सांप्रदायिक हिंसा विधेयक क्या संसद में प्रस्तुत भी होगा?
सांप्रदायिक हिंसा विधेयक क्या संसद में प्रस्तुत भी होगा?

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव (Assembly elections of four states), जिनके नतीजे 8 दिसंबर 2013 को घोषित किये गये, में कांग्रेस की हार के बाद यह कहना मुश्किल है कि सांप्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक 2013 (The Communal Violence Prevention Bill 2013) का क्या होगा। यह विधेयक यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल के संसद के आखिरी शीतकालीन सत्र में प्रस्तुत किया जाना था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 2004 के अपने चुनाव घोषणापत्र (Congress election manifesto) में यह वायदा किया था कि, ‘‘कांग्रेस सांप्रदायिक शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने और बनाये रखने के लिये सभी संभव उपाय करेगी, विशेषकर संवेदनशील इलाकों में। वह सभी प्रकार की सामाजिक हिंसा की रोकथाम के लिये एक नया व्यापक कानून बनायेगी, जिसमें केन्द्रीय एजेंसी द्वारा जाँच, विशेष अदालतों में अभियोजन और जीवन, सम्मान व सम्पत्ति के नुकसान के लिये समान दर पर मुआवजे सम्बंधी प्रावधान होंगे’’। इस वायदे की पूर्ति के लिये यूपीए-1 सरकार ने सन् 2005 में एक विधेयक प्रस्तावित किया परन्तु इसे नागरिक समाज और मानवाधिकार संगठनों ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि इसके प्रावधान जरूरत से ज्यादा सख्त हैं।
सन् 2009 के चुनाव घोषणापत्र (Congress election manifesto 2009) में कांग्रेस ने अपने वायदे को दोहराते हुये कहा,
‘‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह विश्वास है कि सांप्रदायिक, नस्लीय व जातीय हिंसा के शिकार सभी लोगों को एक न्यूनतम स्तर के मुआवजे और पुनर्वसन का अधिकार है और इस स्तर का मुआवजा देना और पुनर्वसन करना, प्रत्येक सरकार का आवश्यक कर्तव्य है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक ऐसा कानून बनायेगी जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को साम्प्रदायिक व जातिगत हिंसा के सभी मामलों की जाँच और अभियोजन की निगरानी करने का अधिकार होगा’’।
सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Council) ने शांति कार्यकर्ताओं और कानूनविदों से परामर्श कर 2011 में कानून का एक मसविदा तैयार किया। कुछ कमियों के बावजूद, 2011 का मसविदा सही दिशा में एक कदम था। शांति और सांप्रदायिक सद्भाव के लिये काम करने वाले अधिकांश संगठनों ने विधेयक का समर्थन किया।
दूसरी ओर, भाजपा और हिन्दुत्व विचारधारा वाले पत्रकारों और लेखकों ने विधेयक के विरूद्ध एक कुटिल दुष्प्रचार अभियान छेड़ दिया। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को गैर-संवैधानिक संस्था बताकर उसकी आलोचना की गयी। यद्यपि इस परिषद ने पहले भी अनेक विधेयकों का मसविदा तैयार किया था परन्तु उस पर पहली बार हमला बोला गया। बिल की इस आधार पर भी आलोचना की गयी कि वह बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ है और उसके प्रावधानों का इस्तेमाल केवल तभी किया जा सकेगा जब अल्पसंख्यक हमले के शिकार हों।
आलोचना का तीसरा बिंदु यह था कि विधेयक भारत की संघीय व्यवस्था पर चोट करता है और राज्य सरकारों की शक्तियों पर अतिक्रमण। इस आलोचना का उद्देश्य गैर कांग्रेस दलों की राज्य सरकारों को भड़काना था।
इसी तरह, वे सभी पुलिस अधिकारी दंड के भागी होते जिन्होंने गुजरात 2002 के दंगों के पहले, कारसेवकों की लाशें विहिप नेताओं को सौंपी ताकि वे उन्हें जुलूस में गोधरा से अहमदाबाद ले जा सकें।
कोई भी ऐसा कानून, जो सरकारी अधिकारियों को दंगों को रोकने या उन्हें नियंत्रित करने में असफल रहने पर जवाबदेह बनाता है और उन्हें मजबूर करता है कि वे दोषियों को सजा दिलवाएं और जो पीड़ितों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखता है-ऐसे किसी भी कानून के बनने से दंगे करवाना मुश्किल और जोखिम भरा हो जाएगा। यही भाजपा की असली चिंता है। जिन आधारों पर भाजपा इस विधेयक का विरोध कर रही है वे मात्र बहाने हैं। पार्टी की असली चिन्ता कुछ और ही है। आइए, हम भाजपा द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों का परीक्षण करें।
