तसलीमा नसरीन का प्रधानमंत्री को मार्मिक पत्र: निर्वासन, दर्द और राजनीतिक इस्तेमाल की दास्तान

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  • तसलीमा नसरीन निर्वासन की कहानी
  • तसलीमा नसरीन और भारतीय मीडिया
  • तसलीमा नसरीन का स्त्री लेखन
  • तसलीमा नसरीन का राजनीतिक इस्तेमाल
  • बांग्लादेश में तसलीमा की वापसी की मांग
  • तसलीमा नसरीन और हिंदुत्व एजेंडा
  • निर्वासित लेखिकाओं की त्रासदी
  • तसलीमा नसरीन और धर्मांतरण विवाद

तसलीमा नसरीन का असली संघर्ष

तसलीमा नसरीन ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री को एक निजी और मार्मिक पत्र लिखा, जिसे भारत के मीडिया ने नजरअंदाज कर दिया। पढ़ें निर्वासन और सच की पूरी कहानी…

कल हमने अपनी अति प्रिय लेखिका तसलीमा नसरीन का निजी पत्र उनके छूटे हुए देश के प्रधानमंत्री के नाम जो उनने लिखकर अपनी फेसबुकिया दीवाल पर टांगा है, ब्लागों के जरिये जारी किया है।

इन दिनों तसलिमा खबरों में रहती हैं। सत्ता उनका उसी तरह इस्तेमाल करती है, जैसे कभी हेलेन और द्रोपदी का हुआ होगा।

उनके इस मार्मिक पत्र का न मीडिया में कहां प्रकाशन हुआ है और न इसका जिक्र कहीं हुआ है। न बांग्ला में और न हिंदी में।

और वे जो नास्तिकता और मानवाधिकार की बातें लिखती हैं, उस प्रसंग को सिरे से मटियाकर मीडिया की कृपा से वे अनंतकाल के लिए प्रतिबंधित निर्वासित हैं और किसी को भी उनके चीरहरण का अधिकार है और कोई श्रीकृष्ण इस द्रोपदी को बचाने वाला नहीं है। संघ परिवार उसका लगातार हिंदुत्व सुनामी में इस्तेमाल करता रहा और उसकी नागरिकता पर विचार तक करने को तैयार नहीं है।

अपनी सुविधा की राजनीति में एक अकेली औरत की इतने सालों से हत्या होती रही है और वह फिर भी मर-मरकर जी रही है और उसके दर्द की दास्तां का कोई भागीदार नहीं है लेकिन उसकी दास्तां देश परदेस बदनाम है।

कृपया देखेंः

প্রধানমন্ত্রীর কাছে একটি ব্যক্তিগত চিঠি

Taslima Nasreen writes a personal letter to Hasina with every drop of her blood but Indian media makes her stand with RSS!

बलि-प्रदत्त हैं तसलीमा नसरीन

संघ परिवार के अश्वमेधी गीता महोत्सव के तहत राष्ट्रव्यापी धर्मांतरण और घुसपैठियों तक को धर्मांतरण बजरिये भारतीय बनाकर विधर्मियों के सफाये के महायज्ञ में बलिप्रदत्त हैं तसलीमा नसरीन।

बांग्लादेश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतें तसलीमा की घर वापसी की मांग उठा ही रही थीं और इस बारे में भी हस्तक्षेप में हमने रपट लगा दी है और देश लौटने की मार्मिक चिट्ठी अपने प्रधानमंत्री को लिखने वाली तसलीमा को भारत देश के महान मीडिया ने फिर एक बार संघ परिवार के साथ खड़ा कर दिया है और लज्जा से लगातार यह सिलसिला चल रहा है।

गौरतलब है कि तसलीमा बार-बार कहती रही हैं कि उन्होंने अपने विवादग्रस्त उपन्यास 'लज्जा' में इस्लाम की आलोचना नहीं की और उनके खिलाफ फतवा इसलिए है क्योंकि उन्होंने अपनी कई अन्य किताबों में धर्म की आलोचना की है।

बिल्कुल सही कहा है तसलीमा ने।

वैदिकी सभ्यता और इस्लाम दोनों पर जो हमले किये

तसलीमा नसरीन की असली पहचान तो उनके निर्वाचित कालम नामक किताब है जो बांग्लादेशी अखबारों में प्रकाशित उनके चुनिंदा कालमों का संकलन है। इस किताब में वैदिकी सभ्यता और इस्लाम दोनों पर जो हमले किये हैं तसलीमा ने, वैसे हमले वे फिर दोहरा नहीं सकी।

हिंदुत्व एजेंडे के लिए लगातार इस्तेमाल

यह जो इस्लामी कट्टरपन के खिलाफ तसलीमा का जिहाद है, उसका जो संघ परिवार के हिंदुत्व एजेंडे के लिए लगातार लगातार इस्तेमाल होता रहा है, तसलीमा के देस निकाले की असली पृष्ठभूमि लेकिन यही है।

