कृष्ण प्रताप सिंह

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा कई बड़े सपनों के साथ 23 दिसम्बर, 1921 को पश्चिम बंगाल के शांति निकेतन में 'विश्वभारती' नाम से स्थापित और देश को श्रीमती इंदिरा गांधी, विनोदबिहारी मुखर्जी, कणिका बनर्जी, गायत्री देवी, सुचित्रा मित्र, सत्यजीत रे और अमर्त्य सेन जैसी नामचीन शख्सियतें देने वाले केन्द्रीय विश्वभारती विश्वविद्यालय को उसकी जिन अनेक विशिष्टताओं के लिए जाना जाता है, उनमें से एक यह भी है कि यह देश का इकलौता ऐसा केन्द्रीय विश्वविद्यालय है, भारत के प्रधानमंत्री जिसके पदेन कुलाधिपति हुआ करते हैं। दो साल पहले इन्हीं दिनों, जब श्रीमती स्मृति ईरानी केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री हुआ करती थीं, कथित प्रशासनिक अनियमितताओं को लेकर सी. सुशांतदत्त गुप्त को इस विश्वविद्यालय के कुलपति पद से हटाया गया तो वह भी किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रमुख को सरकार की तोपों के सामने किये जाने की अपनी तरह की पहली ही नजीर थी। तब स्वाभाविक ही उसे लेकर कई सवाल उठाये गये थे।

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अब, जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द द्वारा विश्वविद्यालय के नये कुलपति की नियुक्ति की पूर्व निर्धारित प्रक्रिया के तहत उन्हें भेजे गये तीन नामों के पैनल पर विचार कर कार्यकारी कुलपति स्वप्नकुमार दत्ता के नाम को मंजूरी दे देने के बावजूद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने दत्ता की नियुक्ति का आदेश जारी नहीं किया और बेहद अप्रत्याशित ढंग से न सिर्फ उनके नाम की सिफारिश वापस ले ली, बल्कि अनुमोदित पैनल को ही भंगकर राष्ट्रपति से पूरे मामले पर नये सिरे से विचार करने की अपेक्षा कर डाली है, तब भी कई नये और असुविधाजनक सवाल जन्म ले रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा यह है कि क्या नरेन्द्र मोदी सरकार के दौरान शुरू हुए संवैधानिक पदों व संस्थाओं की शक्तियों के क्षरण की आंच अब देश के शीर्ष राष्ट्रपति पद तक भी पहुंचने लग गई है?

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प्रसंगवश, राष्ट्रपति की शक्तियों के बारे में संविधान में स्पष्ट प्रावधान हैं। उनमें कहा गया है कि वे लोकसभा के प्रति जवाबदेह प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करेंगे। लेकिन इस मामले में उनके द्वारा मंत्रिमंडल की सलाह मानकर विधिवत दी गई मंजूरी का सम्मान होता भी नहीं दिख रहा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जिस तरह उनकी मंजूरी के बावजूद दत्ता की नियुक्ति से गुरेज कर उनके कार्यकारी कुलपति पद से सेवानिवृत्त होने का इंतजार किया, फिर राष्ट्रपति को पत्र लिखकर उनके नाम की सिफारिश वापस लेने की जानकारी दी और नये नामों पर विचार करने को कहा है, उससे कई प्रेक्षक यह निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को 'सलाहों' के बजाय 'निर्देश' देने लगा है, जो कहीं से भी शुभ या लोकतांत्रिक संकेत नहीं है। उल्टे यह 'एक व्यक्ति' की तानाशाही के उस अंदेशे को पुष्ट करता है, इधर बार-बार जताये जाने के बावजूद जिसकी अनसुनी की जाती रही है।

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तफसील में जायें तो विश्वभारती विवि के कुलपति पद पर नियुक्ति के लिए मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गये पैनल में विवि के कार्यकारी कुलपति स्वपन कुमार दत्ता के साथ इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडी के कृषि वैज्ञानिक पीएन मिश्रा और आईआईटी खड़गपुर के जियोफिजिक्स एंड जियोलॉजी विभाग के शंकर कुमार नाथ के नाम भी थे। राष्ट्रपति ने बाकी दो को छोड़ दत्ता के नाम पर मुहर लगा दी, तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अभूतपूर्व व आश्चर्यजनक रवैया अपना लिया। इसकी गम्भीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि यह पहली बार है, जब सरकार द्वारा किसी नियुक्ति की मंजूरी हासिल करने के बाद राष्ट्रपति से इस प्रकार पुनर्विचार करने के लिए कहा और उनके द्वारा अनुमोदित पैनल भंग कर दिया गया।

