पिछड़े वर्गों के मसीहा बी.पी. मंडल : मंडल आयोग और भारतीय राजनीति पर ऐतिहासिक प्रभाव
बी.पी. मंडल (Bindeshwari Prasad Mandal) का जीवन परिचय, मंडल आयोग की रिपोर्ट, 27% ओबीसी आरक्षण की ऐतिहासिक सिफारिश और भारतीय राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का विस्तार से विश्लेषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली।;
B.P. Mandal Biography in Hindi
बी.पी. मंडल कौन थे? (B.P. Mandal Biography in Hindi)
- मंडल आयोग का गठन और रिपोर्ट
- वी.पी. सिंह और मंडल आयोग की सिफ़ारिशों का लागू होना
- मंडल बनाम कमंडल की राजनीति
बी.पी. मंडल की विरासत और समाज पर प्रभाव
बी.पी. मंडल (Bindeshwari Prasad Mandal) का जीवन परिचय, मंडल आयोग की रिपोर्ट, 27% ओबीसी आरक्षण की ऐतिहासिक सिफारिश और भारतीय राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का विस्तार से विश्लेषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली।
पिछड़े वर्गों के मसीहा बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (25 अगस्त 1918 - 13 अप्रैल 1982)
'मंडल' तीन अक्षरों का एक ऐसा नाम है जिसने नब्बे के दशक में भारतीय राजनीति में इतना प्रभाव डाला कि भूकंप जैसा माहौल पैदा हो गया।इस शब्द ने कई राजनीतिक दलों और कई दिग्गज नेताओं को हिलाकर रख दिया और एक ऐसी राजनीतिक प्रतिक्रिया को जन्म दिया जिसने बहुत से लोगों के जीवन को छुआ और उन्हें सशक्त भी बनाया।यह भारतीय चुनावी परिदृश्य को बदलने वाला एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी बना और इसको लेकर कई सरकारें बनी और टूटीं।
यह नाम बिहार के एक ऐसे राजनेता बाबू बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल से जुड़ा है, जिन्हें आमतौर पर बी.पी. मंडल के नाम से जाना जाता है और जो पिछड़ी जातियों के लिए अपनी वकालत के लिए जाने जाते थे। वह 1968 में कुछ समय के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बनकर प्रांतीय सत्ता के शिखर तक पहुँचे। लेकिन उनकी अध्यक्षता में बने जिस आयोग की सिफारिशों के लागू होने ने नब्बे के दशक में भारतीय राजनीति में तूफ़ान ला दिया उसे देखने के लिए वह जीवित नहीं रहे थे!
एक सांसद के रूप में, उन्होंने द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है, के अध्यक्ष के रूप में 1980 में सिफारिश की थी कि अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को केंद्र सरकार की सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए।
मंडल आयोग
दिसंबर 1978 में, जनता सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पिछड़े वर्ग के लोगों के विकास के लिए क्या क़दम उठाये जायें यह सुझाने के लिए एक पाँच सदस्यीय आयोग का गठन किया था। पिछड़े-दलित वर्गों के उत्थान के प्रति अपनी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता के कारण, बी पी मंडल को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। इस आयोग ने दिसंबर 1980 में अपनी एक रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत की, जिसमें सिफारिश की गई थी कि सरकारी नौकरियों और शैक्षिक अवसरों का एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए भी आरक्षित किया जाए।
अवसर की समानता पर ज़ोर देते हुए, इस रिपोर्ट ने सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक प्रणालियों में उन कमियों की पहचान करने और उन्हें दूर करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला, जो समाज के एक बड़े वर्ग को वंचित कर रही थीं। इस प्रकार, मंडल आयोग की रिपोर्ट भारत में सामाजिक न्याय की दिशा में आशा की प्रतीक बन गई।
हालाँकि यह रिपोर्ट 31 दिसंबर, 1980 को तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी गई थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी (1980-89) ने इसे संसद में कभी पेश नहीं किया। इसके लिए 1989 तक वी.पी. सिंह के प्रधानमंत्री बनने तक इंतज़ार करना पड़ा।
आयोग की अपनी रिपोर्ट की प्रेरक प्रारंभिक पंक्तियाँ में मंडल ने लिखा: “समानता केवल समानों के बीच ही होती है। असमानों को समान मानना असमानता को बनाए रखना है।” उनका यह कथन न केवल सामाजिक न्याय के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता, बल्कि उनके दृढ़ निश्चय के साहस का भी प्रमाण है।
