कांग्रेस की बीमारी का इलाज कोई प्रशांत किशोर नहीं कर सकता
कांग्रेस की बीमारी का इलाज कोई प्रशांत किशोर नहीं कर सकता
कांग्रेस होने की दुविधा
राजेंद्र शर्मा
पिछले ही दिनों हुए विधानसभाई चुनावों के नतीजों में आम तौर पर मीडिया ने भाजपा के उछाल की जो कहानी खोजी है वह जितनी अतिरंजित है, इन नतीजों में देखी गयी कांग्रेस के पराभव की कहानी उतनी अतिरंजित नहीं है। अपने सारे दूरगामी नतीजों के बावजूद, असम में भाजपा का पहली बार सत्ता में पहुंचना, वह चाहे गठजोड़ के सहारे ही क्यों न हो, नरेंद्र मोदी की भाजपा की जितनी बड़ी कामयाबी है, विधानसभाई चुनावों के इस चक्र में कांग्रेस को लगा धक्का उससे कहीं बड़ा है। यह धक्का सिर्फ इन पांच राज्यों में से दो- असम तथा केरल- में कांग्रेस के हाथ से सरकार निकल जाने तक भी सीमित नहीं है, जिसकी चोट के दर्द को छोटे से केंद्र शासित प्रदेश, पोंडिचेरी में कांग्रेस की सरकार का बनना कुछ खास कम नहीं कर पाया है।
देश के नक्शे में कांग्रेस-शासित इलाके के सिकुड़ने और भाजपा-शासित इलाके के बढ़ने की तस्वीरें बेशक काफी नाटकीय नजर आती हैं क्योंकि अब कर्नाटक, देश का ऐसा इकलौता बड़ा राज्य रह गया है, जहां कांग्रेस की सरकार है। इसे छोड़कर कांग्रेसी शासन उत्तर में हिमाचल तथा उत्तराखंड और उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों तक ही सिमटकर रह गया है। सच तो यह है कि यह दायरा भी बहुत टिकाऊ नहीं है और वास्तव में मोदी के राज के दूसरे साल में ही भाजपा बिना चुनाव के ही पूर्वोत्तर के एक राज्य को ‘कांग्रेस-शासन मुक्त’ करा चुकी थी। हां! उत्तराखंड में उसके ऐसे ही खेल को खासतौर पर देश की उच्चतर न्यायपालिका के तत्पर हस्तक्षेप ने विफल कर दिया, जिससे अन्य राज्यों के मामले में ऐसे मंसूबों पर ठंडा पानी पड़ना स्वाभाविक है।
क्या है कांग्रेस की समस्या
What is the problem of the Congress
कांग्रेस की समस्या सिर्फ यह नहीं है कि जिस पार्टी का कभी देशभर में एकछत्र राज हुआ करता था, उसका शासन सिमटकर एक छोटे से कोने तक सीमित रह गया है। उसकी समस्या केंद्र और राज्यों में भी, सिर्फ चुनावी हार-जीत से बड़ी है। वास्तव में विधानसभाई चुनाव के हालिया चक्र ने साफ तौर पर दिखाया है कि ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की ओर बढ़ने के संघ-भाजपा के नारे की सारी अतिरंजना के बावजूद, देश की सबसे पुरानी पार्टी पिछले आम चुनाव में लगे जबर्दस्त धक्के से उबरना तो दूर रहा, इस लुढ़कन को रोकने तक में असमर्थ नजर आ रही है। चुनाव के इस चक्र में तमिलनाडु व प0 बंगाल में कांग्रेस की मामूली उपस्थिति में बहुत मामूली सुधार या पोंडिचेरी में उसकी कामयाबी और असम में उसके लोकसभा चुनाव के मुकाबले अपना मत प्रतिशत कुछ बढ़ा लेने से भी, इस तस्वीर में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। कांग्रेस अब भी कुल मिलाकर ढलान पर है और चाहे पहले के मुकाबले कम तेजी से सही, नीचे की ओर ही खिसक रही है।
स्वाभाविक रूप से चुनाव के ताजातरीन चक्र के बाद एक बार फिर, कांग्रेस की दशा-दिशा की चर्चाओं ने जोर पकड़ा है। कांग्रेस के अति-मुखर महासचिव, दिग्विजय सिंह ने पार्टी में ‘बड़ी सर्जरी’ की नाटकीय मांग तक कर डाली, हालांकि बाद में उन्हें यह स्पष्ट करना पड़ा कि उनकी मुराद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में काट-छांट से नहीं थी। इस बीच राहुल गांधी को बाकायदा पार्टी का नेतृत्व सौंपे जाने की अटकलें भी तेज हो गयी हैं। यहां तक कि एक और चक्र प्रियंका गांधी के राजनीति में लाए जाने की अटकलों का भी चल चुका है। दूसरी ओर अनेक मीडिया पंडितों ने अपना यह घिसा हुआ रिकार्ड फिर से बजा दिया है कि ‘गांधी-नेहरू परिवार’ का नेतृत्व के केंद्र में रहना ही कांग्रेस की दुर्दशा का मूल कारण है। जब तक कांग्रेस पार्टी ‘परिवार-मुक्त’ नहीं होगी, उसका कोई भविष्य नहीं है, आदि।