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गौरतलब यह कि सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है वह 'गलती' किस स्तर पर हुई है, जिसके चलते उसे ऐसा अभूतपूर्व कदम उठाना पड़ रहा है? कुलपति की नियुक्ति की प्रक्रिया के साथ ही इस पद की अभ्यर्थना करने वालों की न्यूनतम अर्हताएं व अन्य पात्रताएं पहले से निर्धारित हैं। आवेदकों में से तीन सर्वाधिक उपयुक्त नाम छांटने के लिए बनी समिति इन निर्धारणों को कतई शिथिल नहीं कर सकती। वह उनके दावों की परख करके उन्हें खारिज करने या आगे बढ़ाने भर का काम करती है।

फिर कहां और कौन-सा ऐसा अनर्थ हो गया कि राष्ट्रपति से दत्ता के नाम की मंजूरी रद्द करने को कहना लाजिमी हो गया? ये पंक्तियां लिखने तक न मानव संसाधन मंत्री को इस बाबत मुंह खोलने का अवकाश मिला है, न उनके उच्च शिक्षा से सम्बद्ध अधिकारियों को। राष्ट्रपति के प्रेस सचिव ने भी कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया है।

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इन सबकी चुप्पी से स्वाभाविक यह संदेह घना होता है कि मामले का एक सिरा उस बड़े खेल तक भी जाता है, जो इन दिनों ऐसी नियुक्तियों में आम है और जिसका उद्देश्य एक खास विचारधारा के 'अब तक उपेक्षित चले आ रहे’ वाहकों को उपकृत और अन्यों को तिरस्कृत कर उन्हें 'उनकी हैसियत' बताना है। क्या केन्द्रीय और क्या अन्य, सारे विश्वविद्यालयों, संस्थानों और यहां तक कि विधिक व संवैधानिक संस्थानों में भी यह खेल हो रहा है।

इसका एक उदाहरण पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में भी देखने में आया था। वहां राज्यपाल बलराम दास टंडन ने 23 मई को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक प्रो. सदानंद शाही को बिलासपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया तो भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने उनकी कथित नक्सल विचारधारा को लेकर कुत्सापूर्ण दुष्प्रचार का सुनियोजित अभियान आरंभ कर दिया। उन पर राम मंदिर को लेकर अवांछनीय टिप्पणी करने के आरोप तो लगाये ही गये, कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कुछ प्रभावशाली सज्जनों ने मामले को लेकर न सिर्फ राजभवन बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी दौड़ लगाई। उन्होंने न सिर्फ प्रो. शाही के अकादमिक कैरियर बल्कि खानपान व रहन-सहन को लेकर भी 'आपत्तियां' दर्ज कराईं।

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यह समझना कठिन नहीं है कि जो केन्द्र सरकार विश्वभारती के ऐसे ही मामले में राष्ट्रपति को निर्दिष्ट करने पर उतर सकती है, उसके लिए राज्यपाल को निर्दिष्ट करने में कोई कठिनाई क्योंकर आई होगी?

सो, हफ्ते भर बाद ही राज्यपाल ने 29 मई को एक शिकायत के बहाने पहले प्रो. शाही की नियुक्ति के अपने ही आदेश पर रोक लगाई, फिर 10 दिन बाद तीन सदस्यीय समिति गठित कर उनके खिलाफ जांच का आदेश भी दे दिया, जिसकी रिपोर्ट आने के बाद 19 जुलाई को प्रो. शाही की नियुक्ति एकदम से रद्द कर दी गई। इसके लिए सर्च कमेटी की कार्यप्रणाली तक को प्रश्नांकित करते हुए कह दिया गया कि प्रो. शाही कुलपति पद के लिए दस साल तक प्रोफेसर रहने की अनिवार्य अर्हता ही पूरी नहीं करते और उनकी नियुक्ति की सिफारिश में सर्च कमेटी ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के इस सम्बन्धी नियम-कायदों के अनुपालन का सम्यक ध्यान नहीं रखा।

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सवाल है कि ऊंचे पदों पर नियुक्तियों में सरकार का यह गर्हित व गैरजिम्मेदार रवैया हमें कहां ले जायेगा? इससे इन पदों पर नियुक्त होने वाले महानुभावों की प्रतिष्ठा बढ़ेगी या घटेगी? ये सवाल इसलिए भी लगातार बड़े हो रहे हैं क्योंकि जिद पर आमादा सरकार को न राष्ट्रपति को पाप-पंक में लथपथ करने से परहेज है और न विश्वभारती के शिक्षकों के उस गुट को उपकृत करने से, जो वैचारिक दुराग्रहों के चलते दत्ता को फूटी आंखों भी कुलपति पद पर आसीन होते नहीं देखना चाहता था।

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