किसान आंदोलन की आग से अगर खड़ी फसल जल जायेगी तो देश में भुखमरी की नौबत आ जाएगी
किसान आंदोलन की आग से अगर खड़ी फसल जल जायेगी तो देश में भुखमरी की नौबत आ जाएगी
घूमता हुआ आईना
Ghumta Hua Aaina | 26 June 2017 | Farmer Suicide | Darjeeling| Gorkhaland | Rajeev Ranjan Srivastava
राजीव रंजन श्रीवास्तव
एक ओर जहां हमारे अन्नदाता यानी किसान आंदोलनरत हैं, वहीं दूसरी ओर दार्जिलिंग अलग राज्य की मांग को लेकर जल रहा है।
आइए सबसे पहले आईने में किसान आंदोलन का अक्स देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि किसान क्यों खफा हैं और उनकी हताशा क्यों इतनी बढ़ गई है कि मौत को गले लगाने से भी परहेज नहीं कर रहे।
भारत मे किसानों की दशा सदियों से जस की तस बनी हुई है। लगातार बढ़ रही आबादी को भरपेट भोजन अगर मिल पाता है तो उसमें मेहनतकश किसानों का ही योगदान है। लेकिन उन्नत कृषि के नाम पर नित नए प्रयोग और बिगड़ते मौसम की मार ने किसानों को कर्ज के लिए मजबूर कर दिया है। रही-सही कसर बाजार की दबंगई ने पूरी कर दी है।
मुनाफाखोर बाजार ने किसानों की कमर तोड़कर रख दी है और कर्ज़ में डूबे किसान ऐसी हालत में आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB के आंकड़ों पर नज़र डालें तो 1995 से लेकर 2015 तक 3,22,028 किसानों ने खुदकुशी की है।
मतलब पिछले 20 वर्षों में प्रति वर्ष लगभग 16,102 किसानों ने मौत को गले लगाया। NCRB इन आंकड़ों के साथ यह भी बताता है कि यहाँ किसान से मतलब उन लोगो से है जो किसी भी रूप में खेती-किसानी से जुड़े हैं।
किसानों की बदहाली के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी सुनवाई चली आ रही है।
केंद्र सरकार की अपनी दलीलें हैं और वो 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का दावा करती है। लेकिन आने वाले पांच वर्षों में किसान क्या करेंगे यह बड़ा सवाल है। यही कारण है कि लाभकारी समर्थन मूल्य और फसल बीमा योजना को लेकर देश के किसान आंदोलनरत हैं।
मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों के ऊपर पुलिस की गोलियों ने आंदोलन की आग में घी का काम किया है।
किसान अब अपनी मांगों को लेकर देशभर में प्रदर्शन कर रहे हैं।
पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अच्छी फसल हुई है लेकिन उन्हें उचित समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा और गिरती कीमत अन्नदाताओं के उग्र होने की सबसे बड़ी वजह बनती जा रही है। इनमे एक कारण गेहूं और दालों के आयात को भी माना जा है।
ये फेरहिस्त लम्बी है। कुल मिलाकर किसानों की स्थिति जल्द से जल्द सुधारने की दिशा में सरकारों को ध्यान देना होगा वरना उनके आंदोलन की आग से अगर खड़ी फसल जल जायेगी तो इस देश में भुखमरी की नौबत आ सकती है .......
दार्जिलिंग में भी लगी है एक आग
जी हाँ, गोरखालैंड नामक अलग राज्य के गठन की वर्षों पुरानी मांग फिर से ताज़ा हो गयी है। गोरखालैंड जनमुक्ति मोर्चा यानी जीजेएम की मांग पर दार्जिलिंग में लगातार हिंसा और बवाल जारी है। सुरक्षाबलों के साथ हिंसा में 3 प्रदर्शनकारियों के मारे जाने के बाद दार्जिलिंग में प्रदर्शनों का दौर तेज हो गया है।
क्यों और कब उठी गोरखालैंड की मांग-
दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में गोरखालैंड की मांग सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है। इस मुद्दे पर बीते लगभग तीन दशकों से कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं। ताजा आंदोलन भी इसी की कड़ी है।
दार्जिलिंग इलाका किसी दौर में राजशाही डिवीजन (अब बांग्लादेश) में शामिल था। उसके बाद वर्ष 1912 में यह भागलपुर का हिस्सा बना। देश की आजादी के बाद वर्ष 1947 में इसका पश्चिम बंगाल मं विलय हो गया।
अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को एक ज्ञापन सौंप कर बंगाल से अलग होने की मांग उठायी थी। उसके बाद वर्ष 1955 में जिला मजदूर संघ के अध्यक्ष दौलत दास बोखिम ने राज्य पुनर्गठन समिति को एक ज्ञापन सौंप कर दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी और कूचबिहार को मिला कर एक अलग राज्य के गठन की मांग उठायी। अस्सी के दशक के शुरूआती दौर में वह आंदोलन दम तोड़ गया।
उसके बाद गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बैनर तले सुभाष घीसिंग ने अलग राज्य की मांग में हिंसक आंदोलन शुरू किया। वर्ष 1985 से 1988 के दौरान यह पहाड़ियां लगातार हिंसा की चपेट में रहीं। इस दौरान हुई हिंसा में कम से कम 13 सौ लोग मारे गए थे।
राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने सुभाष घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद का गठन किया था। घीसिंग वर्ष 2008 तक इसके अध्यक्ष रहे। लेकिन वर्ष 2007 से ही पहाड़ियों में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बैनर तले एक नई क्षेत्रीय ताकत का उदय होने लगा था। साल भर बाद विमल गुरुंग की अगुवाई में मोर्चा ने नए सिरे से अलग गोरखालैंड की मांग में आंदोलन शुरू कर दिया।
लेकिन अब मोर्चा ने नए सिरे से गोरखालैंड की मांग उठाने का फैसला क्यों किया है? इस पर विमल गुरुंग कहते हैं कि
"गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) को समझौते के मुताबिक विभाग नहीं सौंपे गए। पांच साल बीतने के बावजूद न तो पूरा अधिकार मिला और न ही पैसा। राज्य सरकार ने हमें खुल कर काम ही नहीं करने दिया। ऊपर से जबरन बांग्ला भाषा थोप दी।"
दरअसल, ममता बनर्जी की अगुवाई में पश्चिम बंगाल सरकार ने बांग्ला भाषा को 9वीं तक सभी स्कूलों के लिए अनिवार्य कर दिया था। जिसके बाद बंगाली लादे जाने के विरोध में गोरखालैंड के अर्ध-स्वायत्तशाषी इलाकों में हिंसा फैल गई।
देशबन्धु के समूह संपादक राजीव रंजन श्रीवास्तव का साप्ताहिक स्तंभ घूमता हुआ आईना


