ताराशंकर बंदोपाध्याय: जीवन की शुरुआत और साहित्यिक यात्रागणदेवता से आरोग्य निकेतन तक: ग्रामीण भारत की अनसुनी कहानियाँ स्वतंत्रता संग्राम और फासीवाद विरोधी चेतना में लेखक की भूमिका लाभपुर से राज्यसभा तक: एक साहित्यकार की जनपक्षधर राजनीति ताराशंकर बंदोपाध्याय की आज की ज़रूरत क्यों बनी हुई है? क्या हमारे साहित्यकार आज भी सामाजिक हस्तक्षेप करते हैं? 128वीं जयंती पर एक आत्ममंथन: साहित्य, राजनीति और जिम्मेदारी साहित्य के अपवाद पुरुष: स्मृति और समर्पण का दिन 23 जुलाई को बंगाली साहित्य के महान लेखक ताराशंकर बंदोपाध्याय की 128वीं जयंती है। जानिए उनके साहित्यिक योगदान, आजादी के आंदोलन में भूमिका और उनके उपन्यासों की आज की प्रासंगिकता...23 जुलाई को बंगाली भाषा के लेखक श्री ताराशंकर बंदोपाध्याय की 128 वीं जयंती मेरे बंगाली भाषा के प्रिय साहित्यकारों में से एक साहित्यिकार श्री ताराशंकर बंदोपाध्याय की 23 जुलाई को 128 वीं जयंती पर विनम्र अभिवादन. 23 जुलाई 1898 को लाभपुर नाम के बीरभूम जिले के एक छोटे से गांव में उनका जन्म हुआ था. अनायास मेरी मित्र मनीषा बनर्जी के वर्तमान समय में लाभपुर गव्हरमेंट गर्ल्स हाईस्कूल की मुख्याध्यापिका, और ताराशंकर बंदोपाध्याय मेमोरियल कमेटी की एक सदस्य होने के कारण मुझे दो एक बार लाभपुर जाने का मौका मिला, तो मेरे लिए ताराशंकर बंदोपाध्याय की जन्मभूमि वाले गांव में जाने की बात, किसी भी तरह के तीर्थक्षेत्र से कम नहीं थी. मैं 'गणदेवता' (चंडीमंडप) में लिखी हुई जगहों को ढूंढ रहा था. (2020 - 22 में) हमारे देश के गांव अब कहां बचे हैं ? दुनिया भर की दुकानों की भरमार लगता है. पूरा देश ही एक बाजार में तब्दील होते जा रहा है. और उसमे भी मोबाइल फोन से लेकर फैशनेबल कपड़ों के और इलेक्ट्रॉनिक सामान और स्ट्रूट फूड्स के दुकानों की भरमार. लगता है कि लोगों को रोजमर्रा के जीवन की जगह मोबाइल फोन और इलेक्ट्रॉनिक सामान ही हो गए हैं. शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जो आज बचा है. तो ताराशंकर बंदोपाध्याय का लाभपुर अपवाद कैसे हो सकता है ? जीवन में पहली बार 1982 के बाद मैं, मेरी मराठी भाषा की विश्वभारती में पढ़ाने वाली मित्र, विणा आलासे के कारण, बोलपूर स्टेशन से उतरकर शांतिनिकेतन के रास्ते भर मराठी भाषी लेखक श्री. पु. ल. देशपांडे का लिखा हुआ मुक्काम पोस्ट शांतिनिकेतन को, ढूंढने की कोशिश कर रहा था. और मुझे दिखाई दे रहे थे, वीडियो पार्लर्स, और भारत की कला, साहित्य, संगीत, संस्कृति को लेकर स्थापित विश्वभारती के बच्चे - बच्चियों की भीड़, उन विडियोपार्लरो में देखकर मै हैरान-परेशान हो गया था. वहीं हाल लाभपुर जो शांतिनिकेतन से पच्चीस किलोमीटर की दूरी से भी कम अंतर का गांव है, जिला बीरभूम ही है, का था. ताराशंकर बंदोपाध्याय की 14 सितंबर 1971 के दिन कलकत्ता में मृत्यु हुई. कुल 73 साल के जीवन में 65 उपन्यास, 53 कहानी संग्रह, 12 नाटक, 4 निबंध संग्रह, 4 आत्मकथा और दो प्रवास वर्णन. और सैकड़ों गीतों के लेखन करने वाले ताराशंकर बंदोपाध्याय