क्या हत्या व बलात्कार का पक्षधर भी है ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ’?

क्या ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा में हत्यारों व बलात्कारियों का पक्षधर होना भी शामिल है? क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपराधियों की ढाल बन रहा है?;

Update: 2019-03-22 13:00 GMT

opinion, विचार

तनवीर जाफ़री

क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपराधियों की ढाल बन रहा है?

बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों को धर्म और जाति के चश्मे से देखना क्या समाज को विभाजित कर रहा है? पढ़ें इस विषय पर विस्तार से...

अनेक धर्मों व जातियों के इस विशाल देश भारत में जहां देश के विकास व प्रगति के लिए सभी वर्गों व समुदायों के लोग बराबर के जि़म्मेदार हैं वहीं दुर्भाग्यवश इस देश में घटित होने वाली आपराधिक घटनाओं में भी लगभग सभी धर्मों व समुदायों के लोगों की संलिप्तता पाई जाती है। जहां किसी समुदाय का व्यक्ति अपनी योग्यता,ज्ञान तथा कौशल के बल पर स्वयं तरक्की करता है वहीं उसकी इस योग्यता का लाभ समाज तथा देश को भी पहुंचता है। कहा जा सकता है कि योग्यता या आपराधिक प्रवृति, सकारात्मकता या नकारात्मकता जैसे गुण-दोष धर्म-समुदाय अथवा जाति के मोहताज नहीं होते। हमारे देश में यदि किसी भी धर्म-जाति अथवा समुदाय के स्वतंत्रता सेनानी, उच्चाधिकारी, राजनेता, वैज्ञानिक, खिलाड़ी आदि देखे जा सकते हैं तो हमें उसी समुदाय के कुछ न कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जिनके आपराधिक रिकॉर्ड हैं व जिनके सामाजिक स्तर पर आचरण ठीक नही हैं। सवाल यह है ऐसे में क्या किसी अपराधी को धर्म-जाति या समुदाय के नज़रिए से देखना मुनासिब है?

क्या अपराधी को केवल अपराधी ही नहीं समझा जाना चाहिए?

सोचने का विषय है कि यदि धर्म-जाति के आधार पर हत्यारों या बलात्कारियों को संरक्षण दिया जाने लगा या ऐसा गुजरात राज्य में तो यह नज़ारा कई बार देखा जा चुका है जबकि अदालत द्वारा प्रदेश निकाला दिए गए तड़ीपार नेता को जेल से रिहाई अथवा ज़मानत के बाद भारी भीड़ फूलमालाओं की वर्षा करती हुई अपने ‘अपराधी रहनुमा’ का स्वागत करती हुई उसे सडक़ों पर घुमाती रही।

गुजरात में ही अनेक दंगारोपी अपनी रिहाई या ज़मानत होने के बाद किस प्रकार अपने प्रशंसकों व समर्थकों के साथ ढोल व गाजे-बाजे के साथ सड़कों पर जश्र मनाते दिखाई दिए? किस प्रकार फर्ज़ी एन्काउंटर के आरोपी आला पुलिस अधिकारी जो कई वर्षों तक जेल में रहने के बाद जब जेल की सलाखों से बाहर आते हैं तो उनके समर्थक उन्हें अपने ‘आदर्श हीरो‘ के रूप में अपने कंधे पर बिठाकर जश्र मनाते हैं तथा तलवारों को लहराते हुए नाचते-गाते दिखाई देते हैं।

देश ने यह भी देखा है कि किस प्रकार दादरी में भारतीय वायुसेना के एक कर्मचारी के पिता की हत्या के आरोपी की मौत होने के बाद उसके शव को तिरंगे में लपेटा जाता है और उस हत्यारोपी के समर्थन में किस तरह केंद्रीय मंत्री,सांसद और भारतीय जनता पार्टी जैसे देश की सबसे बड़ी सियासी पार्टी के नेता एकजुट खड़े दिखाई देते हैं? देश ने यह भी देखा कि राजस्थान के राजसमंद में किस प्रकार एक आपराधिक मानसिकता रखने वाले व्यक्ति द्वारा एक गरीब मज़दूर की हत्या कर उसके शव को जलाया गया तथा बाद में उस हत्यारे के समर्थन में एक बड़ी भीड़ न केवल उसके समर्थन में सडक़ों पर उतर आई बल्कि इन उत्साही उत्पातियों ने जोधपुर के सत्र न्यायालय के मुख्य भवन पर चढक़र वहां भगवा ध्वज भी लहरा दिया?

