इक ओंकार सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैर
इक ओंकार सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैर
गुरु नानकदेव और उनकी विश्वदृष्टि
संत गुरु नाननदेव मेरे सबसे प्रिय संत-कवि हैं। उनकी रचनाएं और जीवनशैली देखने के बाद नए किस्म के व्यक्ति और नए किस्म के मूल्यबोध की सृष्टि होती है। नानक उन संतों में हैं जिसने गाना गाकर सब कुछ पा लिया। गाना इतनी तल्लीनता के साथ गाया कि गान ही जीवन का सर्वस्व बन गया। पूरे मन-प्राण से गाने से उनको जो मिला वह अपने आपमें बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए जो भी काम करें प्राण लगाकर करें तो सफलता जरुर मिलती है। प्राण लगाकर एक गीत गा दो सफलता मिलेगी। नाच लो सफलता मिलेगी, कक्षा पढाओ सफलता मिलेगी, भाषण दो तो लोग प्रशंसा करेंगे।
नानक की विश्वदृष्टि का मूलाधार है “जपुजी”,
आदि सचु जुगादि सचु
मंत्र:
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ निरवैर।
अकाल मूरित अजूनी सैभं गुरु प्रसाद।।
जपु:
आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी भी सचु।।
पउड़ी: 1
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।
भु.खया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।
हुकिम रजाई चलणा 'नानक' लिखिआ नालि।
अर्थात् -आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी भी सचु।।
'वह आदि में सत्य है, युगों के आरंभ में सत्य है, अभी सत्य है। नानक कहते हैं, वह सदा सत्य है।
भविष्य में भी सत्य है।'
'वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत-
मूर्त्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।'
एक है-इक ओंकार सतिनाम।
जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख
पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता।
हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं।
किसी भी बात को कहने के लिए कहानी में कहो तो बात बेहतर ढंग से संप्रेषित होती है, कहानी सच है और कहानी कल्पना भी है। कहानी हमेशा प्रतीक के बहाने संप्रेषित होती है। नानक की कहानी में भी प्रतीक का बड़ा महत्व है। जब भी कोई गहरी बात कहनी हो प्रतीक के माध्यम से कहो तो बेहतर ढ़ंग से संप्रेषित होगी।
प्रतीकात्मक कहानी यह है कि नानकदेव अपने मित्र मरदाना के साथ नदी किनारे बैठे हुए बातें कर रहे थे, अचानक उन्होंने अपने कपड़े उतारे और नदी में कूद गए। मरदाना ने काफी खोजबीन की लेकिन नानक का कोई पता नहीं चला। गांव लौटकर सब गांववालों को खबर दी कि नानक नदी में नहाने गए तो निकले ही नहीं। सारा गांव नदी किनारे एकत्रित हो गया।नानक की कहीं कोई खबर नहीं मिल रही थी, सब रो रहे थे,क्योंकि सारा गांव नानक को बहुत प्यार करता था।
तीन दिन बीत गए लोगों ने मान लिया कि नानक डूब गए या फिर किसी जानवर ने उनको खा लिया। सब यही सोच रहे थे कि वे अब नहीं लौटेंगे। लेकिन तीसरे दिन अचानक नानक प्रकट हुए। गांववालों की खुशी का ठिकाना न रहा।
प्रकट होने पर “जपुजी” नामक पहला अमृत वचन कहा।
कहने को यह कहानी बहुत छोटी है लेकिन बेहद मारक है।
इस कहानी के मर्म में प्रवेश करने की जरूरत है। यह कहानी इसलिए नहीं बता रहे हैं कि हम नानक के जरिए चमत्कार चर्चा करना चाहते हैं, बल्कि हम तो इसमें निहित संदेश को जानना चाहते हैं।
इसका पहला संदेश है कि जब तक तुम खो न जाओ, मिट न जाओ तुमको परमात्मा नहीं मिलता। तुम्हारा खो जाना ही उसको पाना है।
नानक को खो जाने में तीन दिन लगे, तीन दिन बाद परमात्मा को पाया।
अजीब संयोग है कि जब भी कोई आदमी मरता है तो उसके सूतक से मुक्त होने में तीन दिन लगते हैं। मृतक का तीसरा मनाते हैं। तीसरा इसलिए मनाते हैं क्योंकि मरने की घटना को घटित होने में तीन दिन लगते हैं।
कहने का आशय यह कि जब तुम किसी के सामने मरते हो तो सामने वाला ही परमात्मा होता है। नानक की भी यही दशा थी। मनुष्य के परमात्मा में लोप की पहली सीढ़ी है अहंकार का लोप। यह मनुष्यत्व को पाने की पहली सीढ़ी है।
