तर्क और विचारों से कौन डरता है ?
"दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की शहादत के बहाने चन्द बातें" की अगली कड़ी
सुभाष गाताडे
सही बात है कि एक अज़ीब से दौर से हम फिलवक्त़ गुजर रहे हैं जब एक अलग तरह की हिट लिस्ट की बातें अधिकाधिक सुनाई दे रही है।
पहले ऐसी बातें दूर से सुनाई देती थीं। जब साठ के दशक के उत्तरार्द्ध या सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आन्दोलन अपने उरूज पर था, जब उसने सत्ता को चुनौती दी थी, तब बंगाल और आंध्र के रैडिकल छात्र युवाओं के, या अन्य इन्कलाबियों के नामों की फेहरिस्त लिए पुलिस बल के लोग या उनके पिटठू घुमते रहते थे। जिन लोगों ने महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ पढ़ा होगा या उस पर बनी एक हिन्दी फिल्म देखी होगी, वह उस दौर का बखूबी अनुमान लगा सकते हैं।
उधर जब अस्सी के दशक में खालिस्तानी आन्दोलन का रक्तरंजित सिलसिला चल पड़ा तो फिर एक बार हिट लिस्ट की बातें सुर्खियां बनीं। फर्क महज इतना था कि एक तरफ पुलिस-सुरक्षा बलों की हिट लिस्ट होती थी, जिसमें उन लोगों के नाम शामिल रहते थे जो उनके हिसाब से खालिस्तानियों से ताल्लुक रखते थे, तो उधर खालिस्तानी उन लोगों को ढूंढते रहते थे जो उनकी खूनी सियासत के मुखालिफ होकर इन्सानियत के हक़ में खड़े होते थे। चाहे कम्युनिस्ट इन्कलाबी आन्दोलन का दौर रहा हो या खालिस्तानी आन्दोलन का रक्तरंजित दौर ऐसे तमाम बेशकीमती लोग मारे गए हैं, जो समाजी बेहतरी एवं बराबरी की लड़ाई में मुब्तिला थे।
आज 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में जबकि आज़ाद भारत की पचहत्तरवीं सालगिरह मनाने की तरफ हम बढ़ रहे हैं, तब इस अलग किस्म की लिस्ट जारी हुई है। दरअसल इस लिस्ट में ऐसे लोगों के नाम शामिल हैं जो कलम चलाने वाले लोग है, भारत के संविधान के दायरे में रह कर अपनी सक्रियताओं के चलते यहां के जनतंत्र को समृद्ध बनाने में मुब्तिला लोग हैं, नफरत एवं अलगाव की राजनीति के खिलाफ अलग जगाने वाले लोग हैं, जो मजलूम हैं जो मुफलिस है उसके हक़ में आवाज़ बुलन्द करने वाले लोग है। तमाम बाबाओं, बापूओं और साधुमांओं द्वारा बेवकूफ बनाये जा रही आबादी को सच्चाई बताने में मुब्तिला लोग हैं।
इसी हिट लिस्ट का परिणाम है कि दो साल में अपने में से कम से कम ऐसे तीन अज़ीम शख्सियतों को हमने खोया है, जिनका रहना इस जनतंत्र को और समृद्ध करता और स्पंदित बनाता। चिन्तित करने वाली बात यह भी है कि यह अन्त नहीं है।
इस हिट लिस्ट में और कइयों के नाम शामिल बताए जाते हैं।
कर्नाटक के दो अग्रणी लेखकों के मकानों को ध्वस्त करने की श्रीराम सेने के कार्यकर्ताओं ने बाकायदा प्रेस कान्फ्रेन्स करके धमकी दी है, जिन्होंने कलबुर्गी की हत्या में कथित तौर पर उसके कार्यकर्ताओं की संलिप्तता की बात कही थी। अभी चन्द रोज पहले दिल्ली के जनाब जान दयालसाब - जो अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए लगातार संघर्षरत रहते हैं - उन्हें भी धमकी दिए जाने की बात सुनाई दी है।
दाभोलकर पानसरे की शहादत के बाद सूबा महाराष्ट्र के तीन लोगों को - डा नरेन्द्र दाभोलकर के भाई दत्तप्रसाद दाभोलकर और श्रमिक मुक्ति दल के नेता एवं वामपंथी विचारक-कार्यकर्ता भारत पाटणकर और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखक भालचंद्र नेमाडे को धमकी मिली है। दत्तप्रसाद दाभोलकर, दक्षिणपंथियों के निशाने पर इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के जीवन एवं कार्य को अलग ढंग से व्याख्यायित करने की कोशिश की है, जिसका बुनियादी स्वर होता है विवेकानन्द को जिस तरह दक्षिणपंथ द्वारा अपने ‘आयकॉन’ के रूप में में समाहित किया गया है, उनकी खास किस्म की हिन्दूवादी छवि को प्रोजेक्ट किया गया है, उसकी मुखालिफत करना। इस मसले पर वह जगह जगह व्याख्यान भी देते हैं। मार्क्स एवं फुले अम्बेडकर के विचारों से प्रेरित कामरेड भारत पाटणकर विगत लगभग चार दशक से मेहनतकशों एवं वंचित-दलितों के आन्दोलन से सम्बद्ध हैं और साम्प्रदायिक एवं जातिवादी राजनीति का विरोध करते हैं। जनता की सांस्कृतिक चेतना को जगाने के लिए ‘बलीराजा’ जैसे पुराने प्रतीकों को भी उन्होंने नए सिरेसे उजागर करने का काम किया है।
