इतिहास दोहराते गांधी

राकेश पासवान का लेख: महात्मा गांधी और राहुल गांधी की राजनीति में समानताएँ। श्रमण बनाम सनातन संस्कृति की ऐतिहासिक व समकालीन लड़ाई पर विश्लेषण;

Update: 2024-01-24 11:55 GMT

Gandhi repeating history

राकेश पासवान

दलितों पिछड़ों आदिवासियों की मुखर आवाज बन रहे उस दौर के गांधी को भी भगवती अम्मन मंदिर में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था इस दौर के भी गांधी को रोका गया मतलब साफ है.

लडाई सही दिशा में हैं अब राहुल गांधी को एक कदम आगे बढ़कर श्रमण संस्कृति की लड़ाई की अगुवाई करनी चाहिए। भारतीय राजनीति में सत्ता की लडाई लड़ने वालों को सत्ता नहीं मिलेगी, बल्कि संस्कृति की लडाई लड़ने वालों को सत्ता मिलेगी। इस देश में लड़ाई दो ही संस्कृतियों की है एक श्रमण संस्कृति तो दूसरा सनातन संस्कृति। बीजेपी और आरएसएस ने सनातन संस्कृति को बहुत ही गहराई से पकड़ लिया है। अब सभी विपक्षी दलों के पास श्रमण संस्कृति ही बचती है, अब इस संस्कृति की जो अगुवाई करेगा वही देश पर राज करेगा। महात्मा गांधी की भी लड़ाई थोड़ा बहुत ही सही, लेकिन श्रमण संस्कृति के आसपास दिखती है। इसीलिए उस समय का वंचित समाज उनके साथ खड़ा था, जिसका विरोध गांधी जी को उस समय के सनातनी संस्कृति के लोगों से झेलना पड़ा था। मोहनदास करमचंद को गांधी श्रमण संस्कृति के वंचित समाज के लोगों ने ही बनाया, जो आज भी देश और दुनिया में चर्चा परिचर्चा का परियाय बने हैं। उस समय गांधी जी के विरोध में हुई घटनाओं का कुछ उदाहरण देखिए समझ में आ जायेगा।

जब शंकराचार्य ने अंग्रेजों से कहा गांधी को देश से निकाल दो

हिंदू महासभा ने यह भी तय किया था कि गांधी जहां-जहां अस्पृश्यता का विरोध करने जायेंगे, वहां उन्हें काले झंडे दिखाए जायेंगे.

महात्मा गांधी सभी धर्मों के आदर की बात कहते थे. उन्होंने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में भी सभी धर्मों के भजन और गीत गाने की परंपरा शुरू की थी. वे चाहते थे कि ऐसे ही सारे ही धर्मों की अच्छाइयों को लोग स्वीकार करें और उसके हिसाब से आचरण करें.

महात्मा गांधी बहुत धार्मिक थे और अध्यात्म को हमेशा राजनीति से ऊपर रखते थे. लेकिन उनकी आध्यात्मिकता के चलते उन्हें बहुत से तत्कालीन नेताओं जैसे अंबेडकर आदि की आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था.

ऐसे में जब महात्मा गांधी का वैचारिक संवाद एक ओर अंबेडकर जैसे एक्टिविस्ट से चल रहा था, तो दूसरी ओर संकीर्ण हिंदुत्ववादी भी उनसे उलझे हुए थे. हालांकि गांधी उनसे संवाद से पूरी तरह बचते थे. इसका कारण था कि गांधी उन्हें धर्मांध और मूर्ख मानते थे.

हाल ही में इतिहासकार रामचंद्र गुहा की एक नई किताब आई है, जिसका नाम है गांधी : द इयर्स दैट चेंज्ड इंडिया (Gandhi: The Years That Changed India). इसी किताब के बारे में एक इंटरव्यू के दौरान गुहा ने कहा, "अंबेडकर के समर्थकों से आज आप बात करें तो वे कहेंगे कि जाति के प्रश्न पर गांधी इतना धीरे चल रहे थे कि वे कभी जाति व्यवस्था को खत्म नहीं कर पाते. वहीं अगर आप उस दौर के हिंदुत्ववादियों की बातें पढ़ें तो उन्हें कहते हुए पाएंगें कि गांधी छुआछूत और जाति के प्रश्न पर बहुत तेजी से काम कर रहे थे."

गांधी से निपटने के लिए हिंदुत्ववादियों ने बनाए कई प्लान

जैसा कि बताया गया हिंदुत्ववादी गांधी से चिढ़े हुए थे. उनका कहना था कि अस्पृश्यता का जिक्र हमारे पुराणों में है और एक 'बनिया', जिसे संस्कृत भी नहीं आती, हमारी श्रृद्धा को अपने हिसाब से डालना चाहता है? आप इससे गांधी की मनोस्थिति समझ सकते हैं कि कैसे उन्हें एक ओर आधुनिक आलोचक अंबेडकर और दूसरी ओर शंकराचार्य जैसे लोगों से एक साथ निपटना पड़ रहा था.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि हिंदू रुढ़िवादी उनके जाति और अस्पृश्यता विरोधी कामों के चलते उनका विरोध करते थे. एक बार तो शंकराचार्य ने गांधी के बारे में ब्रिटिशों पर दबाव भी बनाया था कि गांधी को देश से निकाल दिया जाना चाहिए. हिंदू महासभा ने यह कार्यक्रम भी बनाया था कि गांधी जहां-जहां भी अस्पृश्यता के विरोध में सभा या रैली करने जायेंगे, वहां पर उन्हें काले झंडे दिखाए जायेंगे.

गांधी जी जो पंक्तियां अपने आश्रमों और आंदोलनों में दोहराते थे हर जगह सबको जोड़ने के लिए

" रघुपति राघव राजाराम

पतित पावन सीताराम

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम

सबको सम्मति दे भगवान"

अब इसे आरएसएस और भाजपा ने ईश्वर, अल्लाह और राम को सबको अलग-अलग करके कई हिस्सों में बांट कर सनातन संस्कृति का चोला पहनाने के लिए कमर कस लिया है, राम मंदिर तो महज एक बानगी है। आगे बहुत कुछ है जो कि अभी आम लोगों और विपक्षी दलों के समझ से परे है

(लेखक राकेश पासवान इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से जुड़े रहे हैं और वर्तमान में यूपी कांग्रेस कमेटी के अनुसूचित जाति विभाग के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं)

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