवहार से सपा की और फजीहत ही होती है। सोशल मीडिया पर सशक्त रहे अखिलेश यादव अब लाचार से प्रतीत होते हैं और उनके समर्थक जिन्दाबाद एवं सूचना विभाग के प्रेस नोट से आगे सोच ही नहीं रखते।

सोशल मीडिया पर उपस्थित उत्तर-प्रदेश के लोगों में गजब की राजनैतिक खेमेबंदी, उत्साह, नाराज़गी, जुनून, चाटुकारिता आदि विविध आयामों के सुलभ दर्शन होते हैं। प्रत्येक जिलों के समूह फेसबुक पर मौज़ूद हैं, प्रत्येक जिले के दर्जनों लोग ब्लॉग लेखन-सोशल मीडिया पर लेखन में पूरे मनोयोग से लगे हैं। समूहों में विकास के मुद्दों, स्थानीय समस्याओं की चर्चा के बीच लोकसभा चुनाव की सरगर्मी साफ़ दिखती है।

समाज का यह जागरूक तबका जो सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल कर रहा है, अपने मन की भड़ास, पीड़ा, दर्द और विचार को यहाँ बयाँ करता है और यहाँ से जानकारी सूचना लेकर अपने परिवार, मित्रों और अनजानों तक से चर्चा करता है। व्यापक और सटीक, असरदार हथियार के रूप में सोशल मीडिया लोकसभा चुनाव में भी अपना असर दिखायेगा यह तो निश्चित ही है। अब उत्तर-प्रदेश में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को भाँपते हुए सभी दलों, मीडिया समूहों ने यहाँ की ख़बरों को संज्ञान में लेना शुरू कर ही दिया है।

इधर सोशल मीडिया के सन्दर्भ में कई गोष्ठियाँ हुईं, चर्चा हुई। इन गोष्ठियों-चर्चाओं से यह बात साफ हुई कि स्थापित मीडिया और राजनेताओं को सोशल मीडिया की ताकत समझ में आ चुकी है। कुछ तो घबराये से नजर आये तो कुछ सोशल मीडिया पर विचारधारा की जंग में पिछड़ने के कारण इसे कोसते भी नजर आये। सोशल मीडिया को उन लोगों की आवाज भी कहा गया जिनकी ख़बरें स्थापित मीडिया में नहीं आ पाती हैं। इन आयोजनों में लोकसभा चुनावों में सोशल मीडिया के असरदार होने का पुख्ता सुबूत तमाम वक्ताओं का राजनैतिक मुद्दों की चर्चा करना, इसको सोशल मीडिया से जोड़ना और अन्त में यह दोषारोपण भी करने से भी नहीं चूकते कि सोशल मीडिया पर अमुक संगठन या विचारधारा से जुड़े लोगों का कब्ज़ा सा है।

जानबूझकर हक़ीक़त ना समझने-मानने वाले लोगों को यह ध्यान देना होगा कि राजनैतिक दलों के लोगों, पत्रकारों के अतिरिक्त सोशल मीडिया पर मौज़ूद अधिसंख्य जन यहाँ लिखी राजनैतिक विषयों को सिर्फ पढ़ते हैं, वे ना उसपे अपनी टिप्पणी करते हैं और ना ही पसंद-नापसंद का इज़हार ही करते हैं। अपने व्यक्तिगत-पारिवारिक सम्बंधियों से बतियाते, अपनी दिलचस्पी निपटाते-निपटाते अधिकतर जन सोशल मीडिया से राजनैतिक ख़बरें एकत्र करते हैं। यह तथ्य उत्तर-प्रदेश में समझना बेहद सरल है लेकिन इसके लिये इच्छुक लोगों को सार्वजनिक यातायात के साधनों का उपयोग करते हुए यात्रा करनी चाहिए और जनता के मौजूदा रुख से रुबरु होना चाहिए। विभिन्न शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर रहा नौजवान ,कामकाजी वर्ग गम्भीरता पूर्वक सोशल मीडिया पर राजनैतिक ख़बरों-विचारों पर पैनी दृष्टि रखता है। इस मंच से ज्ञानार्जन के पश्चात् यह वर्ग अपनी दैनिक यात्रा के दौरान जमकर चर्चा करते देखा जा सकता है। निजी साधन से यात्रा करने वाला कोई भी शख्स कभी आम जन के रुख को सर्वेक्षण रपट या चुनावी परिणाम के पूर्व नहीं समझ सकता है फिर हर शख्स की अपनी वर्षों पुरानी सोच उसे शुतुरमुर्ग की तरह सिर छिपाने के लिए प्रेरित करती ही रहती है।

उत्तर-प्रदेश में सोशल मीडिया का प्रभाव द्रुत गति से बढ़ा है, चुनावी नतीजों के साथ-साथ सोशल मीडिया सामाजिक ताने बाने और कानून व्यवस्था को भी प्रभावित कर चुका है और आगे भी कर सकता है। कानून व्यवस्था के दृष्टिगत अब सोशल मीडिया पर अनवरत दृष्टि रखने और यहाँ की सूचनाओं पे तात्कालिक प्रभावी कदम उठाने की महती जिम्मेदारी प्रशासन की है।

अरविन्द विद्रोही, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता हैं।

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