अपनी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज कलकत्ता की शिक्षा अधूरी छोड़कर, महात्मा गाँधी जी के आवाहन पर 1930 में असहयोग आंदोलन में शामिल होते हैं. और जेल भी जाते हैं. और जेल से बाहर निकलने के बाद 1932 में पहली बार शांतिनिकेतन में जाकर रविंद्रनाथ टागौर से मिलने जाते हैं. और इसी साल उनके ' चैताली घूर्णी (Chaitali Ghurni by Tarasankar Bandyopadhyay) ' नाम का पहला उपन्यास का प्रकाशन होता है. और लाभपुर छोड़कर कलकत्ता के बागबाजार में रहने के लिए चले जाते हैं. और 1948 में ताला पार्क में अपने खुद के मकान को बनाने के बाद उसमें रहने चले जाते हैं. सुना है कि उस मकान को बंगाल सरकार ने ताराशंकर बंदोपाध्याय के स्मृति म्यूजियम के लिए लेने की कोशिश की थी. लेकिन वर्तमान में ताराशंकर बंदोपाध्याय के वंशजों के प्रॉपर्टी को लेकर झगड़ों में अब वह जगह किसी मॉल में तब्दील हो गई है. कालाय तस्मै नमः. ताराशंकर बंदोपाध्याय 1942 में बिरभूम जिला साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष और एंटी फासिस्ट राईटर्स और आर्टिस्ट असोसिएशन ऑफ बंगाल के अध्यक्ष चुने गए थे, बंगाल प्रदेश के अध्यक्ष बनने के बाद, फासिस्जम के खिलाफ अभियान को सफल बनाने के लिए, बीरभूम के लाभपुर से लेकर अविभाजित बंगाल में, युद्धखोर हिटलर - मुसोलिनी के खिलाफ प्रचार - प्रसार करने के लिए विशेष रूप से कोशिश करते हैं. लेकिन विडंबना देखिए कि आज हमारा देश फासिज्म की गिरफ्त में चला जा रहा है. और ताराशंकर जैसी किसी हस्ती को उसके खिलाफ संगठित रुप से विरोध करते हुए नहीं देख रहा हूं. 140 से ऊपर किताबों के लेखक, देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर, अंतरराष्ट्रीय संकट फासिज्म के खिलाफ वाले आंदोलन में शामिल होने, और उसके लिए जेल जाने से लेकर, धुआंधार प्रचार करने के लिए सभा सम्मेलन करने वाले हमारे देश में और कितने साहित्यकारों के नाम मिलते हैं ? ज्यादातर साहित्यकार आत्ममुग्ध, नार्सिस्ट होने के कारण अपनी खुद की प्रतिमा से बाहर नहीं आते. और लोग भी उन्हें क्रिएटिव आर्टिस्ट हैं, समझकर उनके नाज - नखरों को बर्दाश्त करते हैं. इनमें से कुछ लोगों को अपनी खुद की ही दुनिया में मशगूल रहने के कारण उन्हें देश - दुनिया को लेकर रत्तीभर का लेना-देना नहीं है. और इनके इस तरह की हरकतों का फायदा शासकों को होता है. और वह आज वर्तमान समय में भारत में तो बहुत ही साफ-साफ दिखाई दे रहा है. मैं तो खुद अपने 72 साल के जीवन में, जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समय, फिर उसके बाद आपातकाल, और आज गत ग्यारह सालों से जारी अघोषित आपातकाल के समय में अपनी आंखों से देख रहा हूँ. वर्तमान समय में भारत के चंद अपवादों को छोड़कर कितने लेखक-पत्रकार, कवि अपनी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्तमान स्थिति पर, भूमिका लेकर कुछ कृति कर रहे हैं ? और इसलिए राजनीति के लोग दलितों, आदिवासी, महिलाओं तथा अल्पसंख्यक समुदायों के बीच काम करने वाले लोगों को, आंदोलनजीवी जैसी गालियाँ देने...
