अब्दुल रहमान अंतुले: महाराष्ट्र के इस मुस्लिम मुख्यमन्त्री को याद करना क्यों ज़रूरी है
अब्दुल रहमान अंतुले (Abdul Rahman Antulay) महाराष्ट्र के पहले मुस्लिम मुख्यमंत्री थे, जिन्हें आज क्यों याद करना ज़रूरी है? जानें 1980 के दशक की सेकुलर राजनीति, इंदिरा गांधी के 42वें संविधान संशोधन का महत्व, और आज के दौर में मुस्लिम नेतृत्व की चुनौतियों पर विस्तृत विश्लेषण।

Abdul Rehman Antulay
ए आर अंतुले की पुण्यतिथि पर विशेष लेख (Special article on the death anniversary of AR Antulay)
अब्दुल रहमान अंतुले (Abdul Rahman Antulay) महाराष्ट्र के पहले मुस्लिम मुख्यमंत्री थे, जिन्हें आज क्यों याद करना ज़रूरी है? जानें 1980 के दशक की सेकुलर राजनीति, इंदिरा गांधी के 42वें संविधान संशोधन का महत्व, और आज के दौर में मुस्लिम नेतृत्व की चुनौतियों पर विस्तृत विश्लेषण।
अब्दुल रहमान अंतुले: महाराष्ट्र के पहले मुस्लिम मुख्यमंत्री का ऐतिहासिक महत्व
1980 का दशक: जब इंदिरा गांधी ने 5 मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाए
क्यों भूला जा रहा है अंतुले का योगदान? मुस्लिम नेतृत्व और वर्तमान राजनीति
42वां संविधान संशोधन: सेकुलरिज़्म और समाजवाद को संवैधानिक मान्यता
आज के दौर में मुस्लिम नेताओं की चुनौतियाँ और राजनीतिक प्रतिनिधित्व
2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Legislative Assembly elections 2022) से पहले समाजवादी पार्टी के एक मुस्लिम नेता से पत्रकारों ने मुस्लिम मुख्यमंत्री पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी। उन्होंने जो जवाब दिया उससे मौजूदा मुस्लिम नेताओं की इतिहास की समझ और उनके आत्मविश्वास की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनका सीधा जवाब था कि जिसे मुस्लिम मुख्यमंत्री चाहिए उसे पाकिस्तान चले जाना चाहिए। दुख और आश्चर्य की बात यह थी कि वो नेता हैं तो उत्तर प्रदेश के लेकिन मुंबई में राजनीति करते हैं और वहीं से विधायक भी होते हैं। यानी उन्हें अपने राज्य के ही मुस्लिम मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के बारे में जानकारी (Abdul Rahman Antulay, widely known as A. R. Antulay) नहीं थी या फिर उनके लिए अंतुले एक ऐसे अतीत की सच्चाई थे जिसे आज के मुस्लिम विरोधी माहौल में याद करना पॉलिटिकली करेक्ट नहीं था?
आज 2 दिसंबर को इन्हीं अब्दुल रहमान अंतुले की पुण्यतिथि (Death anniversary of Abdul Rahman Antulay) है जो 80 से 82 के बीच उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे जब इंदिरा गांधी ने कुल पांच मुसलमान मुख्यमंत्री अलग-अलग सूबों में बना दिए थे।
अब्दुल रहमान अंतुले पर भ्रष्टाचार के आरोप क्यों लगे?
अंतुले को आंतरिक राजनीति के कारण भ्रष्टाचार के आरोप का सामना करना पड़ा और उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ गया। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें क्लीन चिट दे दिया। जिसके बाद वो कई बार केंद्र में मंत्री रहे। नरसिम्हा राव सरकार में उनके स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए ही पहली बार देश पोलियो मुक्त होने की तरफ बढ़ा था।
बहरहाल, एक ऐसे समय में जब मुसलमानों के एक बड़े हिस्से में यह धारणा भी फैलाई जा रही है कि संविधान में यह लिखा है कि मुसलमान कभी पीएम या सीएम नहीं बन सकता तब हमें अब्दुल रहमान अंतुले के सीएम बनने के उस दौर की सेकुलर राजनीति को समझना ज़रूरी हो जाता है।
उस समय मुसलमान पॉजिटिव वोटर थे और अन्य तबकों की तरह ही कांग्रेस को जिताने के लिए वोट करते थे। जब आप जिताने के लिए वोट करते हैं तो पार्टियां भी आपको सम्मान देती हैं। 1980 से 1984 के बीच तो कुल 49 मुस्लिम सांसद हुआ करते थे। इंदिरा गांधी की सरकार ने मुसलमानों को यही सम्मान राजस्थान में बरकतुल्ला खान, असम में सय्यदा अनवरा तैमूर, बिहार में अब्दुल गफूर और पॉन्डीचेरी में हसन फारूक को सीएम बना कर दिया था।