देश में ऐसी सैकड़ों घटनाएं विगत चार वर्षों में अंजाम दी जा चुकी हैं। परंतु अब यह सिलसिला मानवता की सारी हदों को पार करता दिखाई दे रहा है। पहले भी कई घटनाएं ऐसी हुई हैं जिसमें यह देखा गया कि हत्या के अतिरिक्त बलात्कारी के पक्ष में भी समाज के लोग आरोपी का धर्म व जाति देखकर उसके पक्ष में आ खड़े हुए। परंतु यह सिलसिला अब इस स्तर तक जा पहुंचा है जिससे न केवल देश की छवि दुनिया की निगाह में धूमिल हो रही है बल्कि यह प्रवृति आने वाले दिनों में देश को एक खतरनाक तथा विभाजनकारी मोड़ पर भी ले जा सकती है। उदाहरण के तौर पर गत् दस जनवरी को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जि़ले के रसाना गांव से लापता हुई बकरवाल समुदाय की आठ वर्ष की मासूम बच्ची आसिफा बानो का क्षत-विक्षत शव जब 17 जनवरी को जंगल में झाड़िय़ों से बरामद हुआ और पोस्टमार्टम से यह पुष्टि हुई कि पहले उस बच्ची को नशीली दवाईयां दी गईं,फिर सामूहिक बलात्कार किया गया और बाद में उसकी निर्मम हत्या कर शव झाडिय़ों में फेंक दिया गया। जांच-पड़ताल के बाद जम्मू-कश्मीर पुलिस की अपराध शाखा ने 8 व्यक्तियों को हत्या व बलात्कार की इस घटना में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया। आश्चर्य की बात है क

जब इस घिनौने कृत्य का समाचार बकरवाल (गुर्जर)समुदाय के लोगों को मिला तो उनमें रोष व्याप्त हो गया। बकरवाल समुदाय के लोगों का आरोप है कि ऐसी या इससे मिलती-जुलती घटनाएं पहले भी जम्मू-कश्मीर में होती रही हैं। इस समुदाय के लोगों का यह भी कहना है कि भू माफिया बकरवाल समुदाय के लोगों को ऐसी घटनाओं से डराना चाहता है ताकि वे अपनी ज़मीनें छोड़कर अन्यत्र चले जाएं।

कठुआ गैंगरेप व हत्या की निंदा संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनिया बुटेरेस द्वारा किया जाना भी घटना की गंभीरता को ज़ाहिर करता है। अफसोस की बात है कि जिस प्रकार दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के विरोध में लगभग पूरा देश ही सडक़ों पर उतरा दिखाई दे रहा था उसी प्रकार कठुआ बलात्कार की शिकार मासूम बच्ची आसिफा के समर्थन में भारतीय जनसमूह उस अंदाज़ में सडक़ों पर तो नहीं आया परंतु उन हत्यारों व बलातकारियों के समर्थन में भारतीय जनता पार्टी तथा हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाले उसी मानसिकता के लोग ज़रूर खड़े दिखाई दिए जो दादरी,राजसमंद जैसी जगहों पर भी नज़र आते रहे हैं। निश्चित रूप से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने समर्थकों के साथ गत् 12/13 अप्रैल की मध्यरात्रि में कठुआ पीडि़त तथा उन्नाव रेप कांड की बलात्कार पीडि़त महिला के समर्थन में इंडिया गेट पर अपना रोष प्रदर्शन कर यह संदेश देने की सफल कोशिश की है कि देश का एक वर्ग अभी भी न्याय की आवाज़ बुलंद करता है तथा हत्या व बलात्कार के आरोपियों व अपराधियों को धर्म व जाति के चश्मे से देखने का पक्षधर नहीं है।

हमारे देश के नवयुवकों को जिस प्रकार धर्म व जाति के नाम पर वरगला कर या उकसा कर उन्हें किसी भी समुदाय विशेष के विरुद्ध आक्रामक तेवर दिखाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है यह दरअसल उन्हीं युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ है। इस प्रकार से होने वाला सामाजिक ध्रुवीकरण ऐसा वातावरण बनाने वाले चतुर साजि़शकर्ताओं को सत्ता तक तो ज़रूर पहुंचा देगा परंतु ऐसी घटनाओं के बाद समाज में जो दरार पैदा होगी, अपराध व अपराधी का पक्ष लेने वालों को अपने ही समाज में जिस शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा उसकी भरपाई यह राजनेता कभी नहीं कर सकेंगे। हत्या या बलात्कार जैसी धिनौनी व मानवता विरोधी आपराधिक प्रवृति को संरक्षण देने या ऐसे अपराधियों व बलात्कारियों के पक्ष में खड़े होने वालों को इस बात से भी बाखबर रहना चाहिए कि कभी ऐसी आपराधिक प्रवृति व मानसिकता के लोग इनके अपने परिवार के लोगों को भी निशाना बना सकते हैं। इन्हें अपने उकसाऊ व भडक़ाऊ ‘मार्गदर्शकों से यह भी पूछना चाहिए कि क्या ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा में हत्यारों व बलात्कारियों का पक्षधर होना भी शामिल है?

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