मनोज झा का प्रधानमंत्री पर निशाना
"घुसपैठिया शब्द राजनीतिक डॉग-व्हिसल, डर और विभाजन फैलाने की भाषा"- आरजेडी सांसद मनोज झा
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद मनोज कुमार झा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बार-बार "घुसपैठिया" शब्द के इस्तेमाल को लेकर कड़ी आपत्ति जताई है। उन्होंने सोशल मीडिया मंच एक्स पर लिखते हुए कहा कि हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति में भाषा का लगातार क्षरण हुआ है, जहाँ शब्द संवाद का माध्यम बनने के बजाय समाज को बाँटने का हथियार बनते जा रहे हैं। झा के अनुसार, प्रधानमंत्री का यह शब्द चुनावी रैलियों में सुनियोजित "डॉग-व्हिसल" की तरह इस्तेमाल होता है, जिसका मकसद सीमाओं की रक्षा से ज्यादा कुछ समुदायों को कलंकित करना और नागरिकता के सवालों को "अंदरूनी बनाम बाहरी" के विभाजनकारी विमर्श में बदलना है।
मनोज कुमार झा ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा-
"हाल के वर्षों में, भारतीय राजनीति में भाषा का लगातार क्षरण देखा गया है, जहाँ सोच-समझकर चुने गए शब्दों का इस्तेमाल संवाद के साधन के रूप में कम और विभाजन के हथियार के रूप में ज़्यादा किया जाता है। सबसे परेशान करने वाले उदाहरणों में से एक है प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार "घुसपैठिया" शब्द का इस्तेमाल। बिहार, बंगाल और असम में चुनाव नज़दीक आने या अन्य ज़रूरी राजनीतिक कारणों से इस शब्द का इस्तेमाल और भी ज़ोर पकड़ लेता है। प्रधानमंत्री के बोलने के बाद, उनके मंत्रिमंडल के लगभग सभी सदस्य और उनके राजनीतिक दल भी उनके साथ बोलते हैं।
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पहली नज़र में, यह अवैध आव्रजन का संदर्भ प्रतीत होता है, जो किसी भी राष्ट्र के लिए एक जायज़ चिंता का विषय है। लेकिन राजनीतिक रैलियों और सार्वजनिक भाषणों में इस शब्द का बार-बार इस्तेमाल कुछ और भी निहितार्थ उजागर करता है: एक जानबूझकर किया गया 'डॉग व्हिसल', जिसका उद्देश्य कुछ समुदायों को कलंकित करना, जनता के डर को भड़काना और नागरिकता व अपनेपन के सवालों को 'अंदरूनी बनाम बाहरी' के ज़हरीले द्वन्द में बदलना है।
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शब्द इतिहास में पहले भी कभी इतने मासूम नहीं रहे, खासकर तब जब वे आत्मुग्ध सत्तावादी प्रवृत्ति वाले नेताओं से आते हैं। राजनीति में, हर वाक्यांश का एक वज़न और एक विशिष्ट दिशा होती है और हर दोहराव एक विचार को जनचेतना में और गहराई से समाहित कर देता है। प्रधानमंत्री द्वारा "घुसपैठिया" शब्द का चयन अनायास नहीं है। यह न तो कोई तकनीकी शब्द है और न ही कोई तटस्थ शब्द, बल्कि इसमें आक्रमण, चोरी और अवैधता की छवि निहित है। इसे बार-बार इस्तेमाल करके, प्रधानमंत्री सीमाओं, पहचान और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गहरी चिंताओं को भड़काते हैं—और साथ ही उन चिंताओं को पहचाने जाने योग्य समूहों की ओर मोड़ते हैं।
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यही डॉग-व्हिसलिंग का सार है: ऐसी भाषा जो लक्षित दर्शकों/श्रोताओं को एक स्पष्ट, बहिष्कार-कारी संकेत देते देती है। आम जनता के लिए, "घुसपैठिया" अवैध प्रवेशकों के बारे में एक चेतावनी की तरह लग सकता है। लेकिन मुख्य राजनीतिक समूहों के लिए, यह अल्पसंख्यकों—खासकर मुसलमानों, खासकर असम, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों के अल्पसंख्यकों—के खिलाफ एक आरोप के रूप में गूंजता है, जहाँ ऐसे मुद्दों को लंबे समय से बिना किसी सबूत के हथियार बनाया जाता रहा है।
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घुसपैठियों के डर को लगातार दोहराकर, सरकार और पार्टी यह डर पैदा करती है कि देश घेरे में है—बाहरी सैन्य खतरों से नहीं, बल्कि उन अनाम, बेनाम "बाहरी लोगों" से जो कथित तौर पर संसाधनों का दोहन करते हैं, जनसांख्यिकी में बदलाव लाते हैं और सुरक्षा को कमज़ोर करते हैं। इस तरह की बयानबाजी का ख़तरा न केवल यह है कि यह समस्या के पैमाने को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है या विकृत करती है, बल्कि यह पूरे समुदायों को संदेह के घेरे में ला देती है।
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मूलतः घुसपैठिया शब्द के बारम्बार दुहराए जाने की राजनीति सीमाओं की रक्षा कम और पहचान की निगरानी ज़्यादा करती है। यह दुश्मन की तलाश में की जाने वाली बयानबाज़ी है, एक ऐसा नारा जो नाकामी को छुपाते हुए विभाजन को बढ़ावा देता है।"