ग़ौरतलब है कि पिछड़े और ग़रीबों के मसीहा कहे जाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह की भी इस रिपोर्ट को लागू करने में कोई ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी मगर उनके और देवीलाल के बीच हुए एक राजनीतिक झगड़े ने वी.पी. सिंह को यह फैसला लेने और अपना 'मास्टरस्ट्रोक' चलाने के लिए मजबूर कर दिया।
दरअसल जुलाई-अगस्त 1990 के दौरान उस समय के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और उनके उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल के बीच सत्ता संघर्ष ज़ोरों पर था। इसकी पृष्ठभूमि हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला का मुख्यमंत्री बनना था जो देवीलाल के पुत्र थे।
1989 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद वी.पी. सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे। उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में देवीलाल की एक बड़ी भूमिका थी। जनता संसदीय दल का नेता चुने जाने के बावजूद देवीलाल ने वी.पी. सिंह के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया और उनके मंत्रिमंडल में उप प्रधानमंत्री बन गए। अपनी जगह हरियाणा में उन्होंने अपने पुत्र ओमप्रकाश चौटाला को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उस समय चौटाला राज्य विधानसभा के सदस्य नहीं थे। नियमों के तहत मुख्यमंत्री बने रहने के लिए नियमानुसार छह माह के अंदर उनका विधानसभा का चुनाव जीतना अनिवार्य था। चौधरी देवीलाल ने सांसद बनने के बाद महम विधानसभा सीट से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में विधानसभा की महम सीट खाली थी। इस सीट पर ओमप्रकाश चौटाला ने बाहुबल के ज़रिये चुनाव जीतना चाहा। वहां बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और दस लोग मारे गए और चौटाला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इसी कारण विश्वनाथ प्रताप सिंह और देवीलाल के बीच झगड़ा बढ़ गया।
देवीलाल ने 17 मार्च, 1990 को उप-प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और एक तरह से वी.पी. सिंह के खिलाफ खुली बग़ावत का ऐलान कर दिया। नतीजे में वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके एक बड़ा सियासी दांव चला।
6 अगस्त, 1990 की शाम वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री कार्यालय, नई दिल्ली में केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक सामान्य बैठक बुलाई। बैठक में सभी मंत्री तो नहीं पहुंचे लेकिन जो मौजूद थे उनके बीच वी.पी. सिंह ने खड़े होकर कहा : "मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना हमारी पार्टी के घोषणापत्र का हिस्सा है और अब इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करने का समय आ गया है। इसी उद्देश्य से, आज मैं आपके समक्ष बी.पी. मंडल आयोग की सिफारिशें रख रहा हूँ, जिसके तहत सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है, और मुझे आशा है कि आप सभी इससे सहमत होंगे।"
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तुरंत प्रधानमंत्री के इस प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी और अगले दिन प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल के इस फ़ैसले का ऐलान संसद में भी कर दिया।
जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वी.पी. द्वारा रखे गए प्रस्ताव को मंजूरी दे दी तो कांग्रेस पार्टी सहित तमाम विपक्षी दल इस दुविधा में पड़ गए कि पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने का समर्थन करें या न करें। आरक्षण के खिलाफ उच्च जाति के कुछ वर्गों द्वारा सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। पिछड़े वर्ग के छात्रों ने भी सरकार के फैसले के समर्थन में रैलियां निकालीं और झड़पें हुईं। तब सुप्रीम कोर्ट की एक युवा वकील, इंद्रा साहनी ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। उनकी याचिका (यह मामला इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के रूप में जाना जाता है) का संज्ञान लेते हुए, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा ने मंडल आयोग की अधिसूचना पर तत्काल प्रभाव से रोक (स्टे) लगा दी। तीन साल बाद, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने आरक्षण के पक्ष में फैसला सुनाया तब यह सिफारिशें लागू हो सकीं।
