“देवी” कहानी और निराला का आत्मसंघर्ष
“देवी” कहानी और निराला का आत्मसंघर्ष

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
निराला और 'अजनबीपन' : आत्मसंघर्ष, साहित्य और समाज का समीकरण
निराला का साहित्य और ‘दि आउटसाइडर’ का दर्शन
- अराजकता और आत्मसंघर्ष : निराला की दृष्टि
- ‘देवी’ कहानी में समाज का तीखा विश्लेषण
- निराला की स्त्री दृष्टि और पगली का प्रतीकवाद
- मुक्तिबोध की दृष्टि से निराला का आत्मसंघर्ष
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का साहित्य उनके आत्मसंघर्ष और समाज से अजनबीपन को दर्शाता है। 'दि आउटसाइडर' की अवधारणा से लेकर उनकी कहानी ‘देवी’ तक, निराला ने समाज की विडंबनाओं और स्त्री-अस्मिता पर गहरी दृष्टि डाली। जानिए उनके साहित्य की गहराई और उनके व्यक्तित्व की जटिलताओं को।
“आत्म विकास की अन्तिम यात्रा पर जब कोई निकलता है तो उसकी शुरुआत अजनबी की तरह होती है और अंत संत की तरह.”
-दि आउटसाइडर, कॉलिन विल्सन
निराला के कथा-साहित्य को कहानी कला की दृष्टि से देखने के बजाय समूचे व्यक्तित्व और लेखन को परखने के लिए उनके जीवन के आत्मसंघर्ष को देखने की ज़रूरत है. निराला के जीवन का वह आधार जो साक्ष्य या दृष्टा के रूप में उन्हें प्राप्त है – वह है ‘अजनबीपन’. इस सन्दर्भ में ‘दि आउटसाइडर’ नामक पुस्तक में कॉलिन विल्सन का विचार है
“आधुनिक समय जाने कैसी सभ्यता और संस्कृति विकसित हुई है, आज हर शख्स, जिसमें थोड़ी भी सजगता है, अपने आप को बेगाना मानता है. वह ज़िंदगी से उखड़ा-उखड़ा रहता है, जीता है. जैसे कोई अपना नहीं है, किसी से लगाव नहीं है. अजनबी होने को ही इस मनोभूमि में अंकुरित हुआ है.”
हर कलाकार अजनबी नहीं होता. शेक्सपियर, कीट्स, दांते, बिल्कुल सामान्य थे, सामजिक थे. अजनबी व्यक्ति कुछ बेगाना होता है. उसे सब कुछ कटु-स्वप्न जैसा ही कुछ कुछ प्रतीत होता है. अजनबी व्यक्ति आरामदेह, प्रतिष्ठित लोगों का सुरक्षित जीवन नहीं जी सकता. वह बहुत ज़्यादा और बहुत गहरे देख लेता है. मूलतः उसकी नज़र अराजक को देख लेती है. वह अराजक के प्रति जाग जाता है और उसी में जीवन का बीज छिपा होता है.
कबाला नामक कबीले यह मानते हैं कि अराजक वह स्थिति है जिसमें व्यवस्था छिपी हुई है. जैसे अंडा पक्षी का अराजक है, कैओस है.
निराला का समूचा कथा साहित्य इसी अराजकता की ओर पैनी और गहरी नजर रखता है. सवाल ये है कि यह अराजकता क्यूँ? किसके लिए? इसकी ज़रूरत क्या है?
दरअसल समाज एक ऎसी व्यवस्था में है जो कैद की अवस्था है. इस स्थिति को निराला जैसे विराट, गम्भीर स्वभाव वाले रचनाकार ने अत्यंत सूक्ष्मता से महसूस किया है. निराला कृत ‘देवी’ कहानी इसी वस्तुस्थिति को उजागर करती है. इस कहानी में निराला की अंतर्दृष्टि में अकूत सहजता, अंतर्मन की तमाम भाव दशाएँ, संकल्पनाएँ, संवेदना का उतार-चढ़ाव है. उमड़ते हुए आवेगों को भोक्ता के रूप में पीड़ा, वेदना, अवहेलना और विकृतियों को झेलते हुए निराला कहते हैं
“वह रास्ते के किनारे बैठी थी, एक फटी धोती पहने हुए. बाल कटे हुए. ताज्जुब की निगाह से आने-जाने वालों को देख रही थी. तमाम चेहरे पर स्याही फिरी हुई. भीतर से एक बड़ी तेज भावना निकल रही थी, जिसमें साफ़ लिखा था “यह क्या है? उम्र पच्चीस साल से कम. दोनों स्तन खुले हुए. प्रकृति की मारों से लड़ती हुई, मुरझाकर, मुमकिन है किसी को पच्चीस साल से ज्यादा जँचे. पास एक लड़का डेढ़ साल का खेलता हुआ, संसार की स्त्रियों की एक भावना नहीं. उसे देखते ही मेरे बड़प्पन वाले भाव उसी में समा गए और फिर वही छुटपन सवार हो गया. ‘यह कौन है, हिंदू या मुसलमान? इसके एक बच्चा भी है. इन दोनों का भविष्य क्या होगा? बच्चे की शिक्षा, परवरिश क्या इसी तरह रास्ते पर होगी. यह क्या सोचती होगी, ईश्वर, संसार, धर्म और मनुष्यता के सम्बन्ध में?”
