आर्थिक उदारीकरण के 25 साल
आर्थिक उदारीकरण के 25 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसके अच्छे-बुरे प्रभावों को ठीक से समझने के लिए इतना वक्त काफी होता है। तात्कालिक लाभ के दूरगामी फायदे होंगे या नुकसान ? यह समझने का वक्त अब चुका है। सावधान करते कुछ पहलुओं की तरफ ध्यान आकर्षित कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अरुण तिवारी

आर्थिक उदारीकरण की समीक्षा जरूरी

मोदी सरकार के एक वर्ष पूरे होने पर, खासकर आर्थिक मोर्चे पर जगाई आशा का चहुं ओर आकलन हो रहा है। डॉलर के मुकाबले, रुपये के कमजोर होने पर मंहगाई बढ़ने की चिंता व्यक्त की जा रही है। कहा जा रहा है कि मोदी, वैश्विक निवेशकों में अपने प्रति विश्वास जगाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। निवेशक, निवेश के लिए भारत से ज्यादा चीन को मुफीद देश मान रहे हैं। किंतु चीन की आर्थिकी एक मुकाम पर पहुंचकर थम गई है। अतः चीन, अपने उत्पाद और उत्पादकों के लिए नया भूगोल ढूंढ रहा है। इसी नाते वह भारत में निवेश कर रहा है। चीन में उत्पादन ज्यादा है, मजदूरों की कमी है। संभव है कि आर्थिक उदारीकरण और खुला मन, आगे चलकर भारतीय मजदूरों को चीन में नौकरियों के अवसर दिलाये। चीन, रेलवे के मामले में दुनिया का नंबर एक है। हो सकता है कि इससे भारतीय रेल तंत्र को कुछ सीखने का अवसर मिले। जरूरी है कि हम ऐसे तमाम अवसरों और पहलुओं का आकलन करें। किंतु इससे भी ज्यादा जरूरी वैश्विक स्तर पर खुल चुकी आर्थिकी के भारतीय परिवेश पर असर का आकलन ही आगे की राह तय करें।
यह इसलिए भी सामयिक होगा, चूंकि वैश्विक आर्थिकी के लिए भारत के दरवाजों को खोले अब 25 वर्ष हो गये हैं। यूं भी किसी भी प्रयोग के लाभ-हानि के मंथन के लिए 25 वर्ष पर्याप्त होते हैं। बड़े पैकेज, निवेश, आउटसोर्सिंग के मौके, सेवा क्षेत्र का विस्तार, वैश्विक स्तर पर प्रतिद्वंदिता के कारण ग्राहक को फायदे जैसे गिनाये तात्कालिक लाभ से तो हम सभी परिचित हैं ही। जरूरी है कि दूरगामी लाभ-हानि के मोर्चे पर भी कुछ मंथन कर लें।

आर्थिक उदारीकरण के चाल चलन
विश्व व्यापार संगठन, विश्व इकोनॉमी फोरम, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि ऐसे कई संगठन, जिनके नाम के साथ ’विश्व’ अथवा ’अंतर्राष्ट्रीय’ लगा है, खुली अर्थव्यवस्था के हिमायती भी हैं और संचालक भी। यह बात हम सभी जानते हैं। किंतु बहुत संभव है कि आर्थिक उदारीकरण के चाल चलन से हम सभी परिचित न हों। इनसे परिचित होना हितकर भी है और अपनी अर्थव्यवस्था और आदतों को बचाने के लिए जरूरी भी।
गौर कीजिए कि ये अंतर्राष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुदेशीय कंपनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए लाभ के उदाहरण हैं, तो पर्यावरण के सत्यानाश के उदाहरण भी कई हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ’पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नये शिकार हैं। बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान हैं। उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ’कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है। अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाये स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अंतर्राष्ट्रीय संगठन ’आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयंत्र, दवाइयां और टीके ही बेचते हैं।
ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुस्खे इनके पास हैं। ये ’हैंड वाश डे’ के जरिए ’ब्रेन वाश’ का काम करते हैं। ये साधारण नमक को नकार कर, आयोडीन युक्त नमक को कुतर्क परोसते हैं। इस तरह तीन रुपये किलो नमक की जगह, 16 रुपये किलो में नमक का बाजार बनाते हैं। जबकि यह सिद्ध पाया गया कि तराई के इलाके छोड़ दें, तो भारत के अधिकतर इलाकों की परंपरागत खानपान सामग्रियों के जरिए जरूरत भर का आयोडीन शरीर में जाता ही है। आयोडाइ्ज्ड नमक खाने से इसकी अतिरिक्त मात्रा से लाभ के स्थान पर, नुकसान की बात ज्यादा कही जा रही है।
इसी तर्ज पर याद कीजिए कि करीब दो दशक पहले भारत में साधारण तेल की तुलना में, रिफांइड तेल से सेहत के अनगिनत फायदे गिनाये गये। डॉक्टर और कंपनियों से लेकर ग्राहकों तक ने इसके अनगिनत गुण गाये। हमारे कोल्हु पर ताला लगाने का कुचक्र इतना सफल हुआ कि हमारी गृहणियों ने भी शान से कहा - ’’कित्ता ही मंहगा हो; हमारे इनको रिफाइंड ही पंसद है।’’ इस पसंद ने हमारे कोल्हुओं को कम से कम शहरों में तो ताला लगवा ही दिया। रिफांइड को लेकर विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की रिपोर्ट को लेकर कुछ वर्ष पूर्व खुली आंखों से हम सब परिचित हैं ही। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के बाजार में बिक रहे रिफांइड तेलों में मानकों की पालना नहीं हो रही। लिए गये नमूनों में तेल को साफ करने में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायन, तय मानक से अधिक स्तर तक मौजूद पाये गये। ऐसे रसायनों को शारीरिक रसायन संतुलन को बिगाड़कर, शरीर को खतरनाक बीमारी का शिकार बनाने वाला शिकारी माना गया। दवा करते गये, मर्ज बढ़ता गया। यही हाल है। पिछले वर्षों एक अमेरिकी शोध आया - ’’ कोल्ड ब्रिज ऑयल से अच्छा कोई नहीं। ’कोल्ड ब्रिज ऑयल’ यानी ठंडी पद्धति से निकाला गया तेल। कोल्हु यही तो करता है। कोल्हु में तेल निकालते वक्त आपने पानी के छींटे मारते देखा होगा। यही वह तरीका है, जिसे अब अमेरिका के शोध भी सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं और हमारे डॉक्टर भी। इतना ही नहीं, हमारे कुरता-धोती और सलवार-साङी को पोंगा-पिछङा बताकर, दुनिया के देश, पुराने कपड़ों की बड़ी खेप हमारे जैसे मुल्क में खपा रहे हैं। यह हमारी संस्कृति पर भी हमला है और अर्थिकी पर भी।

