भारत की हवा ‘आपदा स्तर’ के क़रीब: यूनेप की चेतावनी ने खोली असलियत
भारत के उत्तरी इलाक़ों में हवा ‘आपदा स्तर’ के क़रीब पहुँच गई है—UNEP ने चेतावनी दी है कि दिल्ली-NCR की ज़हरीली हवा अब हर नागरिक के जीवन के लिए खतरा है। सर्दियों का मौसम, पराली, उद्योग, वाहनों, धूल और ज्वालामुखीय राख—सब मिलकर प्रदूषण संकट को और गहरा कर रहे हैं। क्या भारत स्थिरता की ओर जाएगा या गहरे पर्यावरणीय संकट में फँसेगा?;
एक पर्यावरणीय मुद्दा प्रदूषण
सर्दियों में बढ़ता ज़हरीला धुआँ: क्यों थम जाती हैं दिल्ली–NCR की सांसें ?
- पराली ही नहीं, कई वजहों से बढ़ा उत्तर भारत का वायु संकट
- विशेषज्ञ चेतावनी: वायु प्रदूषण सालभर की जंग है, दो महीनों का मुद्दा नहीं
- ज्वालामुखीय राख और धीमी हवाओं ने बढ़ाई मुसीबत
वायु प्रदूषण अब ‘आपदा स्तर’ के निकट, आखिर समाधान क्या है?
नई दिल्ली, 26 नवंबर 2026. उत्तर भारत एक बार फिर उसी धुंध में लिपटा है, जो हर सर्दियों में लाखों लोगों की साँसों को धीमा कर देती है। दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में सुबह की धूप भी धुएँ की मोटी चादर के पीछे छिप जाती है। आँखों में जलन, गले में चुभन, और बच्चों-बुजुर्गों की साँसें भारी, अब यह हर साल की त्रासदी बन चुकी है।
इस बार संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme UNEP) ने साफ़-साफ़ कहा है कि भारत की हवा अब “आपदा स्तर” के क़रीब पहुँच चुकी है। एजेंसी के भारत प्रमुख डॉ. बालकृष्ण पिसुपति (Balakrishna Pispati) साफ चेतावनी देते हैं कि यह सिर्फ पर्यावरण का मुद्दा नहीं रहा, यह इंसानी ज़िंदगी का सवाल बन गया है। हमारी साँसों में ज़हर घुल रहा है।
सर्दियों का मौसम, धीमी हवाएँ, हिमालय की भौगोलिक घेराबंदी, निर्माण स्थलों की धूल, वाहनों का धुआँ, उद्योगों का उत्सर्जन और खेतों में पराली—ये सभी मिलकर हवा को इतना भारी बना देते हैं कि प्रदूषण ऊपर नहीं उठ पाता। नतीजतन AQI 400–500 के पार हो जाता है, जो अंतरराष्ट्रीय मानकों से 35 गुना ज़्यादा खतरनाक है।
पराली और किसानों को दोष देना आसान है, मगर सच्चाई इससे कहीं ज्यादा गहरी है। प्रदूषण का यह जाल बहुस्तरीय है, और इसके लिए हर क्षेत्र कुछ न कुछ ज़िम्मेदार है। यही वजह है कि दिल्ली-NCR में हर साल दमा, ब्रोंकाइटिस और हृदय रोगों के मामलों में तेज़ बढ़ोत्तरी दर्ज होती है।
जैसे यह सब कम न हो, अफ़्रीका के एक ज्वालामुखी से उठी राख अब हवा के साथ दूर-दूर तक फैल रही है, जिसकी दिशा पर विज्ञानियों की नज़र बनी हुई है।
भारत ने CAQM, NCAP और कई अहम नीतियों के सहारे प्रयास तो किए हैं, पर वायु प्रदूषण दो महीने का नहीं, सालभर चलने वाला संकट है। डॉ. पिसुपति साफ़ कहते हैं कि जब तक नीतियाँ, उद्योग, सरकारें, और आम लोग सब मिलकर व्यवहार में बदलाव नहीं लाते—यह जंग नहीं जीती जा सकती।
2025 की यह सर्दी हमें फिर याद दिला रही है कि हवा सिर्फ मौसम नहीं—जीवन है।
और जीवन की रक्षा बिना सामूहिक ज़िम्मेदारी के संभव नहीं।
भारत की हवा किस दिशा में जाएगी? स्थिरता की ओर, या गहरे संकट की ओर? अब यह सवाल सिर्फ पर्यावरणविदों का नहीं, हर नागरिक का है।
पढ़िए भारत में गहराते प्रदूषण की विवेचना करती संयुक्त राष्ट्र समाचार की यह खबर....