इस प्रश्न में बहुत कुछ ऎसी छटपटाहट छिपी हुई है कि निराला उससे उभर नहीं पा रहे हैं. बच्चे को लेकर जो प्रश्न अशांति और बेचैन कर देने वाले उद्दीपन को निरंतर वेगमय कर रहा है, उसके पीछे रचनाकार की एक बड़ी गहरी सोच है. जो प्रश्न बच्चे से शुरू हुआ और पगली के अन्तः जगत में प्रवेश कर धर्म, ईश्वर, संसार और मनुष्यता के संबंधों तक पहुंचकर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा है. यह इसलिए है कि समूची प्रक्रिया में उनके भीतर बिल्कुल साफ़ दृष्टि दिखाई दे रही है, वह है – बच्चों और बड़ों के जगत में जो फर्क है, उसका प्रभाव सम्पूर्ण शताब्दी और वर्तमान पर आच्छादित दिखाई दे रहा है. निराला को जहाँ लगता है वातावरण में साँस लेना दुखद है, उसमें कुछ मितली आने जैसा है, जीवन विरोधी है. मनुष्यता के संबंधों की तरफ उनका नजरिया बिल्कुल साफ़ है. ये निरुद्देश्य लोग एक ही कमरे (समाज) में रहते हैं, क्योंकि कुछ करने जैसा है ही नहीं. इनके जीवन में कोई मूल्य है ही नहीं. यह निरर्थक, निष्क्रिय, मुर्दा लोगों का जगत है. इससे विपरीत बच्चों का जगत है बिल्कुल साफ़-सुथरा. उसकी हवा में अपेक्षाओं का स्पंदन है. इसीलिए निराला को लगता है “मुमकिन है इसके बच्चे की हँसी उस समय उसे ठण्डक पहुँचाती हो.” ..........जारी......आगे पढ़ नेके लिए यहां क्लिक करें....
निराला को यहाँ अजनबी कहने का अर्थ है. वे समाज के बाहर की चीज पर केंद्रित हैं. यकीनन जिसे पगली कहकर समाज, धर्म, मनुष्यता, ईश्वर ने तिरस्कृत कर दिया. एक संवेदनशील हृदय वाले रचनाकार ने उस बाहर के यथार्थ को अपने गहन-चिंतन का विषय बनाया. इतना ही नहीं वे पगली को केन्द्रीय-तत्व के रूप में मात्र दीन-हीन, दरिद्र, हेय कहकर उसकी विवशता का बखान मात्र नहीं करते, बल्कि बिना भटके बाहर की आँखों से समाज के भीतर की अशुद्धियों, विकृतियों, कुरूपता का निरीक्षण करते हैं. एक संतुलन बनाए रखने की आकांक्षा से भरे पगली के माध्यम से समूचे सामजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक-धार्मिक, क्रिया व्यापार का खुलासा करते हुए इन सभी के प्रति विरोध जताते हैं. रोष और करुणा का एक साथ मेल इस भावना के केन्द्र में बखूबी देखने को मिलता है. वे समाज की गहरी निंदा करते हुए कहते हैं
“वह देश की सहानुभूति का कितना अंश पाती है – हमारी थाली की बची रोटियाँ; जो कल तक कुत्तों को दी जाती थीं यही, यही हमारी सच्ची दशा का चित्र है.”
समाज की ऎसी तीक्ष्ण और व्यंगपूर्ण भर्त्सना किसी अन्य रचनाकार ने इस ढंग से नहीं की. रचनाकार को समाज की क्षुद्रता ने इतना आहत किया कि उन्हें एक ऐसे चरित्र की रचना करनी पड़ी. जो निराला के साँचे में बिना अड़चन सधे हुए कुम्हार के हाथ सिवाय माटी की मूरत न रहकर सजीव आकृति में ढल जाये. ताकि बेझिझक वे उसके द्वारा आत्म की अभिव्यक्ति कर सकें. वो कहते हैं कि “पगली का ध्यान ही मेरा ज्ञान हो गया” यह बात इस वाक्य से पुष्ट होती है. अपने भीतर की सारी अज्ञात संभावनाओं को निराला पूर्ण निष्ठा से मनमाफिक रूप देना चाहते थे. यहीं पर आकर उन्हें खुद को खुद का साक्षात्कार होता है. ..........जारी......आगे पढ़ नेके लिए यहां क्लिक करें....