ताज़ा समाचार यह भी है कि कामरेड गोविन्द पानसरे की हत्या में कथित तौर पर शामिल होने को लेकर जबसे ‘सनातन संस्था’ के कार्यकर्ता पकड़े गए हैं तबसे महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले, तर्कशील आन्दोलन के श्याम सोनार, मशहरू डाक्युमेंटरी निर्माता आनंद पटवर्धन को भी धमकी मिली है।
अगर ऐसी खुल्लमखुल्ला धमकियां मिलने के बाद भी अगर सरकार एवं पुलिस बल नहीं चेता और इनमें से किसी के जान को कुछ खतरा हुआ तो यह बात पुख्ता हो जाएगी कि हुकूमत में बैठे लोग भले ही दावे जाति एवं साम्प्रदायिक तनाव मुक्त भारत के निर्माण के करते हों, मगर हक़ीकत में उनका आचरण कहीं न कहीं ऐसी ताकतों को शह देना है। और अब यह हुकूमत में बैठे लोगों को तय करना है कि वह इन कातिलों को पकड़ने में पूरी चुस्ती बरतेंगे या बस कदमताल करते रहेंगे।
77 वर्षीय कलबुर्गी ने अपनी लम्बी उम्र में विचारों के जगत में नए दरवाजे खोलने की लगातार कोशिश की थी। यह भी कहा जाता है कि अपने हत्यारे के लिए कलबुर्गी जी ने खुद दरवाज़ा खोला था, जो ‘सर’ से मिलने घर के अन्दर दाखिल हुआ था।
अतिथियों के लिए दरवाज़े खोलना, हर सभ्य समाज की निशानी होती है। कलबुर्गी के इन्सानद्रोही हत्यारों ने उस बुनियादी शिष्टाचार को भी कलंकित कर दिया है। मुझे सुदर्शनजी की कहानी ‘हार की जीत’ याद आ रही है, जब वह डकैत बीमार होने का बहाना बना कर साधु का घोड़ा चुरा कर ले जाता है और साधु उसे जाते हुए कहता है कि किसी को यह न कहना कि तुमने घोड़ा कैसे चुराया, क्योंकि आईन्दा कोई व्यक्ति किसी बीमार को सहायता नहीं करेगा। मैं चाहता हूं कि कलबुर्गी के जीवन के इस अन्तिम प्रसंग की भी कमसे कम चर्चा हो ताकि ऐसा न हो कि अजनबियों को देख कर हम अपने दरवाजे खोलना बन्द कर दें।
हम यहां जुटे इसलिए हैं क्योंकि विचारों के जगत में नए नए दरवाजे खोलने, नयी जमीन तोड़ने की जो रवायत सदियों से चली आ रही है, जिसके सच्चे वाहक कलबुर्गी थे, वह परम्परा मजबूती के साथ आगे बढ़े। अंधेरे की वह ताकतें जो इसमें खलल डालना चाहती हैं, वह फिर एक बार शिकस्त पाएं।
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हिटलर एवं मुसोलिनी के बारे में कहा जाता है कि वह विचार में नहीं एक्शन में विश्वास रखते थे।
निश्चित ही उन्हीं की सन्तानों ने - या आप उन्हें नाथुराम गोडसे की औलाद भी कह सकते हैं, जिस आतंकी ने इसी तरह एक निहत्थे बुजुर्ग व्यक्ति की हत्या की थी, जब वह प्रार्थना में जा रहा था , क्योंकि उनके विचारों से वह सहमत नहीं था - इन हत्याओं को अंजाम दिया है।
विचारों के खिलाफ चल रहा यह युद्ध दरअसल कई छटाओं को लिए हुए है। आप कह सकते हैं कि एक स्पेक्टचम ;ेचमबजतनउद्ध की तरह पसरा है। तर्क की मुखालिफ, विचारों की विरोधी ताकतों द्वारा यह जो मुहिम छेड़ी गयी है उसके एक छोर पर अगर हम चलती पिस्तौल की गोलियों को देख सकते हैं जो कभी किसी दाभोलकर, किसी अयासिकुर रहमान तो किसी कलबुर्गी के कपाल को भेदती जाती दिखती है तो उसके दूसरे छोर पर हम कलम या विचार के हिमायतियों, विचार जगत में विचरण करनेवाले बुद्धिजीवियों, विद्वानों को अपमानित करने जैसी स्थितियों को भी देख सकते हैं। इनमें सबसे ताज़ा प्रसंग नेहरू म्युजियम मेमोरियल लाइब्रेरी के निदेशक पद से प्रोफेसर महेश रंगराजन जैसे विद्वान को दबाव डाल कर हटाने से जुड़ा है, जब संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने एक तरह से उनके खिलाफ मुहिम सी छेड़ दी।