भारत: हवा से साँस में घुलता ज़हर, वायु प्रदूषण 'आपदा स्तर' के निकट, यूनेप
25 नवंबर 2025 जलवायु और पर्यावरण
भारत के उत्तरी हिस्से में एक बार फिर सफ़ेद धुन्ध छाई हुई है. दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए सर्दियाँ अब मास्क पहनने, गले में जलन महसूस करने और आँखों में चुभन का मौसम बन गई है. साँस लेने की सामान्य प्रक्रिया भी, अब लोगों की सेहत के लिए नुक़सानदेह होती जा रही है. यूएन पर्यावरण एजेंसी - UNEP ने इस स्थिति को, लोगों के जीवन के लिए अत्यन्त गम्भीर जोखिम बताया है.
भारत में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के प्रमुख डॉक्टर बालकृष्ण पिसुपति ने यूएन न्यूज़ के साथ ख़ास बातचीत में, चेतावनी देते हुए कहा है कि “यह अब केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं रह गया है. हमारी साँसें ही हमारी ज़िन्दगी को ख़तरे में डाल रही हैं.”
उन्होंने बताया कि वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) का स्तर जब 400 या 500 तक पहुँचता है, तो वह अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षित सीमा से लगभग 35 गुना ज़्यादा होता है. ऐसी हवा को ‘गम्भीर’ श्रेणी में माना जाता है, जो हर व्यक्ति के लिए ख़तरनाक है.
भारत के उत्तरी मैदानी इलाक़ों में ये आँकड़े अब आम होते जा रहे हैं. लेकिन इस धुन्ध के पीछे की वैज्ञानिक वास्तविकता इससे कहीं ज़्यादा गहरी और चिन्ताजनक है.
सर्दियों का जाल
हर साल नवम्बर में, जैसे ही तापमान गिरता है और हवाएँ धीमी पड़ती हैं, पूरा माहौल बदल जाता है. ठंडी हवा भारी और घनी हो जाती है और ऊपर उठने से जैसे इनकार कर देती है. धूल, धुआँ, औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों का धुआँ – ये सब मिलकर शहर के ऊपर एक घनी चादर के रूप में, ज़मीन के निकट ही फँसे रह जाते हैं.
डॉक्टर बालकृष्ण पिसुपति बताते हैं, “गर्मियों में ऊपर उठती गर्म हवा प्रदूषकों को ऊपर ले जाती है. लेकिन सर्दियों में हवा घनी हो जाती है और लगभग चलती ही नहीं. दिल्ली में हवा की गति कई बार तो केवल 3 से 4 किलोमीटर प्रति घंटा रहती है. इसका मतलब है कि जो भी प्रदूषण हवा में जाता है, वहीं ठहर जाता है.”
दिल्ली की भौगोलिक स्थिति, प्रदूषण के इस जाल को और भी ख़तरनाक बना देती है. हिमालय की दिशा से आंशिक रूप से घिरा यह इलाक़ा, एक उथले कटोरे की तरह बन जाता है, जहाँ से प्रदूषकों के निकलने का लगभग कोई रास्ता नहीं बचता.
मौसम और भूगोल का यही मिला-जुला असर सर्दियों को हर साल होने वाली एक तय स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति में बदल देता है.
कोई एक पक्ष ज़िम्मेदार नहीं
अक्सर सार्वजनिक बहस इस संकट को एक ही वजह तक सीमित कर देती है – दिल्ली के पड़ोसी प्रान्तों में पराली जलाने के मुद्दे तक. लेकिन यूनेप का मानना है कि तस्वीर इससे कहीं ज़्यादा व्यापक और जटिल है.
डॉक्टर बालकृष्ण पिसुपति कहते हैं, “इसके लिए कोई एक तत्व या पक्ष ज़िमेमदार नहीं है. निर्माण स्थलों की धूल, ईंट-भट्टे, उद्योग, वाहनों का धुआँ, डीज़ल प्रयोग से उत्सर्जन, पराली जलाना – सब मिलकर हवा को ज़हरीला बनाते हैं. सर्दियों में अन्तर यह रहता है कि हवा के फैलने की क्षमता लगभग ख़त्म हो जाती है और जो भी प्रदूषण तत्व हवा में जाते हैं, वह जमा होते चले जाते हैं.”
