मिर्च-मसाला बनाम असली मुद्दे : भारतीय मीडिया की गिरती साख पर जस्टिस काटजू का करारा प्रहार

  • 143 करोड़ लोगों के असली मुद्दों से दूर है TRP-भेदी पत्रकारिता
  • भूख, बेरोज़गारी और शिक्षा से ज़्यादा ज़रूरी बना दी गई है अटकलें
  • "शर्मनाक और धंधेबाज़" बन चुका है भारतीय मीडिया: जस्टिस काटजू

क्या लोकतंत्र में जनहित के मुद्दे अब TRP से तय होंगे?

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने उपराष्ट्रपति धनखड़ के इस्तीफे पर भारतीय मीडिया की अटकलों और 'मिर्च-मसाला' पत्रकारिता की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्यों असली मुद्दे — भूख, बेरोजगारी और स्वास्थ्य — मीडिया की प्राथमिकता नहीं हैं।

उपराष्ट्रपति के इस्तीफे की अटकलों में उलझा मीडिया

नई दिल्ली, 23 जुलाई 2025. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, एवं प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया पूर्व चेयरमैन जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे पर मीडिया कोहराम की तीखी आलोचना की है। hastakshepnews.com पर अंग्रेज़ी में लिखे लेख में जस्टिस काटजू लिखते हैं कि हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के बाद से देश का मीडिया तरह-तरह की कहानियों और कयासों से भरा पड़ा है। कोई कह रहा है कि यह स्वास्थ्य कारणों से हुआ, जैसा कि उन्होंने कहा, तो कोई इसका कारण राजनीतिक दबाव या "ऊपर से आदेश" बता रहा है।

टीवी चैनलों और यूट्यूब पेजों पर बहसें चल रही हैं, शीर्षक चमक रहे हैं, विश्लेषक सामने बैठे हैं — मानो यह मामला भारत के 143 करोड़ लोगों की प्राथमिकता बन गया हो।

असली सवाल: क्या ये मुद्दा वाकई आम जनता से जुड़ा है?

जस्टिस काटजू इस पूरे मीडिया उन्माद को "मिर्च-मसाला" बताते हैं — ऐसा मसाला जो मीडिया की TRP बढ़ाता है, पत्रकारों और यूट्यूबर्स को कमाई देता है, लेकिन आम लोगों के जीवन से इसका कोई लेना-देना नहीं।

उन्होंने लिखा है:

“भारत की 143 करोड़ की आबादी में करोड़ों लोग आज भी घोर गरीबी में जी रहे हैं, बेरोज़गारी चरम पर है, बच्चों में कुपोषण की स्थिति भयावह है (Global Hunger Index के अनुसार हर दूसरा बच्चा कुपोषित है), खाद्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं, और स्वास्थ्य व शिक्षा की हालत तो कहने लायक भी नहीं। क्या इन मुद्दों पर चर्चा हो रही है?”

TRP की चक्की में पिसता लोकतंत्र

काटजू का यह सवाल सिर्फ एक आलोचना नहीं, बल्कि भारतीय मीडिया के मौजूदा चरित्र का आईना है।

उनका मानना है कि जो मुद्दे "बिकते नहीं", वे अब मीडिया की प्राथमिकता नहीं हैं।

भूख नहीं बिकती, बेरोजगारी नहीं बिकती, किसानों की आत्महत्या नहीं बिकती — लेकिन उपराष्ट्रपति के इस्तीफे पर अटकलें बिकती हैं।

"शर्मनाक और धंधेबाज़ बन चुका है मीडिया"

जस्टिस काटजू कहते हैं कि अधिकांश मीडिया अब न पत्रकारिता कर रहा है, न जनसेवा — वह अब धंधा बन चुका है।

उनके अनुसार यह मुनाफाखोरी, सनसनी और सतही बहसों का अखाड़ा बन चुका है, जहाँ

“जो दिखता है, वही बिकता है” का सिद्धांत ही सब कुछ है।

सवाल ये नहीं कि उपराष्ट्रपति ने क्यों इस्तीफा दिया, सवाल ये है कि...

भारत के गांवों में लाखों बच्चे भूखे पेट क्यों सोते हैं?

क्यों देश के युवाओं को डिग्री के बाद भी नौकरी नहीं मिलती?

क्यों महिलाएं सुरक्षा और स्वास्थ्य दोनों से वंचित हैं?

क्यों गरीब आदमी सरकारी अस्पताल में दवा तक नहीं पा पाता?

और क्यों मीडिया इन सवालों से मुंह मोड़ता है?

मीडिया को आइना दिखाने की ज़रूरत

जस्टिस काटजू की यह टिप्पणी केवल उपराष्ट्रपति के इस्तीफे पर नहीं है। यह पूरे मीडिया तंत्र की नब्ज पर उंगली रखने जैसा है।

यदि मीडिया वास्तव में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, तो उसे सबसे पहले जनता की आवाज़ बनना होगा — न कि सत्ता की गोदी में बैठकर “मिर्च-मसाला” परोसना।

(टिप्पणी: यह समाचार जस्टिस काटजू के विचारों पर आधारित है।)