सनद रहे कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान संविधान का 42 वां संशोधन (42nd amendment of the constitution 0 कर के प्रस्तावना में समाजवादी और सेकुलर शब्द जोड़ दिया था। ऐसा उन्होंने इसलिए किया था, क्योंकि उनकी सरकार के खिलाफ़ चले आंदोलन जिसे जेपी लीड कर रहे थे, में आरएसएस और बड़े पूंजीपति शामिल थे और इंदिरा जी सांप्रदायिक शक्तियों और पूंजीवाद के गठजोड़ के खतरे को भांप चुकी थीं। उन्हें अंदाज़ा था कि यह गठजोड़ अगर मजबूत हुआ तो सबसे पहले सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में दे देगा और संवैधानिक संस्थाओं का सांप्रदायीकरण कर देगा। इसीलिए उन्होंने संवैधानिक तौर पर राज्य का लक्ष्य एक कल्याणकारी, समाजवादी और सेकुलर शासन देना बना दिया। गौरतलब है कि आज भी मोदी सरकार संविधान की प्रस्तावना से इन दोनों शब्दों को निकालकर अधिकृत तौर पर भारत को गैर सेक्युलर और पूंजीवादी मुल्क बनाने की कोशिश करती रहती है।
लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में कह चुका है कि प्रस्तावना यानी संविधान के मूल ढांचे में कोई बदलाव संसद भी नहीं कर सकती। यानी आज अगर भारत हिंदुत्व के प्रचंड बहुमत के बावजूद अधिकृत तौर पर सेकुलर बना हुआ है तो इसकी वजह इंदिरा गांधी द्वारा किया गया 42 वां संविधान संशोधन ही है।
अब्दुल रहमान अंतुले इंदिरा गांधी के इस सोच की राजनीतिक अभिव्यक्ति थे कि मुसलमान भी अन्य तबकों की तरह शासन चलाने की सलाहियत रखता है।
हाल के सालों में मुस्लिम समुदाय का जिस तरह राजनैतिक आत्मविश्वास गिरा या गिराया गया है जिसमें सेकुलर कही जाने वाली पार्टियों की ही ज़्यादा भूमिका है, उसमें इन पांचों मुस्लिम मुख्यमंत्रियों को याद करते रहने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ा जा सकता। जब आप इनको याद करते हैं तो सिर्फ अतीत को याद नहीं कर रहे होते हैं बल्कि वर्तमान नागरिक के बतौर मुसलमानों का आत्मविश्वास भी बढ़ा रहे होते हैं जिससे वो अपने को अन्यों की तरह ही बराबरी के नागरिक मानने का मनोबल जुटा पाते हैं। जब आप 5 मुस्लिम मुख्यमन्त्रियों को याद करेंगे तो छठे के बारे में भी सोचेंगे। इस तरह लोकतंत्र को आप और समावेशी बना रहे होंगे।
मैं मानता हूं कि राजनीति मोटे तौर पर सिर्फ़ दो तरह की होती है। अवाम का मनोबल बढ़ाने वाली और अवाम का मनोबल गिराने वाली। गांधी, नेहरू या भगत सिंह ने भारतीय अवाम का मनोबल ही तो बढ़ाया था, जबकि अंग्रेज़ों ने मनोबल गिराया था।
बाद में तमाम दलित और पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के नेताओं ने उन तबकों का मनोबल बढ़ाया जिनका मनोबल गिराकर ही उन पर बढ़े मनोबल वालों ने शासन किया था। इसी तरह भाजपा और मुस्लिम विरोध की परिधि में पनपने वाली सेक्युलर राजनीति ने मुस्लिमों का मनोबल गिरा कर ही तो अपने लिए स्पेस बनाया है।
आप एक उदाहरण से इसे समझिए उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के मुस्लिम नेताओं की बैठक में अलीगढ़ के एक पूर्व मुस्लिम विधायक का बयान अखबारों में छपा था। उन्होंने अपने अध्यक्ष से निवेदन किया कि लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी मुस्लिमों को ज्यादा टिकट न दे क्योंकि मुसलमानों को बहुसंख्यक समुदाय के लोग वोट नहीं देते और रिएक्शन में भाजपा को वोट कर देते हैं। उनकी भाषा पर गौर करिए। इससे जो नैरेटिव सेट हो रहा है वो ये कि मुसलमान सिर्फ़ वोटर बन कर रहे। उसके 20 प्रतिशत वोट से 4-5 प्रतिशत आबादी वाले लोग सांसद बनेंगे। यानी मुसलमानों के खिलाफ़ नफरत का माहौल बनाकर उन्हें पब्लिक स्पेस से भले भाजपा गायब कर रही है, लेकिन उन्हें राजनीतिक स्पेस से गैर भाजपा दल ही गायब कर रहे हैं। उन्हें सिर्फ़ वोटर तक सीमित कर के। उनकी लीडरशिप खत्म कर के। और इसे एक न्यू नॉर्मल यानी सामान्य बात बनाने की भी कोशिश है। आख़िर भाजपा मुस्लिम विहीन संसद और विधान सभा ही तो बनाना चाहती है जिसमें सेकुलर दलों का यह रवैय्या इसमें उसकी मदद करता है।
