खालिदा-हसीना गृहयुद्ध में फंसने से बचे नई भारत सरकार!
आपकी नज़र | स्तंभ | हस्तक्षेप अब नये नागरिकता कानून के तहत उर्दूभाषियों पर निशाना साधा गया तो हिंदू शरणार्थियों के मुकाबले पाक समर्थक बिहारी मुसलमानों की बंगाल, बिहार और असम में घुसपैठ व्यापक होने पर भारत के लिए भारी समस्या होगी

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अब नये नागरिकता कानून के तहत उर्दूभाषियों पर निशाना साधा गया तो हिंदू शरणार्थियों के मुकाबले पाक समर्थक बिहारी मुसलमानों की बंगाल, बिहार और असम में घुसपैठ व्यापक होने पर भारत के लिए भारी समस्या होगी...
पलाश विश्वास
भारत के पड़ोसियों से संबंध मधुर कभी नहीं रहे हैं। हिंदू राष्ट्र नेपाल से जैसे संबंध भारत के रहे हैं, वैसे अब नहीं है। तमिल समस्या की वजह से श्रीलंका के साथ तो कश्मीर विवाद के कारण पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध कब तक सामान्य होंगे, कोई कह नहीं सकता। लेकिन बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम में भारत की भूमिका के मद्देनजर भारत बांग्लादेश संबंध मधुर ही होने चाहिए थे। ऐसा नहीं है।
बाकी पड़ोसियों की तरह बांग्लादेश पर भी चीनी असर प्रबल है और हाल में जापान और चीन के साथ बांग्लादेश के बड़े आर्थिक समझौते हुए हैं।
गौरतलब है कि भारत के नये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण राजसूय में इस्लामाबाद से भागे भागे चले आये जनाब नवाज शरीफ, लेकिन शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी हसीना वाजेद तो क्यों चली गयीं।
न जातीं तो कैसे, बंगला देश के लिए सबसे बड़े दाता का नाम जापान है।
दूसरी ओर, भारत की नयी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बांग्लादेश सफर के दौरान वहां के अखबारों में बाकायदा हिसाब छप रहा है कि भारत के साथ पिछले 40 साल में स्वतंत्र बांग्लादेश की मैत्री के बदले उन्हें क्या मिला। भारत विरोधियों की मानें तो महज 62 करोड़।
इधर सबसे बड़ी समस्या मगर यह है कि क्षत्रपों के असर के कारण पड़ोसियों से राजनयिक संबंध भी सुधर नहीं रहे हैं।
तमिल राजनीति की बाध्यताओं के चलते दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तमिल भावनाओं में बहकर शीलंका के गृहयुद्ध का अवसान करना चाहा और झटपट वहां शांति सेना भेज दी।
श्रीलंका में शांति तो आ गयी, लेकिन तमिल शरणार्थियों की समस्या पैदा हो गयी अलग से। इस कवायद में भारत के तमिलनाडु में आत्मघाती बम धमाके से राजीव गांधी की मौत हो गयी।
इस तरह कश्मीर समस्या की वजह से भारत पाक समस्या सुलझ नहीं रही है, तो हम लोग पाकिस्तान की राजनीति पर सेना के वर्चस्व का हवाला देने के आदी हैं।
जम्मू कश्मीर में सत्ता संघर्ष हमारे हिसाब से बाहर है।
बांग्लादेश से हाल में संबंध सुधारने के मामले में सबसे बड़ी बाधा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खड़ी की है।
मातृभाषा साझा, संस्कृति भी साझा, तो ममता बनर्जी की भारत बांग्ला सेतु बतौर सबसे बड़ी भूमिका होनी चाहिए।
कामरेड ज्योति बसु ने पहल करके भारत बांग्ला जल बंटवारे समझौते को अंजाम देते रहे हैं। लेकिन ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के तत्काल बाद भारत बांग्ला राजनयिक संबंध बांग्लादेश की स्वादिष्ट मुर्दाघर की बर्फ में रखी जाने वाली मछली ईलिश जैसी हो गयी है।
दीदी ने सुषमा स्वराज को सलाह भी दी है कि वे कुछ करें या न करें, ढाका में ईलिश का स्वाद जरूर लें। सुषमा जी सात्विक सारस्वत ब्राह्मण हैं, ईलिश खाना उनके धर्म कर्म के मुताबिक है या नहीं हम नहीं जानते। लेकिन तीस्ता के पानी के प्रसंग में या विवादित गलियारों के छिटमहल समस्या सुलझाने में कोई पहल हो पायेगी, इसमें संदेह है। हालांकि इस पहल के लिए ममता दीदी से सहमति फोन पर लेकर गयी हैं सुषमा।
भारत बांग्ला सीमा पर घुसपैठ की क्या है असली वजह?