वैसे भी, संविधान का अनुच्छेद 355 कहता है कि संघ का यह कर्तव्य है कि ‘‘वह ब्राह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करे’’। सांप्रदायिक दंगे, आंतरिक अशांति की श्रेणी में आते हैं क्योंकि दंगाग्रस्त क्षेत्र के सभी रहवासियों, विशेषकर अल्पसंख्यकों का जीवन व स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाते हैं। इस तरह की परिस्थितियों में अक्सर संघीय सशस्त्रबलों की तैनाती की जाती है और संघ का यह कर्तव्य होता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्य की सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चलाई जा रही है।
जब कथित तौर पर आतंकवाद से निपटने के लिये टाडा और पोटा जैसे भयावह कानून बनाये जाते हैं, जब राष्ट्रीय जाँच एजेंसी का गठन किया जाता है या जब नजरबंदी सम्बंधी कानून बनाये जाते हैं, तब भाजपा उनका समर्थन करती है। भाजपा ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के गठन का विरोध नहीं किया जबकि उसे आपराधिक मामलों की जाँच करने और अदालतों में आरोपपत्र प्रस्तुत करने का अधिकार है। दंगा निरोधक कानून के अन्तर्गत जिस अधिकरण के गठन की बात कही गयी थी, उसे ये अधिकार नहीं थे। टाडा और पोटा ने कई नए अपराध परिभाषित किये और इन कानूनों के अन्तर्गत की जाने वाली कार्यवाही के सम्बंध में ऐसे प्रावधान किये गये जिससे ढीली ढाली जाँच या झूठे सुबूतों के आधार पर भी आरोपियों’ को दोषी ठहराना आसान हो गया। भाजपा ने इन कानूनों को कभी राज्यों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप या देश के संघीय ढाँचे पर चोट करने वाला नहीं बताया।
सच यह है कि ये सभी कानून सार्वजनिक व्यवस्था के बारे में हैं और इन सभी ने संवैधानिक चुनौतियों की बाधा पार कर ली है।
बहुसंख्यक समुदाय (चाहे वह किसी भी धर्म का हो) की उच्च जातियों के सदस्यों की सत्ता प्रतिष्ठानों में पैठ होती है और इसलिये उनकी जाति, धर्म या भाषा के आधार पर उन्हें हिंसा का निशाना बनाये जाने की कम संभावना रहती है। सन् 2011 के विधेयक के प्रावधानों का इस्तेमाल, मुसलमानों या हिन्दुओं-किसी को भी-लक्षित हिंसा का शिकार बनाये जाने पर किया जा सकता था। इसका इस्तेमाल तब भी हो सकता था जब भाषाई अल्पसंख्यक या अनुसूचित जातियों या जनजातियों के सदस्य (चाहे वे किसी भी धर्म के हों) के विरूद्ध हिंसा हो। विधेयक में ऐसा कहीं नहीं कहा गया था कि सांप्रदायिक व लक्षित हिंसा करने वाले समूह किसी धर्म विशेष के ही होने चाहिए। परन्तु हिन्दुत्ववादियों ने यह दुष्प्रचार किया कि यह विधेयक हिन्दुओं के विरूद्ध है और उसके अन्तर्गत केवल हिन्दुओं को सांप्रदायिक हिंसा करने वाले समूह के रूप में चिन्हित किया गया है। यद्यपि 2013 के विधेयक में ‘लक्षित हिंसा’ की बात नहीं कही गयी है और किसी भी धर्म के व्यक्ति के विरूद्ध हिंसा को अपराध ठहराया गया है परन्तु यह प्रचार जारी है कि विधेयक हिन्दू विरोधी है। न तो 2011 का विधेयक हिन्दू विरोधी था और ना ही 2013 का है। दोनों ही विधेयक सांप्रदायिक हिंसा करने वालों के विरूद्ध थे जो शांति, सौहार्द और सार्वजनिक व्यवस्था भंग करना चाहते हैं व दंगों के बाद होने वाले ध्रुवीकरण से लाभ उठाते हैं। ये दोनों ही मसविदे ऐसे लोगों के खिलाफ भी थे जो दंगों में हिंसा करने के बाद भी कानून के पंजे से बचे रहते हैं।
संसद में प्रस्तुत होने वाले प्रस्तावित विधेयक में यह प्रावधान है कि राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोग सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुई हिंसा से सम्बंधित मुकदमों की कार्यवाही पर नजर रखेंगे। न्यायिक कार्यवाही को भी पीड़ितों के लिये आसान बनाया गया है, जैसे इसमे यह प्रावधान है कि एफआईआर राहत शिविरों में दर्ज की जायेगीं और सरकारी वकीलों की नियुक्तियों में पीड़ितों की राय को महत्व दिया जायेगा। यह व्यवस्था भी है कि मुकदमे, जिस जिले में दंगे हुये हैं, उसके अतिरिक्त किसी दूसरे जिले में चलाए जा सकेंगे।
निःसंदेह यह विधेयक मूल प्रस्तावित कानून से बहुत कमजोर है और समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा इसके दुरूपयोग की संभावना बनी रहेगी।
चिन्ता का एक अन्य विषय यह है कि राष्ट्रीय वा राज्य अधिकरणों का कार्य राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोगों को सौंपा जा रहा है। कई मानवाधिकार संगठनों की यह शिकायत है कि ये आयोग अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं। उनके पास लम्बित मामलों की संख्या बहुत हो गयी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सन् 2002 के गुजरात दंगों के मामले में प्रशंसनीय कार्यवाही की परन्तु उसके बाद से उसने दंगों के सम्बंध में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए।
इरफान इंजीनियर
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)


