इन्फीरियरिटी काम्प्लेक्स से ग्रसित ओम थानवी का सीआईए ऋणी अभियान

इन्फीरियरिटी काम्प्लेक्स से ग्रसित ओम थानवी का सीआईए ऋणी अभियान

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By :  Hastakshep
Update: 2019-03-22 13:00 GMT

Om Thanvi

डॉ. राम प्रकाश अनन्त का लेख एक आलोचनात्मक विवेचन है जिसमें ओम थानवी की पत्रकारिता, सोशल मीडिया की उनकी सक्रियता, संपादकीय प्राथमिकताएं, वैचारिक अस्पष्टता और उनके व्यक्तित्व की गहराइयों की बारीकी से पड़ताल की गई है। आप एक पत्रकार के रूप में यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से रखते हैं कि किसी संपादक का कार्यक्षेत्र कहाँ तक सीमित होना चाहिए, और कहाँ वह एक ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ से हटकर आत्म-मुग्ध प्रचारक में बदलता है।

इस लेख में डॉ. राम प्रकाश अनन्त ने कुछ अहम और बड़े बिंदु उठाए हैं, जिनमें शामिल हैं:

  • जनसत्ता और संपादकीय जिम्मेदारियां
  • व्यक्तिगत ग़ुस्से और बौद्धिक विमर्श का घालमेल
  • ओम थानवी की फेसबुक की पत्रकारिता
  • वामपंथ बनाम वामविरोध
  • ओम थानवी की कथित निष्पक्षता की रणनीति

CIA बनाम KGB और किताबों का प्रोपेगेंडा

पिछले रविवार के जनसत्ता में छपे लेख "किताबें किसकी नाम किसका" जिसमें अविनाश ने मोहन श्रोत्रिय पर उनकी (अविनाश) किताबें अपने नाम से छपवाने का आरोप लगाया था। आरोप अविनाश ने लगाए हैं और सबूत इकट्ठे करने का भ्रम ओम थानवी ने फैलाया है। जितनी सफाई अविनाश ने नहीं दी है उससे ज़्यादा सफाई सम्पादक को देनी पड़ी है। पत्रकारिता के इतिहास में यह एक एतिहासिक घटना होगी जब किसी संपादक को लेख छापने के तुरन्त बाद उसके पक्ष में सबूत जुटाने, स्पष्टीकरण देने व आरोपी को अंतिम रूप से अपराधी घोषित करने के लिए ज़बरदस्त अभियान चलाना पड़ा हो। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वे महीना दो महीना तक अखबार में इसे घसीटेंगे और वहाँ से कूड़ा उठाकर अविनाश अपने ब्लॉग पर लगाएंगे फिर गाली गलौज से पूरा ब्लॉग भर मारेंगे। लेकिन अब मेरे लिए ये सब सोचने का विषय नहीं रह गया है। ओम थानवी पिछले कुछ समय से जिस तरह की गतिविधियों में लगे हुए हैं, वे मेरे लिए सोचने का विषय है। अगर उनकी मंशा अविनाश के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना होती तब भी ठीक था लेकिन अविनाश के साफ़-साफ़ यह कहने के बाद कि उनकी किताबें राजेन्द्र सिंह ने मोहन श्रोत्रिय के नाम से छापी हैं, राजेन्द्र सिंह के सम्मान में वे बिछे जा रहे हैं और श्रोत्रिय को कुकर्मी बता रहे हैं। उनकी समस्या को समझने के लिए उनकी कुछ समय पहले तक की गतिविधियों पर नज़र डालते हैं।

पिछले कुछ समय की गतिविधियों पर नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ओम थानवी इन्फीरियरिटी काम्प्लेक्स से ग्रसित हैं। इसी काम्प्लेक्स के चलते वे वह काम नहीं कर पा रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए। वे एक राष्ट्रीय स्तर के अखबार के संपादक हैं और उनकी प्राथमिकता अखबार होना चाहिए न कि फेसबुक। विशेष कर तब जब एक ऐसा अखबार जिसकी कभी अपनी विशिष्ट पहचान थी और आज डूबने के कगार पर हो। वे अख़बार को प्राथमिकता न देकर फेसबुक को प्राथमिकता देते हैं, उसकी वजह यह है कि वे स्वयं अखबार से उम्मीद छोड़ चुके हैं और उन्हें लगता है कि फेसबुक उनके काम्प्लेक्स को अधिक तुष्ट कर सकता है।