विभिन्न तरह के प्रदूषक आपस में घुल-मिल जाते हैं, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करते हैं और आख़िरकार दिल्ली-एनसीआर ही नहीं, आसपास के इलाक़ों में रहने वाले लोगों के फेफड़ों तक पहुँच जाते हैं.
इसका नतीजा हर साल साफ़ नज़र आता है – दमे, ब्रोंकाइटिस, दिल पर ज़्यादा दबाव और साँस से जुड़ी बीमारियों के मामलों में तेज़ बढ़ोत्तरी दर्ज की जाती है.
समन्वित कार्रवाई की ज़रूरत
भारत ने वायु प्रदूषण से निपटने के लिए अनेक अहम क़दम उठाए हैं. वायु गुणवत्ता प्रबन्धन आयोग (CAQM) - एक वैधानिक संस्था - प्रदेशों के बीच समन्वय की निगरानी करती है.
राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) का लक्ष्य, कणीय प्रदूषण को कम करना है. वायु निगरानी नैटवर्क, पूर्वानुमान प्रणाली और आपातकालीन योजनाओं पर ख़र्च भी लगातार बढ़ाया जा रहा है.
लेकिन डॉक्टर बालकृष्ण पिसुपति स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि मज़बूत नीतियाँ भी अपने आप नतीजे नहीं देंगी. “आप इस समस्या को दो महीनों में हल नहीं कर सकते. वायु प्रदूषण का प्रबन्धन पूरे साल चलना चाहिए, और इसमें सभी हितधारकों - सरकारों, उद्योगों, घरों, रोज़ाना यात्रा करने वाले लोगों, लोगों के कल्याण समूहों और प्रवर्तन एजेंसियों – सभी को मिलकर काम करना होगा. सबसे ज़रूरी है, व्यवहार में बदलाव.”
उन्होंने कहा कि नियमों का पालन किए जाने में कमी है और आम लोगों की भागेदारी भी उतनी मज़बूत नहीं है.
वो कहते हैं, “हमें पराली जलाने वाली गतिविधियाँ कम करनी होंगी, निर्देशों का पालन करना होगा, वाहनों के इस्तेमाल पर दोबारा सोचना होगा, कचरे का बेहतर प्रबन्धन करना होगा और सामुदायिक स्तर पर ज़िम्मेदारी लेनी होगी. इसके बिना, सबसे अच्छी नीतियाँ भी अपना पूरा असर नहीं दिखा पाएँगी.”
दूर से आया ज्वालामुखीय बादल
मानो स्थानीय प्रदूषण ही काफ़ी नहीं हो, प्रकृति ने इस स्थिति में एक और जटिलता जोड़ दी है. इथियोपिया में सदियों से शान्त एक ज्वालामुखी अचानक फट पड़ा, और उसकी राख के विशाल गुबार वातावरण में फैल गए हैं. अब मौसम वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या ये कण भारत की ओर बढ़ सकते हैं.
डॉक्टर पिसुपति कहते हैं, “इसका असर कुछ समय के लिए हो सकता है. अफ़्रीका के उस हिस्से में अभी गर्मी है, इसलिए हवा का प्रवाह तेज़ है और राख दूर तक जा सकती है. लेकिन इससे भारत में प्रदूषण लम्बे समय तक बढ़ने की सम्भावना नहीं है.”
वायु-गुणवत्ता टीमें इस राख के गुबार की दिशा पर लगातार नज़र बनाए हुए हैं.
भारत किस दिशा में जा रहा है - स्थिरता या गहरे संकट की ओर?
यूनेप का आकलन स्पष्ट और कड़ा है.
डॉक्टर पिसुपति कहते हैं, “भारत में वायु प्रदूषण अब आपदा स्तर के क़रीब पहुँच चुका है. इसका असर केवल एक मौसम तक सीमित नहीं रहता. जो प्रदूषक तत्व आज शरीर में जाते हैं, वे बहुत लम्बे समय तक हमारे भीतर बने रहते हैं.”