निराला ने पगली के स्वभाव, व्यवहार के लिए तमाम लक्षण प्रस्तुत किये, जो सर्वथा साधारण मनुष्य से बिल्कुल भिन्न हैं “सम्भव है, पहले सिर्फ गूंगी रही हो, दुनिया की आँखों को लुभाने वाला उसमें कुछ न था, दूसरे लोग उसकी रुखाई की ओर रुख न कर सकते थे, पर मेरी आँखों को उसमें वह रूप दीख पड़ा, जिसे मैं कल्पना में लाकर साहित्य में लिखता हूँ; केवल वह रूप नहीं, भाव भी.”
भावों के भीतर न ही गूंगापन था, न ही उच्श्रंखलता थी. सबसे गम्भीर संवाद है “यही न संसार है- बार बार वह यही कहती है. उसकी आत्मा से यही ध्वनि निकलती है- संसार ने उसे जगह नहीं दी- उसे नहीं समझा, पर संसारियों की तरह वह भी है – उसके भी बच्चा है,”
समाज से बहिष्कृत होकर भी पगली सामाजिक तौर-तरीकों के बारे में एक अजनबी की भांति सोचती है. यह सोचना इस बात की ओर संकेत करता है कि पगली का गूँगापन उसकी अपनी हीनग्रंथि के कारण है. क्योंकि वो इस समाज में अजनबी है. अनेक समस्याओं से अकेले ही जूझती है. समाज की झूठी व्यवस्था और संस्कारों के लिए पगली मात्र शास्त्रार्थ का विषय बनकर रह गई. शास्त्रार्थ का कारण था जोकि जायज भी था. पगली (असाधारण व्यक्तित्व) होने के कारण सदा बेचैन और बेमेल ही रही. जबकि निराला यह मानते हैं कि ये ही वो व्यक्ति हैं, जिन्होंने समाज को कुछ दिया है. विकास को गतिमान किया है. मनुष्य जीवन को समृद्ध बनाया है. ..........जारी......आगे पढ़ नेके लिए यहां क्लिक करें......
पगली के द्वारा सिपाहियों की ओर उँगली से हवा को कोंच-कोंचकर दिखाना और हँसने की मुद्रा में यह महसूस करना –“खुश तो हो? कैसा अच्छा दृश्य है.” यही विवशता के भीतर छिपी हुई रहस्यमयी मुस्कान भरा व्यंग्य इस पूरे समाज की रुग्ण मानसिकता पर करारा प्रहार है.
एक बात और जो सबसे जरूरी है पगली के भीतर तपस्याजनित ज्योति का होना. जिसके कारण मौन भीतर के गहरे अँधेरे भाग में अपनी जड़ें जमाए है. वो सारी अपेक्षाएं जो उसके पास न थीं, न है, न रहेगीं, उपेक्षा करने का कोई उपाय भी नहीं है. रचनाकार को पगली का समूचा क्रिया-व्यापार बिल्कुल स्वतन्त्र चेतना का विकास लगता है. उसका यह सोचना कितना अद्भुत है
“यह सड़क क्या मोटर-तांगे वालों के लिए ही है? इन्हें देखकर मैं खड़ी होऊं, मुझे देखकर ये क्यों न खड़े हों? बड़ी देर बाद पगली को रास्ता पार करने का मौका मिला तब तक उसकी प्यास कितनी बढ़ती थी सोचिये.”
यह विचार कि मनुष्यता और यांत्रिक साधनों के बीच कितना फासला, कितनी दुविधाएं, कितनी महत्वाकांक्षाएं हैं, जो इनके कारण विक्षिप्त हो जाती हैं. पगली की प्यास यकीनन ऐसे अनेक सवालों को सुलझाने की एक ऎसी अनिवार्यता है. जिसके भीतर संवेदना, भाव, विचार के सन्देश आत्मक्रान्ति के रूप में एक घटना की निर्मिति करते हैं. ‘रास्ता पार हो जाने’ से तात्पर्य है उस घटना को व्यवहार में लाकर उसके सही नतीजे पर विचरते हुए व्यक्तित्व में समाहित कर लेना.
“आग के व्यवहार को
समझे न थे पढ़कर किताबें
आग हू बैठे
तो समझे
आग में जलते भी हैं.”
इस जलन की अनुभूति होने के बाद पगली किसी भी भय से आक्रान्त नहीं है. वह मुक्त हो गयी है. उसके पास जो कुछ भी बचा है. उसके टूटने, बिखरने, लूटकर ले जाने की कोई भी किसी तरह की चिंता नहीं है.