फेसबुक पर गाली-गलौज शब्द पर हुई बहस पर उन्होंने मई का पूरा महीना जनसत्ता में एक निरर्थक बहस चलाने में खर्च कर दिया। यह बहस पाठकों के भाषा ज्ञान को बढाने के लिए नहीं बल्कि थानवी जी ने अपने कॉम्प्लेक्स को तुष्ट करने के लिए चलाई। इस पूरी बहस का एक ही मतलब था, वे भाषा ज्ञान से परिपूर्ण एक अखबार के सम्पादक हैं और कोई शिक्षक भला कैसे उनसे इस पर बहस कर सकता है। वे अपने लेख "नीर और नाले" में आशुतोष कुमार का परिचय इस प्रकार कराते हैं-विश्वविद्यालय के हिन्दी शिक्षक आशुतोष कुमार (नाम इसलिए दे रहा हूँ क्यों कि वे बहस में शिरकत को आतुर हैं)...फिर वे लिखते हैं -आशुतोष कुमार का नाम नहीं दिया, वे वहाँ अपने नाम (और चित्र तो आता ही है ) सहित खुद आ गए। वे और भी उदाहरण देते हैं कि कैसे उन्होंने एक हिन्दी व्याख्याता की व्याकरण सुधारी।

मैं मानता हूँ कि भाषा पर ध्यान देने की ज़रुरत है लेकिन आप जो कर रहे हैं उससे भाषा का कुछ भी भला नहीं होता। भाषा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। एक शब्द को लेकर आपने एक महीने तक अखबार के पन्ने रंगे और आपने जो शब्दाडंबर खड़ा किया है, अगर कोई चाहे तो उनको लेकर ही आपको साल-दो साल तक गोल-गोल घुमाता रहेगा। मसलन, गलौच शब्द पर आपने लिखा है- मैंने उन्हें पाती भेज कर पूछ लिया। हिन्दी की सामान्य जानकारी रखने वाला भी जानता होगा कि फेसबुक पर मैसेज भेजने को पाती भेजना नहीं कहा जा सकता। अगर हिन्दी में ही कहना है तो संदेश शब्द ही सबसे उपयुक्त है। हो सकता है शब्दकोश में पाती का एक अर्थ संदेश भी दिया हो पर पाती, पत्र या लैटर एक दूसरे के समानार्थी होते हैं,फेसबुक पर मैसेज देना पाती का समानार्थी नहीं हो सकता।

ऐसे ही कुछ स्टेटस उन्होंने मंगलेश डबराल के बारे में डाले हैं, जिनसे उनका कॉम्प्लेक्स झलकता है। वे फेसबुक को इसलिए पत्रकारिता नहीं मानते क्योंकि मंडेला के निधन की एक झूठी खबर पर मंगलेश डबराल ने टिप्पणी कर दी।

खरे जी का एक लेख ओम थानवी ने जनसत्ता में छापा। यह पूरा लेख अशोक बाजपेई और रवीन्द्र नाथ टैगोर पर है। इसमें एक पंक्ति यह थी कि तमाम मूर्खों की तरह मैं भी सोचता हूँ कि हिंदी में नोबेल पुरूस्कार मिलेगा तो वह मंगलेश डबराल को ही मिलेगा। थानवी जी ने फालतू की इस एक पंक्ति पर फेसबुक पर बहस आयोजित कर दी। वे इस पर बहस करा कर क्या सिद्ध करना चाहते थे। नामबर सिंह अब कुछ लिखें या न लिखें पर बोलते ज़रूर हैं। खरे जी कुछ बोलें या न बोलें लिखते ज़रूर हैं। कल्पना करिए अगर उन्होंने कभी ये लिख दिया कि अगर पत्रकारिता का नोबेल शुरू हुआ तो वह ओम थानवी को ही मिलेगा और इस पर किसी ने फेसबुक पर चर्चा का आयोजन कर दिया तो कमेंट करने वाले आपकी क्या हालत करेंगे ?