आखिर यह मंडल कौन था जिसने सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की सिफारिश की थी ? वह थे बाबू बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल, जिन्हें आमतौर पर बी.पी. मंडल के नाम से जाना जाता है।
बी.पी. मंडल की जीवनी (Biography of B.P. Mandal in Hindi)
25 अगस्त, 1918 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में जन्मे बी.पी. मंडल ने कम उम्र में ही न केवल जाति-ग्रस्त समाज में सम्मान सुनिश्चित करने में धन की अप्रभाविता के बारे में सीखा, बल्कि प्रतिरोध की आवश्यकता के बारे में भी जाना। मंडल उत्तरी बिहार के मधेपुरा के एक धनी यादव जमींदार परिवार से थे। दरभंगा में अपने हाई स्कूल के छात्रावास में, जमीनी हकीकत ने उन्हें बहुत परेशान किया : उच्च जाति के लड़कों को पहले खाना परोसा जाता था; उनकी बारी उसके बाद ही आती थी। जब आती थी, तो उन्हें बैठने के लिए बेंच तक नहीं मिलती थी। बीपी ने मंडल ने अपने समूह के लड़कों को इकट्ठा किया और विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया, जिससे स्कूल प्रशासन को इस अक्षम्य व्यवस्था को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा।
मंडल ने पटना कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और भागलपुर में मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त हुए। 1941 में, 23 वर्ष की आयु में, वे भागलपुर जिला परिषद के सदस्य बने। वे जीवन भर राजनीति और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे।
पेशे से कृषक, मंडल कांग्रेस पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, शोषित दल और जनता पार्टी से जुड़े रहे। वे बिहार विधानमंडल के दोनों सदनों के लिए चार बार और लोकसभा के लिए तीन बार चुने गए।
1952 में बिहार राज्य विधानसभा के पहले चुनाव में, मंडल ने कांग्रेस के टिकट पर मधेपुरा विधानसभा सीट जीती और सोशलिस्ट पार्टी के भूपेंद्र नारायण मंडल को हराया। 1957 के चुनावों में स्थिति उलट गई। इस बार, सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे भूपेंद्र नारायण मंडल ने बी.पी. मंडल को हरा दिया। बाद में, बी.पी. मंडल और भूपेंद्र नारायण मंडल बिहार में समाजवादी आंदोलन में सहयात्री बन गए। दोनों पिछड़ी यादव जाति से थे। जिले में यादवों के प्रभाव का अंदाजा इस कहावत से लगाया जा सकता है जब कहा जाता था कि "अगर रोम पोप का, तो मधेपुरा गोप (यादवों) का"।
बी.पी. मंडल 1954 में उस समय सुर्खियों में आए, जब बिहार के एक गाँव के राजपूत ज़मींदारों ने एक कुर्मी गाँव पर हमला किया, जिसके कारण पिछड़े वर्ग के लोगों पर पुलिस अत्याचार शुरू हो गए। सत्तारूढ़ दल के विधायक मंडल ने विधानसभा में खड़े होकर पुलिस के खिलाफ तत्काल कार्रवाई और पीड़ितों के लिए मुआवजे की मांग की, जिससे सभी का ध्यान आकर्षित हुआ। मंडल पर अपनी मांग वापस लेने का दबाव बनाया गया, जिसके कारण उन्हें विपक्ष में जाना पड़ा और इस मुद्दे के लिए लड़ना जारी रखा, जिससे सत्तारूढ़ दल को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी।
इस विरोध और अवज्ञा से प्रभावित होकर, समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने मंडल को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल किया और उन्हें पार्टी की बिहार इकाई का अध्यक्ष बनाया।
1967 में मंडल ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। साथ ही वह बिहार में बने संविद मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। इसे लेकर लोहिया से उनके मतभेद होने हो गए। बाद में मंडल ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी और मार्च 1967 में शोषित दल नामक एक नई पार्टी बना ली।
राजनीतिक हालात कुछ ऐसे बने कि मंडल ने 1 फ़रवरी, 1968 को बिहार के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। हालाँकि, इस पद पर बने रहने के लिए उन्हें बिहार विधानमंडल का सदस्य बनना आवश्यक था। तब उनकी पार्टी के एक विधायक सतीश सिंह को चार दिनों के लिए मुख्यमंत्री बनाया गया, जब तक कि मंडल विधान परिषद के सदस्य नहीं बन गए और उन्होंने पुनः पदभार ग्रहण नहीं कर लिया।