बेशक, किसी भी पार्टी की ‘परिवार केंद्रितता’ जनतांत्रिक मिजाज़ से मेल नहीं खाती है और राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र तथा बेहतर नेतृत्व के विकास को बाधित करती है। लेकिन, सिर्फ इसीलिए इसे कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी समस्या मानना अति-सरलीकरण होगा। यह सरलीकरण तब और भी भोंडा दिखाई देने लगता है, जब हम अपने देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में फल-फूल रही एक नेता या नेता-परिवार केंद्रितता के संदर्भ में इसे देखते हैं। जहां ‘एक पोस्ट, बाकी सब लैंप पोस्ट’ की संस्कृति राजनीतिक पार्टियों में आम हो और जहां कांग्रेस की ‘परिवार-केंद्रितता’ पर बढ़-चढ़कर हमले करने वाली सत्ताधारी पार्टी खुद बड़ी तेजी से ‘एक नेता केंद्रितता’ सीढ़ियां चढ़ रही हो, कांग्रेस के मूल रोग के ऐसे निदान को अति-सरलीकृत ही कहना पड़ेगा। वास्तव में यही बात राहुल गांधी की ‘अपनी नेतृत्व क्षमताओं-अक्षमताओं’ पर दिए जाने वाले फतवों के बारे में भी सच है।
कांग्रेस की असली समस्या और वास्तव में दुविधा, कुछ और ही है। नब्बे के दशक में नव-उदारवादी नीतियों के अपनाए जाने के बाद के दौर में, समग्रता में हमारी व्यवस्था इस अर्थ में दक्षिणपंथ की ओर ज्यादा से ज्यादा झुकती गयी है कि निजी मुनाफे की व्यवस्था उसके अस्तित्व का केंद्रीय तर्क बन गयी है। बेशक, इससे पहले भी निजी मुनाफे की रक्षा की चिंता स्वतंत्र भारत में बनी व्यवस्था के केंद्र में रही थी, फिर भी स्वतंत्रता आंदोलन के दबावों तथा उसकी विभिन्न विरासतों के चलते, जिनमें वामपंथी विचार की मजबूत उपस्थिति भी एक थी, कम से कम वैचारिक आग्रह के स्तर पर, ग्रामीण और शहरी मेहनतकशों का जीवन बेहतर बनता देखने की इच्छा, निजी मुनाफे की रक्षा की चिंता को अनुशासित करती थी। यही कल्याणकारी राज्य के दरिद्र भारतीय संस्करण का आधार था। अचरज नहीं कि साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में श्रीमती गांधी ने, रजवाड़ों के प्रीवीपर्सों की समाप्ति से लेकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा एक पुराने ट्रेड यूनियन नेता, वी वी गिरि को राष्ट्रपति पद का अपना उम्मीदवार बनाने तक का एक वामपंथी मंच गढ़कर ही, जनता का मन जीतकर खुद कांग्रेस में और कांग्रेस के बाहर के भी, अपने दक्षिणपंथी विरोधियों को करारी शिकस्त दी थी।
बहरहाल, जल्द ही यह सब बदलने लगा। राजीव गांधी के दौर में, स्वतंत्रता आंदोलन से निकले जनहित के आग्रहों से बरी होने का जो सिलसिला निकला, नरसिंह राव के दौर में उसे ‘मुक्त बाजार’ की बादशाहत तक पहुंचा दिया गया। उस समय भाजपा नेताओं ने उस पर अपनी नीतियां चुराने का जो आरोप लगाया था, इस अर्थ में सही था कि कांग्रेस सचमुच पहले के अपने रास्ते से बहुत दूर तक हट रही थी। उसके बाद से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। हां! इस सिलसिले से आम जनता के बाहर छूट जाने और उसके चुनावी खतरों को देखते हुए, सुधार के साथ ‘मानवीय चेहरे’ का विशेषण और जोड़ दिया गया। कांग्रेस कमोबेश इसी रास्ते पर चलती रही है, जिसका एक सबूत मनमोहन सिंह की बाजारवादी नीतियों के साथ, श्रीमती गांधी के नेतृत्ववाले परामर्श दल का कल्याणकारी चिंताओं को जोडऩे की कोशिश करना था। मानवीय चेहरे के विकल्प के तौर पर, दक्षिणपंथी राजनीति ने सांप्रदायिक तथा अन्य विभाजनों के जरिए, आम जनता को बांटकर, उसके बढ़ते असंतोष को संभालने का रास्ता दिखाया है। मोदी सरकार का यही रास्ता है।
कांग्रेस जब तक विकास की इस कल्पना से बंधी रहेगी, जो आम जनता को बाहर छोड़कर चलती है, वह भाजपा से तथा इसी नीतिगत सहमति से बंधी अन्य क्षेत्रीय पार्टियों से भी, अपने आधार को बचाने की हारती लड़ाई ही लड़ रही होगी। इस गड्ढे से निकलने के लिए तो उसे इंदिरा गांधी की तरह, एक बार फिर एक वामपंथी मंच का ही आविष्कार करना होगा और खुद को दूसरी पार्टियों की नवउदारवादी नीतियों से हटकर, जनहितकारी साबित करना होगा। दुर्भाग्य से कांग्रेस के सोनिया-राहुल नेतृत्व ने अब तक ऐसा करने में समर्थ होने या उसके लिए तत्पर होने के कोई सबूत नहीं दिए हैं। कांग्रेस की इस बीमारी का इलाज कोई प्रशांत किशोर नहीं कर सकता है।
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