और इन दो छोरों के बीच तमिल लेखक पेरूमल मुरूगन जैसों पर पड़े प्रचण्ड दबावों को देख सकते हैं, जिन्होंने हिन्दुत्ववादी संगठनों की पहल एवं जातिवादी संगठनों की हुडदंगई तथा प्रशासन के समझौतापरस्त रवैये से तंग आकर अपने एक उपन्यास को वापस लेने और ‘लेखक की मौत’ की घोषणा की। कांचा इलैया जैसे बहुजन लेखक के खिलाफ दर्ज देशद्रोह के मुकदमे को देख सकते हैं या मल्यालम के लेखक एम.एम.बशीर को हिन्दुत्ववादियों द्वारा मिली धमकियों को देख सकते हैं , जिसके चलते उन्हे अपना कॉलम बन्द करना पड़ा। अख़बार में इसके बारे में विवरण छपे हैं कि किस तरह इन चरमपंथियों ने बशीर पर दबाव डाला कि ‘मुसलमान होने के बावजूद राम पर वह क्यों लिख रहे हैं ?’ और जिसकी वजह से बशीर ने अपना कॉलम बन्द कर दिया।
दरअसल हिटलर मुसोलिनी के इन वारिसों को विचारों से इस कदर खौफ है कि वह बेलगाम हो गए हैं और कुछ भी प्रलाप किए जा रहे हैं। यह अकारण नहीं था कि पिछले दिनों उन्होंने विश्व हिन्दी सम्मेलन के बहाने समूचे साहित्यिक बिरादरी को अपमानित करने में संकोच नहीं किया। न केवल देश के अग्रणी साहित्यकारों को उसमें न्यौता दिया गया, वे साहित्यकार भी बुलाए नहीं गए जो संघ परिवार के करीबी माने जाते हैं और सम्मेलन के एक दिन पहले एक काबिना मंत्री - जो खुद जब सेना में उच्चतम पद पर था, तब अपनी उम्र कम दिखा कर एक साल और सर्विस कराने के लिए अदालत पहुंचा था और वहां से लौटा दिया गया था - ने एक वाहियात बयान दिया।
इसकी एक वजह साफ है। दरअसल वह जानते हैं कि हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्थान के नाम से वह जिस तरह संघ के विश्वनज़रिये के तहत हिन्दी की पुनर्रचना करना चाह रहे हैं, उसमें सबसे बड़ा रोड़ा हिन्दी पटटी के साहित्यकार ही बन सकते हैं। और अपनी असलियत से तो वह अच्छी तरह वाकीफ हैं कि उनकी तमाम कवायदों के बावजूद, पद एवं प्रतिष्ठा के तमाम लालीपॉप दिखाने के बावजूद कोईभी बड़ा साहित्यकार, कलमकार अभी तक उनके खेमे से जुड़ा नहीं है, उनके यहां पैदा होने की बात ही छोड़ दें।
सुभाष गाताडे
( कलम विचार मंच, लखनऊ द्वारा आयोजित सेमिनार में 18 सितम्बर 2015 को दिए गए भाषण का विस्तारित रूप की दूसरी कड़ी)
Subhash Gatade is a well known journalist, left-wing thinker and human rights activist. He has been writing for the popular media and a variety of journals and websites on issues of history and politics, human right violations and state repression, communalism and caste, violence against dalits and minorities, religious sectarianism and neo-liberalism, and a host of other issues that analyse and hold a mirror to South asian society in the past three decades. He is an important chronicler of our times, whose writings are as much a comment on the mainstream media in this region as on the issues he writes about. Subhash Gatade is very well known despite having been published very little in the mainstream media, and is highly respected by scholars and social activists. He writes in both English and Hindi, which makes his role as public intellectual very significant. He edits Sandhan, a Hindi journal, and is author of Pahad Se Uncha Admi, a book on Dasrath Majhi for children, and Nathuram Godse’s Heirs: The Menace of Terrorism in India.