स्थिति ऐसी हो गयी है कि अगर अच्छी खासी मुस्लिम आबादी वाली सीट से कोई सियासी परिवार वाला मुस्लिम भी लोकसभा का टिकट मांगे या इसकी चर्चा चलाए तो इसे मुसलमानों के वोट पर ही निर्भर उनके मुकाबले बहुत कम आबादी वाली जातियों के लोग भी आश्चर्य से देखते हैं। इस प्रवृत्ति को हर हाल में नाकाम किया जाना चाहिए। यह जन संहार या सफाए के तर्क की पृष्ठभूमि तैयार करता है। जिसके कई चरण होते हैं- पहला सामाजिक, दूसरा राजनीतिक और तीसरा शारीरिक।
इसे 2017 में दिल्ली से ईद की खरीदारी करके ट्रेन से अपने घर हरियाणा लौट रहे जुनैद की हत्या की घटना से समझिए। हत्या के चश्मदीदों ने मीडिया को बताया था कि टोपी वाले लड़कों को सीट से उठ जाने के लिए कई बार कहा गया, लेकिन वो नहीं उठे। उसके बाद उन्हें लोगों ने पीटना शुरू किया और एक की मौत हो गई। यानी अपराध करने वालों को यह स्वीकार करने में दिक़्क़त थी कि टोपी वाले लड़के कहने के बावजूद अपनी सीट से खड़े नहीं हुए।
समझिए- सीट से हटाना, सिनेमा हॉल से बाहर करना, स्कूल से बाहर करना, हिजाब के कारण परीक्षा से बाहर करना, मतदाता सूची से बाहर करना, स्कूल से बाहर करना या जनप्रतिनिधि बनने की संभावना से बाहर करना, या आपके अब तक सुरक्षित या जीवित बचे रहने को अपना एहसान बताना जनसंहार की इच्छा से संचालित प्रवृत्तियां हैं। फर्क सिर्फ़ डिग्री का है।
सबसे खतरनाक यह है कि मुसलमानों का एक हिस्सा भी इसे अब नॉर्मल मानने या माहौल के मुताबिक एड्जस्ट होने को तैयार होता दिख रहा है। मसलन, अकबर महान के जन्मदिन पर हर ज़िले में उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण कराने पर एक सहयोगी का कहना था कि जी 8 की बैठक में मोदी सरकार ने विदेशी मेहमानों को जो ब्रोशर दिया था उसमें भी अकबर का ज़िक्र है इसलिए ऐसा करने पर भाजपा भी सवाल नहीं उठा सकती है। इसी तरह कई बार मुस्लिम युवक फेसबुक पर फिलिस्तीन के पक्ष में अटल बिहारी बाजपेयी के भाषण का क्लिप डालकर मोदी सरकार द्वारा इजराइल का समर्थन करने पर आलोचना करते दिख जाते हैं।
गौर करिये, ये दोनों तर्क अपने ख़ुद की समझ के बजाए भाजपा की समझ से निर्धारित हो रहे हैं। यह ट्रेंड लोकतंत्र और ख़ुद मुसलमानों के लिए आत्मघाती है।
आप इसे एक और उदाहरण से समझिये। मुस्लिम नाम वाले शहरों के नाम बदलने पर आम मुस्लिम आपसी बातचीत में इसे अपनी पहचान पर हमला बताता है। लेकिन दूसरों के सामने उसका तर्क होता है कि नाम बदलने से विकास नहीं होता। यानी वो जो सोचता है उसे बोल नहीं पाता। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अशुभ है। इससे डरे हुए नागरिक पैदा होते हैं।
33 प्रतिशत महिला आरक्षण से मुस्लिमों का रास्ता बंद हो जाएगा
दरअसल, हकीकत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में जो थोड़े बहुत मुस्लिम अपनी आबादी के बल पर अब तक सांसद और विधायक बन जाते थे चुनावों में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के बाद यह रास्ता भी बंद होने वाला है। क्योंकि जिस तरह पहले मुस्लिम बहुल सीटों को दलितों के लिए आरक्षित कर के मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की संभावनाओं को खत्म किया जाता था जिस पर सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमीशन ने विस्तार से चरचा की थी, अब उसी तरह मुस्लिम बहुल सीटों को महिलाओं के लिए सुरक्षित कर दिया जाएगा। चूंकि मुस्लिम महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता नहीं है इसलिए वो अपने पति या भाई के नाम पर ग्राम प्रधान या सभासद का चुनाव तो लड़ सकती हैं लेकिन लोकसभा या विधानसभा का चुनाव मजबूती से नहीं लड़ पाएंगी।
इसीलिए अब्दुल रहमान अंतुले साहब को याद करने की बहुत सी वजहें होनी चाहिएं। और ये सारी वजहें लोकतंत्र को बचाने उसे और समावेशी बनाने के लिए ज़रूरी हैं।
शाहनवाज़ आलम
प्रदेश अध्यक्ष
अल्पसंख्यक कांग्रेस, यूपी