ओम थानवी की एक समस्या है, उनका वामपंथी होना। वे दिन में तीन बार बताते हैं कि वे वामपंथी हैं। यह एक अलग बात है कि वामपंथ से उन्हें भारी चिढ़ है। ऐसा वे समय- समय पर कहते रहते हैं। इस वक़्त एक अच्छी चीज़ जो है वह फेसबुक है। इससे कम से कम हमें उनके वामपंथी होने का पता चलता है। ओम थानवी वामपंथी हैं पर प्रेमचंद कम्युनिज्म विरोधी थे यह बात सिद्ध करने और कम्युनिज्म को गरियाने के लिए फेसबुक पर बैठक लगाना उन्हें अच्छा लगता है। वे लेखक संगठन बनाने के सख्त खिलाफ हैं और जलेस-प्रलेस से उन्हें सख्त नफ़रत है। वे मार्क्स को बहुत पसंद करते हैं पर मार्क्सवाद से बहुत घृणा करते हैं। वे गांधी को बहुत मानते हैं पर गांधीवादियों को नहीं मानते। वे गोलवरकर को नहीं मानते पर शायद गोलवरकर के विचारों को मानते हैं।

ओम थानवी जी किसी विचार को मानना न मानना व्यक्ति का अपना अधिकार है जो भी मानो पूरी ईमानदारी से व निडरता के साथ मानो और जो भी मानो वह स्वीकार करो। मैं भी वामपंथ विरोधी नहीं हूँ। अशोक बाजपेई भी वामपंथ विरोधी नहीं और अज्ञेय भी वामपंथ विरोधी नहीं हैं, बार-बार यह सब बोलने की क्या ज़रूरत है। तीन साल से आप आयोजन कर रहे हैं और उनमें वामपंथी लेखकों को बुला रहे हैं सिर्फ इस बात को सिद्ध करने के लिए कि अज्ञेय वामपंथी थे या वामपंथ विरोधी नहीं थे। वामपंथी लेखकों से अज्ञेय पर संस्मरण लिखवा रहे हैं, यह तर्क दे रहे हैं कि अज्ञेय वाम विरोधी होते तो तार सप्तक में वामपंथी कवियों को क्यों छापते। अगर कोई वामपंथी लेखक सोते में भी कह दे कि अज्ञेय सबसे महान लेखक हैं तो आप पूरे जोर से उसका प्रचार करने में जुट जाते हैं। इन सब से क्या स्थापित होगा ? अब तक लेखक यही मानते थे कि किसी तरह पुरूस्कार हासिल करने हैं,अपने आप को चर्चा में लाना है, अब लेखक इस पर भी विचार करेंगे कि मरने के बाद ओम थानवी जैसा साधन संपन्न शिष्य छोड़ जाओ जो आयोजन करा सके, प्रायोजित संस्मरण लिखवा सके।

वैसे व्यक्ति जो विचार में होता है वह उसके व्यवहार में भी झलकता है। कम्युनिज्म विरोधी किताबें छापने के लिए,मानव जाति को सी.आई.ए. का ऋणी होने के मुद्दे पर बहस चली तो आपने तुरंत तर्क दिया- केजीबी भी टॉलस्तोय और गोर्की की किताबों के बीच कौड़ियों के भाव वाली स्टारलिन की किताबें भेज देता था। यह जानते हुए भी कि टॉलस्तोय व स्तार्लिन की जो कौड़ियों के भाव की किताबें आती थीं वे केजीबी नहीं रादुगो प्रकाशन मास्को भेजता था और वे किसी षडयंत्र के तहत नहीं खुलेआम आती थीं। यह भी जानते हुए कि सी.आई.ए सिर्फ किताबें नहीं छापती है वह फोर्ड फाउंडेशन और कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के साथ मिल कर बहुत कुछ करती थी/है और यह सब वह खुलेआम नहीं षड़यंत्र के तहत करती है। ये सब खुलासे तो बाद में हुए हैं।

डॉ. राम प्रकाश अनन्त

जारी...

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