तसलीमा का लिखा अब धर्मनिरपेक्ष भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश दोनों जगह निषिद्ध है तो लिखकर जीने वाली एक औरत के लिए निर्वासित जीवन यंत्रणा क्या होती है, इसे समझने की अगर संवेदना नहीं है तो उन सनसनीखेज तबके का क्या किया जा सकता है।

वजूद मिटा दिया

तसलीमा मयमनसिंह (Mymen Singh) के गांव से डॉक्टर बनी एक महिला हैं, जो सिर्फ बांग्ला बोलती हैं और बांग्ला लिखती हैं। जब लिखती हैं तो अपना कतरा-कतरा खून लेखन में बहा देती हैं। अपने लेखन के बिना उसका कोई वजूद है ही नहीं और सीमा आर-पार पुरुषतांत्रिक वर्चस्ववादी बंगाली साहित्य ने उसका यह वजूद मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

निरंतर स्त्री पक्ष

तसलीमा निरंतर स्त्री के पक्ष में लिखती रही है और बार-बार कहती लिखती रही है कि धर्म के रहते स्त्री मुक्ति असंभव है और हमारे बिरादर तो उनका धर्मांतरण करने पर ही आमादा है।

तसलीमा का लेखन न वे पढ़ते हैं और न तसलीमा का दिलोदिमाग की कोई खोज खबर रखते हैं, तसलीमा के ट्विटर से सनसनीखेज टुकड़े उठाकर संदर्भ प्रसंग बिना हिंदुत्व के हितों के मुताबिक प्रचारित प्रसारित करते हैं।

जबरन धर्मांतरण का विरोध

तसलीमा ने दरअसल जबरन धर्मांतरण का विरोध किया है और कहा है कि जैसे धर्म मानने की आजादी है, वैसे ही धर्म न मानने की नास्तिकता की आजादी होनी चाहिए और इसी सिलसिले में कहा है कि इस्लाम का इतिहास धर्मांतरण का इतिहास है। इसी तरह देखा जाय सत्ता समर्थित किसी भी धर्म का इतिहास धर्मांतरण का इतिहास ही है।

हिंदुत्व का इतिहास भी तो धर्मांतरण का इतिहास

हिंदुत्व का इतिहास भी तो धर्मांतरण का इतिहास है। बौद्धमय भारत के बौद्धों के वंशज आज जो हिंदू हो गये, वह तो सत्ता के बल पर धर्मांतरण का नतीजा ही है। बंगाल की सत्तानव्बे फीसद आबादी जो शूद्र, अछूत, मुसलमान हैं सात फीसद आदिवासियों को छोड़कर, वह भी ताजातरीन सामूहिक धर्मांतरण की कथा व्यथा है। ईसाई धर्म के विस्तार में भी बरतानिया और अमेरिका साम्राज्यवाद पर चर्च के आधिपात्य है।

आमृत्यु अफसोस रहेगा।

तसलीमा ने ऐसा विस्तार में नहीं लिखा है और यह उसकी भूल है, राजनीति कतई नहीं है। वह लिखती है और सत्ता समीकरण से बचकर भी नहीं लिखती है। राजनीतिक नतीजों से बेपरवाह लेखन ही उसकी निजी त्रासदी है।

इस्लाम का वजूद धर्मांतरण के बिना नहीं है, ऐसे विस्फोटक बयान तसलीमा के नाम नत्थी करके भारतीय मीडिया ने दरअसल तसलीमा की घर वापसी के मौके की हमेशा के लिए हत्या कर दी है।

हम चूंकि पिछले चार दशक से भारतीय पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय हैं तो यह शर्मिंदगी हमारी है और यह चूंकि स्त्री उत्पीड़न का मामला है ताजिंदगी पत्रकार बने रहने का हमें आमृत्यु अफसोस रहेगा।

स्त्री मन की पूरी अभिव्यक्ति

तसलीमा को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा लिखने के लिए, राजनीति के लिए नहीं, लेखन में अपने स्त्री मन की पूरी अभिव्यक्ति देने के लिए जो पुरुषतांत्रिक सत्ता, राजनीति, विचारधारा और विमर्श के विरुद्ध है।

तसलीमा की त्रासदी का प्रस्थान बिंदु यही दुस्साहस है और इतने साल तक निर्वासन में रही तसलीमा आज भी दुस्साहस के मामले में उसी तरह युवती है और उम्र के हिसाब से ऊंच नीच की व्यावहारिकता उसके आचरण में नहीं है। लेखन में भी नहीं।

बाकी लेखकों से अलग भी हैं

इसीलिए तसलीमा नसरीन बाकी लेखकों से अलग भी हैं। वह हर बात बेहिचक कहती लिखती हैं। उनकी पूरी बात रखे बिना, उनका कहा लिखा कुछ भी कहीं से उठाकर तूफान खड़ा करने और उसके संघ परिवार के हित में राजनीतिक इस्तेमाल से उसका निर्वासन इस जनम में तो खत्म होने को नहीं है।

O- पलाश विश्वास