नये आर्थिक केन्द्रों को डंप एरिया बनाने की साजिश
इसी तरह की उलटबांसी पर्यावरण के क्षेत्र में भी दिखाई दे रही है। पुनर्प्रयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रानिक, प्लास्टिक और दूसरा कचरा विदेशों से आज भारत आ रहा है। गौर कीजिए कि ये कचरा खासकर, एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों में भेजा जा रहा है। विश्व भूगोल के ये तीनों क्षेत्र, सशक्त होते नये आर्थिक केन्द्र हैं। दुनिया के परंपरागत आर्थिक शक्ति केन्द्रों को इनसे चुनौती मिलने की संभावना सबसे ज्यादा है। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिए अपनी कंपनियों को रोजगार दिलाने का यह खेल कई स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसके जरिये वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च बचा रहे हैं, सो अलग। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वर्ष 2015-16 की समिति ने विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अपने कचरे का डंप एरिया बनाये जाने पर आपत्ति जताई है और विधायी तथा प्रवर्तन तंत्र विकसित करने की भी सिफारिश की है। ई कचरा, इकट्ठा करने के अधिकृत केन्द्रों को पंजीकृत करने को कहा गया है। सिफारिश में ई कचरे को तोङकर पुनर्चक्रीकरण प्रक्रिया के जरिये, कचरे के वैज्ञानिक निपटान पर जोर दिया गया है।
सावधानियां जरूरी
यह बात ठीक है कि नई आर्थिक तरक्की वाले देशों में पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। खराब नीति और प्रदर्शन के लिए आंकड़ेबाजी और माप क्षमता में कमजोरी नीति, प्रदर्शन और प्रकृति पर खराब असर डाल सकती है। यह भी सही है कि हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतजाम किए बगैर शहरीकरण बढाते जाना खतरनाक है; बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ ही ले धकेल रही है ? गांव को गांव बना रहने देने का संयुक्त राष्ट्र संघ का एक कार्यक्रम हो तो बताइये। ऐसे में जरूरी है कि आर्थिक उदारीकरण के संचालकों की नीयत व हकीकत का विश्लेषण करते वक्त ’विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को अवश्य पढ़ें।
विश्व व्यापार संगठन समझौते का असर यह है कि एक तरफ गणेश, लक्ष्मी, दीपक से लेकर रोजमर्रा की जरूरत के तमाम चीनी सामानों ने भारत के कुटीर उद्योगों पर हमला बोल दिया है, दूसरी तरफ चीन भारत के नामी ब्रांड का अंतर्राष्ट्रीय बाजार तबाह करने में लगा है। अभी, गत् छह मई को राज्य सभा में सांसद राजीव शुक्ला ने बताया कि कोलकाता की एक गारमेंट कंपनी के उत्पाद के नाम, स्टीकर आदि का हुबहू नकली उत्पाद चीन में तैयार हो रहा है। इसमें चिंता की बात यह है कि असली कंपनी करीब 400 करोड़ रुपये का निर्यात कर रही है और चीन, उसी के नाम का नकली उत्पाद तैयार कर लगभग 900 करोड़ का निर्यात कर रहा है। कंपनी ने तमाम दूतावासों से लेकर भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय तक में शिकायत की। नतीजा अब तक सिफर ही है। क्या जरूरी नहीं कि हम डब्लयूटीओ समझौते की समीक्षा करें ?
कुल मिलाकर कहना यह है कि खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। अब सतत् सावधान रहने का वक्त है; सावधान हों। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और गलतियां भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ’हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमंत्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना ? स्वयंसेवी संगठनों को भी चाहिए कि सामाजिक/ प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जांच लें, तो बेहतर। ’गांधी जी का जंतर’ याद रख सकें, तो सर्वश्रेष्ठ।
अरुण तिवारी, लेखक प्रकृति एवम् लोकतांत्रिक मसलों से संबद्ध वरिष्ठ पत्रकार एवम् सामाजिक कार्यकर्ता हैं।