अकाल का धनकुबेरों को भी इंतजार होता है मुनाफा पैदा करने के लिए
अकाल का धनकुबेरों को भी इंतजार होता है मुनाफा पैदा करने के लिए
भूख से होने वाली मौतें और किसान आत्महत्याएं कभी भी सत्ता के लिए चिंता का विषय नहीं बनती
आत्महत्या करने वाले हर 10 किसानों में एक किसान छत्तीसगढ़ का
छत्तीसगढ़ देश में सबसे गहरे कृषि संकट से गुजर रहा है
भूख से होने वाली मौतें और किसान आत्महत्याएं कभी भी सत्ताधारी पार्टी और शासक वर्ग के लिए चिंता का विषय नहीं बनती, क्योंकि इससे धनकुबेरों के मुनाफों पर कोई चोट नहीं पहुंचती। लेकिन वे हमेशा इस परिघटना के एक राजनैतिक मुद्दा बनने से जरूर डरते हैं, क्योंकि इससे उनके वोट बैंक को नुकसान पहुंचता है। इसलिए उनकी कोशिश हमेशा यही रहती है कि भूख से मौतें और किसान आत्महत्याएं होती हैं, तो हो, लेकिन राजनैतिक मुद्दा न बनें। इसके लिए वे आंकड़ों को भी बदलने का खेल खेलते हैं, ताकि स्थिति की गंभीरता को दबाया जा सके।
1951 से आज तक कृषि पर निर्भर आबादी की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन भूस्वामी कृषकों की जनसंख्या में काफी बड़ी गिरावट आई है। वही भूमिहीन खेत मजदूरों की प्रतिशत जनसंख्या में दुगुनी से ज्यादा वृद्धि हुई है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि गरीब किसानों के हाथों से जमीन निकली है और वे अपनी ही जमीन पर दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए विवश हैं। वे ऊंची दरों पर जमीन किराए पर ले रहे हैं और नहीं के बराबर लाभ पर गुजारा कर रहे हैं। भूमिहीनता के बावजूद उनका जीवन खेती-किसानी पर ही निर्भर है।
लेकिन यदि कोई सरकार मात्र उनकी भूमिहीनता के कारण, इन खेत मजदूरों को किसान ही मानने से इंकार कर दे, तो कोई क्या करें? वन भूमि के पट्टे नहीं होने के कारण सरकार आदिवासियों को भी किसान नहीं मानती। उनको भी किसान नहीं माना जाता, जो पट्टाधारी किसान परिवार के सदस्य होते हैं। इन श्रेणी के लोगों की आत्महत्याओं को सरकार 'किसान आत्महत्याओं' में गिनती ही नहीं।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2001 में छत्तीसगढ़ में 1452 किसान आत्महत्याएं हुई थीं, जो वर्ष 2009 में बढ़कर 1802 हो गई। इन आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि देश में आत्महत्या करने वाले हर 10 किसानों में एक किसान छत्तीसगढ़ का है। वर्ष 2009 में पूरे देश में 17368 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज की गई थी। केंद्र में संप्रग सरकार अपने ही ब्यूरो के इन आंकड़ों को नकार रही थी, तो राज्य में भाजपा की सरकार भी। लेकिन इस नकार के बावजूद इन किसान आत्महत्याओं ने देश में व्याप्त कृषि संकट पर बहस को जन्म दिया।
स्थिति की गंभीरता को कम दिखाने के लिए अब शुरू हुआ किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों में हेरा-फेरी का खेल। नतीजा यह हुआ कि जो छत्तीसगढ़ किसान आत्महत्याओं में देश के प्रथम पांच राज्यों में शामिल था, वहां वर्ष 2011, 2012 व 2013 में कोई किसान आत्महत्या ही नहीं हुई !! छानबीन से स्पष्ट हुआ कि इस सरकार ने किसानी को 'स्वरोजगार' मान लिया है और तमाम किसान आत्महत्याओं को उसने ' स्वरोजगार (अन्य) ' की श्रेणी में डाल दिया है। इस श्रेणी पर इतनी ' सरकारी कृपा ' बरसी कि जहां वर्ष 2009 में यह संख्या 861 ही थी, वर्ष 2013 में इस श्रेणी में 2077 (2.5 गुना से ज्यादा) आत्महत्याएं दर्ज की गई। इस दौरान छत्तीसगढ़ के सामाजिक-आर्थिक कारकों में कोई अंतर नहीं आया। इसलिए प्रदेश में उच्च दर पर दर्ज हो रही किसान आत्महत्याओं का 'शून्य' हो जाना पूरी तरह से संदेहास्पद था। इस पर हो-हल्ला तो होना ही था।
इस हो-हल्ले का नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2014 में 755 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज की गई। इस वर्ष पूरे देश में 12360 किसानों ने आत्महत्याएं की थी। इस प्रकार, देश में आत्महत्या करने वाले किसानों में छत्तीसगढ़ के 6% किसान थे, जबकि छत्तीसगढ़ की आबादी पूरे देश की आबादी का महज 2% ही है।