केवल 47 दिन चली मंडल सरकार
बिहार के इतिहास में यह पहली बार था कि किसी मंत्रिमंडल में मुख्य रूप से उच्च जातियों के बजाय अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रतिनिधि शामिल किये गए थे। हालाँकि उनकी सरकार केवल 47 दिनों तक चली, लेकिन पिछड़ों को सरकार में प्रतिनिधित्व दिए जाने के इस क्रांतिकारी बदलाव ने भारतीय राजनीति में नई ऊर्जा का संचार किया। लेकिन मंडल ने कांग्रेस द्वारा टी.एल. वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता वाले अय्यर आयोग को हटाने के विरोध में केवल 30 दिनों के बाद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, जिसने कई मंत्रियों और वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच की थी।
1968 में मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर बी पी मंडल पुनः लोकसभा सदस्य बने। 1972 में मंडल बिहार विधानसभा के सदस्य के रूप में पुनः निर्वाचित हुए, लेकिन 1975 में जेपी आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी विधायकी से इस्तीफा दे दिया। बाद में, मंडल जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन, जिसे बिहार आंदोलन (1974-75) के नाम से भी जाना जाता है, में शामिल हो गए और अब्दुल गफूर के नेतृत्व वाली राज्य कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया।
1977 में, मंडल ने जनता पार्टी के टिकट पर मधेपुरा से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। वे 1979 तक इस पद पर रहे।
1990 में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के कार्यान्वयन ने पिछड़े वर्गों और जातियों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले नए राजनीतिक दलों और नेताओं को जन्म दिया। ऐसे नेताओं में मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और मायावती आदि शामिल हैं। इसने दलितों और आदिवासियों, मुसलमानों और महिलाओं सहित विभिन्न निम्नवर्गीय समूहों के बीच सामाजिक आंदोलनों, गठबंधनों और सत्ता की भूख के उदय को भी जन्म दिया।
हालाँकि, इसने उच्च जातियों और दक्षिणपंथी ताकतों की ओर से भी प्रतिक्रिया को जन्म दिया, जिन्होंने पिछड़े वर्गों की राजनीति का मुकाबला करने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा का सहारा लिया। यह अवधि 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के राम जन्मभूमि आंदोलन के उदय के साथ भी शुरू हुई जिसने एक ऐसी स्थिति पैदा की जिसे "मंडल बनाम कमंडल की राजनीति" के रूप में जाना गया।
मंडल अपनी सिफ़ारिशों के ऐतिहासिक प्रभाव को देखने के लिए जीवित नहीं रहे। रिपोर्ट के लागू होने से बहुत पहले, 13 अप्रैल, 1982 को उनका निधन हो गया। लेकिन मंडल को बिहार में पिछड़े वर्गों के मसीहा के रूप में याद और सम्मानित किया जाता है। उनकी स्मृति में मूर्तियाँ और स्मारक बनाए गए हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. संदीप यादव कहते हैं : “बी.पी. मंडल एक साहसी और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे, जो उत्पीड़ित और शोषित जनता के हितों के लिए खड़े रहे। वे एक दूरदर्शी व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की सामाजिक संरचना और राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता को पहले ही भाँप लिया था। वे एक सुधारक भी थे जिन्होंने एक अधिक समावेशी और समतावादी समाज की वकालत की। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने लाखों लोगों को अपने अधिकारों और सम्मान के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। वे एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ी जो आज भी भारत के भाग्य को आकार दे रही है।”
क़ुरबान अली
(क़ुरबान अली, एक वरिष्ठ त्रिभाषी पत्रकार हैं जो पिछले 45 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं। वे 1980 से साप्ताहिक 'जनता', साप्ताहिक 'रविवार' 'सन्डे ऑब्ज़र्वर' बीबीसी, दूरदर्शन न्यूज़, यूएनआई और राज्य सभा टीवी से संबद्ध रह चुके हैं और उन्होंने आधुनिक भारत की कई प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाओं को कवर किया है। उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गहरी दिलचस्पी है और अब वे देश में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं)।