यूँ तो मुझे ..... खुद छूना था उसे ... छू ..भी लेती .... पर क्या करूँ ....
यूँ तो मुझे .....
खुद छूना था उसे ...
छू ..भी लेती ....
पर क्या करूँ ....
कल शाम छत पर ...
बारिशों के रूके पानी में शफ़क घोल रहीं थी अपने रंग ...
कि मैंने कलाई थाम लीं ...
फँसा दी साँझ की गुलाबी उँगलियों में उँगलियाँ अपनी और उँगलियाँ कस लीं ...
भिंची मुट्ठियाँ खुल गयीं साँझ की और मुट्ठियों के बेताब ...लाल ..पीले.. गुलाबी ..सिन्दूरी रंग उतर आयें हथेलियों पर मेरी ...
आज मैं भी साँझ की तरह ..
फलक के असमानी बदन पर छाप दूँगी ...
सिन्दूरीं..रंगो में सान कर ....हथेलियों के छापे ....
नहीं फलक .
तुम नहीं धुलना चेहरा अपना ..ताल पोखरों के पानी में ...झरनों से ...
बच के बच के गुज़रना ....
सुनो ...
तुम रूई से बादलों के पीछे छुप जाना ....
बस उफ़ुक तक पहुँच के हटा देना यह बादलों वाली ओट ....
छुटा देना उफ़ुक के थल्ले पर यह रंग....
तुम मल मल के धो लेना ...,
मेरी गुलाबी कहानी......
बिखरने देना .....
मेरे नाम के सिन्दूरी रंग .....
वहाँ चुपके-चुपके......
मुझे पता है ..बे सिरे उफ़ुक पर .....नहीं टिकने वाले यह रंग .....
चुटकियों में......
ढुलक के ....खो जायेंगे.....
मगर तुम ....फिर भी ....
वहाँ तक पहुँचा ही दो ....
रंगों मे छुपे .....
मेरी उँगलियों के लम्स......
यूँ तो मुझे .....
खुद छूना था उसे ...
छू ..भी लेती ....
पर क्या करूँ ....
उस उफ़ुक तक मेरा ....
हाथ ....ही ...नही जाता.....
(Dr . Kavita )