उनके अनुसार समाधान तीन मज़बूत स्तम्भों पर टिका है:
1. मंत्रालयों के बीच नीतिगत समन्वय
ऐसा कारगर नहीं होगा कि एक क्षेत्र में प्रदूषण बढ़ाने वाली गतिविधियों को अनुदान दिया जाए अन्य क्षेत्र में उत्सर्जन घटाने की नीति चलाई जाए. दोनों नीतियों में आपसी तालमेल होना चाहिए.
2. अन्तर-प्रान्तीय सहयोग
हवा प्रान्त की सीमाएँ नहीं मानती. इसलिए क्षेत्रीय स्तर पर समन्वय और मिलकर काम करना ज़रूरी है.
3. बहु-हितधारक, जन-केन्द्रित मॉडल
उद्योग, सूक्ष्म और लघु उद्यम, नागरिक समाज, युवा, मीडिया, शिक्षक और शोधकर्ता, स्वास्थ्य विशेषज्ञ - सभी को मिलकर काम करना होगा.
यूनेप ने वायु गुणवत्ता कार्रवाई कार्यक्रम शुरू किया है. यह एक ऐसा मंच है, जहाँ बड़ी और छोटी उद्योग इकाइयाँ, सामुदायिक समूह, विशेषज्ञ, मीडिया और युवा साथ बैठकर समाधान ढूँढते हैं – तकनीकी सुधारों से लेकर स्वच्छ संचालन, और लोगों के व्यवहार में बदलाव तक.
जलवायु, विकास और व्यवहार-परिवर्तन
भारत में जलवायु संक्रमण तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. भारत नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने वाले सबसे बड़े देशों में से एक है और अपने 2030 के कुछ विकास लक्ष्यों को तय समय से पहले ही हासिल कर चुका है. इसके बावजूद वायु प्रदूषण की समस्या बरक़रार है.
डॉक्टर पिसुपति कहते हैं, “नीतियाँ और निवेश हमें काफ़ी आगे तक ले जा सकते हैं, लेकिन अगर व्यवहार नहीं बदला तो हम सफल नहीं होंगे. पर्यावरण की ख़ासियत यह है कि इससे हर व्यक्ति प्रभावित होता है और हर व्यक्ति इससे जुड़ी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार भी है.”
यूनेप और भारत का पर्यावरण मंत्रालय मिलकर अब राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यवहार परिवर्तन कार्यक्रम तैयार कर रहे हैं, जिसका लक्ष्य लोगों के व्यक्तिगत पर्यावरणीय ‘फ़ुटप्रिंट’ को कम करना है.
प्रगति तो हुई है मगर...
लेकिन क्या वर्षों के प्रयासों से सचमुच कोई अन्तर आया है?
डॉक्टर पिसुपति कहते हैं, “हाँ भी और नहीं भी. हम बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन दबाव और कारण भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे आप ट्रैडमिल पर तेज़ी से दौड़ रहे हों - बहुत दौड़ते हैं, लेकिन वहीं के वहीं रहते हैं.”
संस्थागत समन्वय अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है. नीतियों के बीच टकराव और असंगतियाँ जारी हैं. लेकिन नीतिगत तालमेल की ज़रूरत शायद कभी उतनी अहम नहीं रही, जितनी आज है.
कॉप30: जटिलताओं के समन्दर में प्रगति के टापू
डॉक्टर पिसुपति ने, हाल ही में सम्पन्न यूएन जलवायु शिखर सम्मेलन कॉप30 पर विचार करते हुए कहा कि बहुपक्षीय वार्ताएँ शायद ही कभी पूरी तरह आदर्श नतीजे देती हैं, ऐसे मामलों में "सभी को कुछ ना कुछ मिल जाता है, और ऐसा नहीं होता कि सभी को सब कुछ मिल जाए."
अनुकूलन और जलवायु वित्त के मोर्चे पर महत्वपूर्ण प्रगति हुई है. लेकिन जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता घटाने और वनों की रक्षा के सवाल पर दुनिया अब भी एक दोराहे पर खड़ी है - जलवायु समझौते लागू हुए लगभग तीन दशक हो जाने के बाद भी.
वह कहते हैं, “हो सकता है यह आदर्श पैकेज नहीं हो, मगर कुछ कार्रवाई, कुछ भी कार्रवाई नहीं होने से बेहतर है.”
उन्होंने कहा, “हमें कॉप30 को सफलता के अलग–अलग टापुओं की तरह देखना चाहिए.”