सिक्ख वह है जो गृहस्थ भी है और सन्यासी भी है। सिक्ख वह है जो सीखने वाला है। सिक्ख का मतलब है गृहस्थ और सन्यासी का एक साथ होना। गृहस्थ होकर सन्यासी होना बड़ा टेढ़ा मामला है।लोग गृहस्थी से भागकर सन्यासी होते हैं। लेकिन नानक ने गृहस्थी से भागकर संत पद नहीं पाया,वे गृहस्थ रहकर सन्यासी बने।यानी रहना घर में लेकिन ऐसे रहना जैसे सन्यासी हो।यानी रहना घर में लेकिन ऐसे रहना जैसे नहीं रहते हो। हिमालय पर रहते हो। नानक ने सन्यासी की यह परिभाषा निर्मित की इसने समूचे भक्ति आंदोलन के चरित्र को प्रभावित किया। हमारे अनेक संत कवि सपरिवार रहते थे और संत थे। नानक इस संसार से भागने के शिक्षा नहीं देते बल्कि इस संसार से प्रेम करने की शिक्षा देते हैं।
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।
भुखिया भुख न उतररी जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।
हुकिम रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।
यह बड़ा कीमती, बहुमूल्य सूत्र है। यह नानक के नजरिए का सार है। भगवान सोचने से या चिन्तन से नहीं मिलता, चिन्तन करोगे तो भटक जाओगे। सवाल सोचने का नहीं है देखने का है। देखने के लिए निर्मल आँखें चाहिए। विचारों से भरी आँखों से देखोगे तो चीजें समझ में नहीं आएंगी।भगवान को सोचकर पाया नहीं जा सकता। भगवान के पक्ष में बनाए गए विचारों की यह सबसे गंभीर आलोचना है। हम बार-बार भगवान की सत्ता सिद्द करने के लिए विचारों की मदद लेते हैं जो कि गलत है। नानक की अकाट्य पद्धति थी जिसके जरिए वे विवेकवाद की ओर मुड़ते थे,एक नमूना देखें-
नानक एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान थे। नानक को क्या हिंदू क्या मुसलमान! जो ज्ञानी है, उसके लिए कोई सम्प्रदाय की सीमा नहीं। उस नवाब ने नानक को कहा कि अगर तुम सच ही कहते हो कि न कोई हिंदू न कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब ने कहा, यह भी कोई शर्त की बात हुई? हम पढ़ने ही जा रहे हैं।
पूरा गांव इकट्ठा हो गया। मुसलमान-हिंदू सब इकट्ठे हो गए। हिंदुओं में तहलका मच गया। नानक के घर के लोग भी पहुंच गए कि यह क्या कर रहे हो? लोगों को लगा कि नानक मुसलमान होने जा रहे हैं। लोग अपने भय से ही दूसरे के भय को भी तौलते हैं।
नानक मस्जिद गए। नमाज पढ़ी गई। नवाब बहुत नाराज हुआ। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखता था कि नानक न तो झुके, न नमाज पढ़ी। बस खड़े रहे। लोगों ने जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, लेकिन क्रोध में कहीं नमाज पूरी हो सकती है। किसी तरह नमाज पूरी करके लोग नानक पर टूट पड़े। और उन्होंने कहा कि तुम धोखेबाज हो। कैसे साधु, कैसे संत हो ! तुमने वचन दिया नमाज पढ़ने का लेकिन तुमने नमाज की नहीं।
नानक ने कहा, वचन दिया था, शर्त आप भूल गए। कहा था कि आप नमाज पढोगे तो मैं भी पढूँगा। आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता ?
नवाब ने कहा, क्या कह रहे हो? होश में तो हो ? इतने लोग गवाह हैं कि हम नमाज पढ़ रहे थे।
नानक ने कहा इनकी गवाही मैं नहीं मानता, क्योंकि मैं आपको देख रहा था कि भीतर क्या चल रहा है। आप काबुल में घोड़े खरीद रहे थे। नवाब थोड़ा हैरान हुआ; क्योंकि खरीद वह घोड़े ही रहा था। उसका सबसे अच्छा घोड़ा मर गया था उसी दिन सुबह। वह उसी की पीड़ा से भरा था। नमाज क्या खाक पढ़ता ! वह नमाज पढ़ते हुए मन में यही सोच रहा था कि जल्दी से काबुल जाऊँ और बढिया घोड़ा खरीदकर लाऊँ। क्योंकि वही घोड़ा उसी शान था, इज्जत था।
और नानक ने कहा कि यह जो मौलवी है तुम्हारा, जो नमाज पढ़वा रहा था, यह खेत में अपनी फसल काट रहा था। और यह बात सच थी।
मौलवी ने भी कहा कि बात तो सच है।फसल पक गयी है और काटने का दिन आ गया है। गांव में मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मन पर चिंता सवार है।
तो नानक ने कहा, अब तुम बोलो, तुमने नमाज पढ़ी जो मैं साथ दूँ ?
इस कहानी का आशय एकदम साफ है। तुम जबर्दस्ती नमाज पढ़ लो, पूजा-उपासना कर लो, इस सबका कोई मूल्य नहीं है। पहले सोचो तुम्हारे मन में क्या चल रहा है ? पत्थर की तरह मूर्ति के सामने बैठ जाने से ईश्वर या मन सधेगा ?


