नई दिल्ली। सोशलिस्ट पार्टी ने अगड़ों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण (10 percent reservation on financial basis) में फर्जीवाड़ा पकड़ते हुए खुलासा किया है कि कैसे सरकार ने सदन में झूठ बोला। पार्टी अध्यक्ष डॉ. प्रेम सिंह ने विस्तारपूर्वक इस फर्जीवाड़े का खुलासा करते हुए बताया है कि सोशलिस्ट पार्टी इस संशोधन विधेयक का किस आधार पर विरोध करती है। आप ही पढ़ें सोशलिस्ट पार्टी का वक्तव्य -

लोकसभा सांसद श्री कोठा प्रभाकर रेड्डी Lok Sabha MP Shri Kotha Prabhakar Reddy ने 8 जनवरी 2019 को सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय (Ministry of Social Justice and Empowerment) में पहले से दर्ज प्रश्न (संख्या 4475) का उत्तर मांगते हुए मंत्री महोदय से पूछा : (अ) क्या सरकार अगड़ी जातियों के गरीब उम्मीदवारों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने पर विचार कर रही है; (ब) अगर हां, तो उसका विवरण दें, और अगर नहीं तो ऐसा न करने का कारण बताएं; (सी) क्या सरकार को महाराष्ट्र के मराठी, राजस्थान के राजपूत और उत्तर प्रदेश के ठाकुरों की ओर से उनके समुदाय के आर्थिक रूप से पिछड़े सदस्यों को आरक्षण देने की मांग प्राप्त हुई है; (डी) अगर ऐसा है तो उसका विवरण दें, और इस मामले में सरकार ने क्या कार्रवाई की है उसका विवरण दें?

सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय में राज्यमंत्री श्री कृष्णपाल गूजर ने प्रश्न के अ और ब हिस्से का जवाब देते हुए कहा : वर्तमान में ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है. प्रश्न सी और डी हिस्से के जवाब में उन्होंने कहा सरकार को ऐसा कोई प्रस्ताव प्राप्त नहीं हुआ है.

7 जनवरी 2019 को सामान्य कोटि के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को शिक्षा और नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण देने से संबंधित संविधान (124वां संशोधन) विधेयक 2019 को मंत्रिमंडल की स्वीकृति मिलती है. सत्र के अंतिम दिन 8 जनवरी को लोकसभा में और सत्र एक दिन आगे बढ़ा कर 9 जनवरी को राज्यसभा में यह 'ऐतिहासिक' संशोधन विधेयक पारित होकर कानून बनने की मंजिल के करीब बढ़ जाता है. लेकिन सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के राज्यमंत्री संसद में प्रश्न के उत्तर में 8 जनवरी को करीब 11 बजे उपरोक्त जानकारी देते हैं!

सोशलिस्ट पार्टी की नज़र में ये तथ्य बताते हैं कि मोदी सरकार को संसदीय प्रणाली, उसकी गरिमा और पवित्रता की ज़रा भी परवाह नहीं है. सरकार ने विधेयक को न नागरिक बहस में रखा और न ही सेलेक्ट कमिटी जैसी किसी संसदीय संस्था को भेजा. ज़ाहिर है, सरकार ने इस फैसले को पूरी तरह गुप्त रख कर 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने की मंशा से 'मास्टर स्ट्रोक' के रूप में घोषित किया है. सरकार के इस 'मास्टर स्ट्रोक' से वीपी सिंह द्वारा एक झटके में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के फैसले की याद आती है. वीपी सिंह ने अपने मेंटर देवीलाल को राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई में पटखनी देने के लिए वह 'मास्टर स्ट्रोक' लगाया था. लेकिन दोनों फैसलों में अंतर यह है कि मंडल आयोग की स्थापना संसद द्वारा की गई थी; और मंडल आयोग की सिफारिशें संविधान की सामाजिक न्याय की संकल्पना के अनुरूप थीं. मौजूदा सरकार का यह फैसला आरक्षण पर संविधान की मूल सरंचना और सामाजिक न्याय की संवैधानिक संकल्पना के बिलकुल उलट है, जहां आरक्षण की व्यवस्था इतिहास के लम्बे दौर में सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए की गई है.