ताराशंकर बंदोपाध्याय: जीवन की शुरुआत और साहित्यिक यात्रागणदेवता से आरोग्य निकेतन तक: ग्रामीण भारत की अनसुनी कहानियाँ स्वतंत्रता संग्राम और फासीवाद विरोधी चेतना में लेखक की भूमिका लाभपुर से राज्यसभा तक: एक साहित्यकार की जनपक्षधर राजनीति ताराशंकर बंदोपाध्याय की आज की ज़रूरत क्यों बनी हुई है? क्या हमारे साहित्यकार आज भी सामाजिक हस्तक्षेप करते हैं? 128वीं जयंती पर एक आत्ममंथन: साहित्य, राजनीति और जिम्मेदारी साहित्य के अपवाद पुरुष: स्मृति और समर्पण का दिन 23 जुलाई को बंगाली साहित्य के महान लेखक ताराशंकर बंदोपाध्याय की 128वीं जयंती है। जानिए उनके साहित्यिक योगदान, आजादी के आंदोलन में भूमिका और उनके उपन्यासों की आज की प्रासंगिकता...23 जुलाई को बंगाली भाषा के लेखक श्री ताराशंकर बंदोपाध्याय की 128 वीं जयंती मेरे बंगाली भाषा के प्रिय साहित्यकारों में से एक साहित्यिकार श्री ताराशंकर बंदोपाध्याय की 23 जुलाई को 128 वीं जयंती पर विनम्र अभिवादन. 23 जुलाई 1898 को लाभपुर नाम के बीरभूम जिले के एक छोटे से गांव में उनका जन्म हुआ था. अनायास मेरी मित्र मनीषा बनर्जी के वर्तमान समय में लाभपुर गव्हरमेंट गर्ल्स हाईस्कूल की मुख्याध्यापिका, और ताराशंकर बंदोपाध्याय मेमोरियल कमेटी की एक सदस्य होने के कारण मुझे दो एक बार लाभपुर जाने का मौका मिला, तो मेरे लिए ताराशंकर बंदोपाध्याय की जन्मभूमि वाले गांव में जाने की बात, किसी भी तरह के तीर्थक्षेत्र से कम नहीं थी. मैं 'गणदेवता' (चंडीमंडप) में लिखी हुई जगहों को ढूंढ रहा था. (2020 - 22 में) हमारे देश के गांव अब कहां बचे हैं ? दुनिया भर की दुकानों की भरमार लगता है. पूरा देश ही एक बाजार में तब्दील होते जा रहा है. और उसमे भी मोबाइल फोन से लेकर फैशनेबल कपड़ों के और इलेक्ट्रॉनिक सामान और स्ट्रूट फूड्स के दुकानों की भरमार. लगता है कि लोगों को रोजमर्रा के जीवन की जगह मोबाइल फोन और इलेक्ट्रॉनिक सामान ही हो गए हैं. शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जो आज बचा है. तो ताराशंकर बंदोपाध्याय का लाभपुर अपवाद कैसे हो सकता है ? जीवन में पहली बार 1982 के बाद मैं, मेरी मराठी भाषा की विश्वभारती में पढ़ाने वाली मित्र, विणा आलासे के कारण, बोलपूर स्टेशन से उतरकर शांतिनिकेतन के रास्ते भर मराठी भाषी लेखक श्री. पु. ल. देशपांडे का लिखा हुआ मुक्काम पोस्ट शांतिनिकेतन को, ढूंढने की कोशिश कर रहा था. और मुझे दिखाई दे रहे थे, वीडियो पार्लर्स, और भारत की कला, साहित्य, संगीत, संस्कृति को लेकर स्थापित विश्वभारती के बच्चे - बच्चियों की भीड़, उन विडियोपार्लरो में देखकर मै हैरान-परेशान हो गया था. वहीं हाल लाभपुर जो शांतिनिकेतन से पच्चीस किलोमीटर की दूरी से भी कम अंतर का गांव है, जिला बीरभूम ही है, का था. ताराशंकर बंदोपाध्याय की 14 सितंबर 1971 के दिन कलकत्ता में मृत्यु हुई. कुल 73 साल के जीवन में 65 उपन्यास, 53 कहानी संग्रह, 12 नाटक, 4 निबंध संग्रह, 4 आत्मकथा और दो प्रवास वर्णन. और सैकड़ों गीतों के लेखन करने वाले ताराशंकर बंदोपाध्याय