एक और बात शास्त्रार्थ के लिए निराला ने पुरुषों को ही क्यूँ चुना? स्त्रियों को क्यूँ नहीं?
निराला के यहाँ एक ‘ट्रांजेक्शन सर्किट सेक्सन’ है. जहाँ एक सेतु की रूप में पगली की रूपरेखा बनाई गई है. इसके पीछे ‘चित्त और बुद्धि’ का बुनियादी ढाँचा है. एक ओर पुरुष है जो बुद्धि से काम लेता है. उसके संस्कार बुद्धि में कैद हैं. कुछ भी करने के पूर्व वह इन संस्कारों का द्वार खोल देता है. जिसके कारण अन्तः प्रज्ञा, असंगत, भावुकता, पौराणिकता, कलात्मकता, धार्मिकता, ये सब कुछ मिलकर जीवन की रणनीति तय करते हैं. चूँकि इस रणनीति का एक बड़ा और अहम हिस्सा स्त्रियाँ हैं. उन्हें कैसे अपने अधीन किया जाए? इसके लिए शास्त्र, ग्रन्थ, महाकाव्य रचे गए. बड़े-बड़े षड्यन्त्र रचे गए. इसी वजह से निराला ने सामान्य गुणों वाली स्त्री को कहानी में जगह नहीं दी, एक ऎसी स्त्री को जो असाधारण व्यक्तित्व की धनी है निराला ने उसे चुना. ताकि उसके विद्रोह करने पर समाज उसका प्रतिकार न कर सके. किन्तु वह पगली भी समाज के दुर्जनों का शिकार हुई. फिर भी किसी पुरुष की अधीनता स्वीकार नहीं की.
यह निराला की स्त्री स्वातंत्र्य दृष्टि है. इसीलिए वे पहले उसे मात्र गूँगी बताते हैं, बाद में सामाजिक बहिष्कृति का सत्य उजाकर करते हैं. यह भी सर्वमान्य है कि पुरुषों के वर्चस्वशील समाज का अतिक्रमण जो पगली के आक्रामक स्वभाव के रूप में कहानी में कई बार दिखाई देता है. इस आक्रामक स्वभाव के कारण ही पगली उन्हें परिवर्तन और विकास की ओर अग्रसर होने को निरंतर प्रेरित करती है.
“सिपाही मिलीटरी ढंग से लेफ्ट-राईट, लेफ्ट-राईट दुरुस्त, दर्प से जितना ही पृथ्वी को दहलाते हुए चल रहे थे. पगली उतना ही उन्हें देख-देखकर हँस रही थी. मैंने सोचा मेरा बदला इसने चुका लिया. पगली ने खुशी से बच्चे को भी शरीक करने की कोशिश की –माँ अच्छी चीज, अच्छी तालीम बच्चे को देती है.”
यह तालीम है – पराधीनता, संकीर्णता, धर्मभीरुता, कुसंस्कारों से मुक्ति. निराला जीवन भर इसी के लिए संघर्षरत रहे. वे व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए हर सकारात्मक विचार, विकल्प को आधार बनाकर उसे जीवन से जोड़कर देखते थे. मात्र कोरी कल्पना भर नहीं था उनका लेखन.
निराला के समूचे कथा-साहित्य को इस एक कहानी ‘देवी’ की भांति अध्ययन करने पर उसके भीतर छिपी तमाम विशेषताओं पर विचार किया जा सकता है. निराला में साहित्य-रचना के लिए, एक कलाकार होने के लिए, संघर्ष की बुनियाद उनके समूचे व्यक्तित्व में देखने को मिलती है.
मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो –
“कलाकार के लिए तीन प्रकार के संघर्ष करना आवश्यक है- एक, सुन्दर कलाकृति की रचना के लिए अभिव्यक्ति का संघर्ष; दो, कलात्मक चेतना के अंगरूप संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार, जीवन-जगत में भीगने, रमने, अपने को निजबद्धता से अधिकाधिक दूर करने और अधिकाधिक मानवीय बनाने के लिए आत्मसंघर्ष; तीसरे, वास्तविक जीवन के बुनियादी तथ्यों के कारण बनने वाली हलचलों का ज़िंदगी के अलग-अलग ढंग के तानों-बानों का तजुर्बा हासिल करने के लिए मानव समस्याओं को अनुभूत करके मानवता के उद्धार लक्ष्यों से एकाकार होकर वास्तविक जीवन अनुभव की समृद्धि, प्राप्त करने हेतु वह संघर्ष जिसे हम तत्व के लिए, तत्व प्राप्ति के लिए, संघर्ष कह सकते हैं.” (नई कविता का आत्मसंघर्ष, पृष्ठ, 42)
-डॉ. अनिल पुष्कर
(अनिल पुष्कर कवीन्द्र, प्रधान संपादक अरगला (इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका)