यदि किसान आत्महत्याएं ' कृषि संकट ' का एक संकेतक है, तो इस संकट की गहराई को समझने की जरूरत है। एनसीआरबी के 2009 तक के आंकड़ें 'विश्वसनीय' माने जा सकते हैं, लेकिन उसके बाद के नहीं। 2009के बाद के आंकड़ों के विश्लेषण के लिए ' सामान्य विवेक ' का सहारा लेना पड़ेगा। वर्ष 2013 में 'स्वरोजगार (अन्य)' की श्रेणी में 1216 की 'असामान्य' बढ़ोतरी दर्ज की गई है। यदि इसे वर्ष 2014 में किसान आत्महत्याओं की संख्या से जोड़कर देखा जाएं, तो मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि इस वर्ष किसान समुदाय के बीच 1971 किसानों ने आत्महत्या की। इस प्रकार, प्रति लाख जनसंख्या में 7।73 किसान आत्महत्या कर रहे हैं और प्रति लाख किसान परिवारों के बीच आत्महत्या की दर 49।2 बैठती है। यह आत्महत्या दर देश में सर्वाधिक है।
यदि छत्तीसगढ़ देश में सबसे गहरे कृषि संकट से गुजर रहा है, तो इसके कारणों की पड़ताल की ही जानी चाहिए। यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां 2002-03 से 2012-13 के बीच 10 सालों में जीडीपी में औसतन 7% की तेज रफ़्तार से वृद्धि हुई है। जो लोग ' ट्रिकल डाउन थ्योरी ' पर विश्वास करते हैं कि अर्थव्यवस्था में जितना ज्यादा विकास होगा, वह रिसकर निचले तबकों तक उतना ही ज्यादा पहुंचेगा, वे यहां गलत साबित होंगे। वास्तविकता तो यह है कि इस तेज रफ़्तार विकास ने किसानों के ज्यादा बड़े हिस्से पर क़र्ज़ का बोझ लाद दिया है।
एनएसएसओ के ही अनुसार, पिछले एक दशक में कर्ज़दार किसानों की संख्या 48।6% से बढ़कर 51।7% हो गई है। इन किसानों में 40% किसान महाजनी क़र्ज़ में दबे हैं, जो 60% तक ब्याज वसूलते है। महाजनी क़र्ज़ में फंसे इन किसानों की पहुंच उनकी ' भूमिहीनता ' के कारण बैंकों तक है ही नहीं। एक औसत भारतीय किसान के लिए यह क़र्ज़ एक 'फंदे' में बदल गया है, जो पिछली कई पीढ़ियों का क़र्ज़ ढो रहा है। भारतीय कृषि में जो ' पूंजीवादी विकास ' किया गया है और जो तकनीक विकसित हुई है, उसने उसे फायदा कम पहुंचाया, क़र्ज़ के जाल में ज्यादा फंसाया है। एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1967-2007 के बीच कृषि उपजों की कीमतों में केवल 10 गुना वृद्धि हुई है, लेकिन औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में 30 गुना बढ़ोतरी हुई है। अर्थव्यवस्था में जीडीपी में विकास दर के पीछे ' आदिम संचय ' बहुत बड़ा कारण है, जो जल, जंगल, जमीन, खनिज, और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की लूट से प्रेरित है।तो ऐसे विकास का किसानों तक रिसने का सिद्धांत तो कोरी कल्पना ही साबित होनी थी। एक आंकलन के अनुसार, 1995-2007 तक कृषि उपजों के मूल्य निर्धारण के जरिये इस देश के किसानों को 6 लाख करोड़ रुपयों की चपत लगाई गई है।
अपने वादे के बावजूद भाजपा सरकार आज भी किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने को तैयार नहीं हैं। खेती-किसानी घाटे का सौदा हो गई है और किसी विकल्प के अभाव में ही वे इससे चिपके हुए हैं। खेती-किसानी से उन्हें जो कुछ भी आय होती है, उसे उद्योग जगत हड़प कर लेता है। अर्थव्यवस्था में जीडीपी के विकास दर का रहस्य भी यही है।
छत्तीसगढ़ में लगभग 40 लाख परिवार खेती-किसानी पर ही गुजर-बसर करते हैं। इनमें से केवल 9-10 लाख किसानों की ही बैंकों तक पहुंच हैं। 30 लाख किसान परिवार महाजनी कर्जे में फंसे हैं, जिनकी औसत आमदनी, एनएसएसओ के अनुसार, केवल 3423 रूपये मासिक ही है। पशुपालन भी यहां घाटे का धंधा है, जो उनकी आय में और कमी ही करता है। ये किसान परिवार अपनी औसत आमदनी का 40% तो केवल क़र्ज़ में ही भुगतान ही करते हैं, जबकि 57% अपने भोजन पर। इसके बाद जीवन की अन्य गतिविधियों के लिए उनके पास कुछ नहीं बचता। यदि वे किसी और खर्च को प्राथमिकता देते हैं, तो और ज्यादा कर्जे, और ज्यादा भुखमरी का ही शिकार होते हैं। पिछले माह छत्तीसगढ़ में हुई किसान आत्महत्याओं में, किसानों की ऐसी बदहाली किसी से छुपी नहीं है।
तो एक किसान पूरे मुल्क का पेट भरता है। वह उद्योगों को पालता-पोसता है। वह अर्थव्यवस्था की जीडीपी दर को बढाता है। वह महाजनों की तिजोरियों को भरता है। लेकिन एक अच्छे बरसात में भी वह भुखमरी से लड़ता है। उसे केवल एक अकाल का इंतजार होता है आत्महत्या करने के लिए। 6 सालों बाद छत्तीसगढ़ में एक अच्छा अकाल पड रहा है। एक अच्छे अकाल का धनकुबेरों को भी इंतजार होता है मुनाफा पैदा करने के लिए !!
संजय पराते