अपनी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज कलकत्ता की शिक्षा अधूरी छोड़कर, महात्मा गाँधी जी के आवाहन पर 1930 में असहयोग आंदोलन में शामिल होते हैं. और जेल भी जाते हैं. और जेल से बाहर निकलने के बाद 1932 में पहली बार शांतिनिकेतन में जाकर रविंद्रनाथ टागौर से मिलने जाते हैं. और इसी साल उनके ' चैताली घूर्णी (Chaitali Ghurni by Tarasankar Bandyopadhyay) ' नाम का पहला उपन्यास का प्रकाशन होता है. और लाभपुर छोड़कर कलकत्ता के बागबाजार में रहने के लिए चले जाते हैं. और 1948 में ताला पार्क में अपने खुद के मकान को बनाने के बाद उसमें रहने चले जाते हैं. सुना है कि उस मकान को बंगाल सरकार ने ताराशंकर बंदोपाध्याय के स्मृति म्यूजियम के लिए लेने की कोशिश की थी. लेकिन वर्तमान में ताराशंकर बंदोपाध्याय के वंशजों के प्रॉपर्टी को लेकर झगड़ों में अब वह जगह किसी मॉल में तब्दील हो गई है. कालाय तस्मै नमः. ताराशंकर बंदोपाध्याय 1942 में बिरभूम जिला साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष और एंटी फासिस्ट राईटर्स और आर्टिस्ट असोसिएशन ऑफ बंगाल के अध्यक्ष चुने गए थे, बंगाल प्रदेश के अध्यक्ष बनने के बाद, फासिस्जम के खिलाफ अभियान को सफल बनाने के लिए, बीरभूम के लाभपुर से लेकर अविभाजित बंगाल में, युद्धखोर हिटलर - मुसोलिनी के खिलाफ प्रचार - प्रसार करने के लिए विशेष रूप से कोशिश करते हैं. लेकिन विडंबना देखिए कि आज हमारा देश फासिज्म की गिरफ्त में चला जा रहा है. और ताराशंकर जैसी किसी हस्ती को उसके खिलाफ संगठित रुप से विरोध करते हुए नहीं देख रहा हूं. 140 से ऊपर किताबों के लेखक, देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर, अंतरराष्ट्रीय संकट फासिज्म के खिलाफ वाले आंदोलन में शामिल होने, और उसके लिए जेल जाने से लेकर, धुआंधार प्रचार करने के लिए सभा सम्मेलन करने वाले हमारे देश में और कितने साहित्यकारों के नाम मिलते हैं ? ज्यादातर साहित्यकार आत्ममुग्ध, नार्सिस्ट होने के कारण अपनी खुद की प्रतिमा से बाहर नहीं आते. और लोग भी उन्हें क्रिएटिव आर्टिस्ट हैं, समझकर उनके नाज - नखरों को बर्दाश्त करते हैं. इनमें से कुछ लोगों को अपनी खुद की ही दुनिया में मशगूल रहने के कारण उन्हें देश - दुनिया को लेकर रत्तीभर का लेना-देना नहीं है. और इनके इस तरह की हरकतों का फायदा शासकों को होता है. और वह आज वर्तमान समय में भारत में तो बहुत ही साफ-साफ दिखाई दे रहा है. मैं तो खुद अपने 72 साल के जीवन में, जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समय, फिर उसके बाद आपातकाल, और आज गत ग्यारह सालों से जारी अघोषित आपातकाल के समय में अपनी आंखों से देख रहा हूँ. वर्तमान समय में भारत के चंद अपवादों को छोड़कर कितने लेखक-पत्रकार, कवि अपनी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्तमान स्थिति पर, भूमिका लेकर कुछ कृति कर रहे हैं ? और इसलिए राजनीति के लोग दलितों, आदिवासी, महिलाओं तथा अल्पसंख्यक समुदायों के बीच काम करने वाले लोगों को, आंदोलनजीवी जैसी गालियाँ देने...