सोशलिस्ट पार्टी की नज़र में मोदी सरकार का यह फैसला इस मायने में 'ऐतिहासिक' है कि अब भारत की राजनीतिक पार्टियां और सरकारें हमेशा के लिए अपनी नीतियां संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों (यानी समाजवादी व्यवस्था) के तहत देश से आर्थिक विषमता और जातिगत भेदभाव मिटा कर समतामूलक भारत बनाने के लक्ष्य से परिचालित नहीं होंगी. वे निगम पूंजीवाद के तहत मेहनतकशों की कीमत पर अमीरों का 'नया भारत' बनाने का लक्ष्य लेकर चलती रहेंगी. देश के गरीब निगम पूंजीवाद और राजनीतिक पार्टियों के संविधान-विरोधी गठजोड़ का विरोध न करें, इस नीयत से सरकार ने आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण का दांव फेंका है. दोनों सदनों में लगभग सभी विपक्षी पार्टियों ने विधेयक का समर्थन किया है. जिन कतिपय लोगों ने विरोध किया है, उनका सरोकार चुनावी राजनीति है. संविधान की मूल सरंचना को खंडित करने की सरकार की चेष्टा से उनका मौलिक विरोध नहीं है.

जो लोग राजनीतिक पार्टियों से बाहर इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, उनकी प्रामाणिकता की कसौटी है कि वे निगम पूंजीवाद का निर्णायक विरोध करते हैं या नहीं. वे यह सच्चाई समझने को तैयार हैं या नहीं कि ब्राह्मणवाद-मनुवाद पूरी तरह पूंजीवाद में अंतर्भूत हो चुके हैं. इस परिघटना के परिणामस्वरूप खुद सामाजिक न्यायवादियों का चिंतन और व्यवहार पूंजीवाद के साथ ब्राह्मणवाद-मनुवाद से नियंत्रित हो रहा है.

कुछ लोग यह मान कर आश्वस्त हैं कि इस फैसले से भाजपा को चुनाव में तत्काल फायदा नहीं मिलने जा रहा है, लिहाज़ा, इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है. ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि भाजपा तात्कालिक के साथ दूरगामी लक्ष्य लेकर भी चल रही है. जबकि सामाजिक न्याय और समाजवादी विचारधारा की बात करने वाली पार्टियों, नेताओं और नागरिक समाज एक्टिविस्टों के सामने अपनी सत्ता बचाने के तात्कालिक लक्ष्य के अलावा कोई दूरगामी लक्ष्य नहीं है.

सोशलिस्ट पार्टी की नज़र में भाजपा ने यह फैसला करके देश के राजनीतिक विमर्श को धर्म के अलावा जाति के साथ मजबूती से नत्थी कर दिया है और इस तरह देश को प्रतिक्रांति के गड्ढे में धकेल दिया है. स्वतंत्रता के 70 साल बाद नागरिकता-बोध का विकास न होकर उत्तरोत्तर विलोप हो रहा है. नए भारत में व्यक्ति की पहचान नागरिक के रूप में नहीं, धर्म-जाति के आधार पर तय हो रही है. भारत में इसे (संवैधानिक) राजनीति के अंत की घोषणा कहा जा सकता है.

सोशलिस्ट पार्टी इस संशोधन विधेयक का दो आधारों पर विरोध करती है : 1. यह संविधान निर्माताओं की आरक्षण की संकल्पना के विरुद्ध है; और 2. सरकार का यह फैसला नवउदारवादी नीतियों का रक्षा-कवच है, जिनके तहत शिक्षा का व्यावसायीकरण किया जा रहा है और रोजगार का खात्मा.

क्या यह ख़बर/ लेख आपको पसंद आया ? कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट भी करें और शेयर भी करें ताकि ज्यादा लोगों तक बात पहुंचे