भारत बांग्ला सीमा से घुसपैठ की असली वजह अल्पसंख्यक उत्पीड़न है। अल्पसंख्यकों पर वहां लगातार जो अत्याचार होते रहे हैं, पूर्वी पाकिस्तान जमाने से, उस पर भारत ने कभी ध्यान हीं नहीं दिया है।
हाल में पाकिस्तान में भी अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के मामले में भारत खामोश रहा है। जबकि बाकी देशों में वहां असर करने वाले अल्पसंख्यक उत्पीड़न के मामले में तीखी प्रतिक्रिया होती रही है।
बांग्लादेश को ही लें, रोहिंगा मुसलमानों के खिलाफ उत्पीड़न के मामले में बांग्लादेश निरंतर मुखर है। दूसरी ओर, बांग्लादेश में जब भी राजनीतिक अस्थिरता और हिंसा का माहौल होता है तो हमेशा अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है और सीमा पर शरणार्थियों का सैलाब उमड़ पड़ा है। भारत विभाजन के बाद लगातार ऐसा होता रहा है।
इस प्रलयंकर समस्या को लेकर ने पाकिस्तान से भारत सरकार ने कोई ऐतराज जताया और न बांग्लादेश से। जबकि बांग्लादेश युद्ध में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि में वही शरणार्थी समस्या थी। नब्बे लाख शरणार्थी भारत आ गये थे तब।
इसी तर्क पर तब प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्व जनमत को भारत के पक्ष में कर लिया था। लेकिन इस सिलसिले में इंदिरा-मुजीब समझौते और भारत में नागरिकता संशोधन कानून पारित करने के अलावा कोई द्विपाक्षिक पहल अभी हुई नहीं है। अब तो बांग्लादेश में भी नागरिकता संशोधन विधेयक पास होने को है, जिससे भारी समस्या उठ खड़ी होगी।
यह समझना भूल है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक मात्र हिंदू हैं। वहां के जनसंख्या विन्यास में एक करोड़ से ज्यादा हिंदू हैं तो लगभग इतने ही उर्दू भाषी बिहारी मुसलमान हैं। चकमा बौद्ध आदिवासियों को चटगांव से निकाल बाहर करने के बाद भी भारी संख्या में बौद्ध भी बांग्लादेश में अब भी हैं। अल्पसंख्यक उत्पीड़न की वजह से सीमापर हिंदू शरणार्थी आने को मजबूर हैं तो राजनीति शरणार्थी भी बड़े पैमाने पर हैं। मसलन हसीना सत्ता से बेदखल हो गयीं तो जमायत- हिफाजत- खालिदा जमावड़ा के सत्तारूढ़ होने पर धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र प्रगतिशील राजनीति के हसीना समर्थकों का देश में रहना मुश्किल हो जायेगा।
बांग्लादेश में भी नागरिकता संशोधन कानून पास होने से भारत में बिहार यूपी और असम पर सबसे ज्यादा असर होने वाला है। एक करोड़ के करीब जो उर्दू भाषी मुसलमान हैं, उन्हें बांग्लादेश में बिहारी मुसलमान और रजाकार ही नहीं, पाकिस्तान समर्थक कहा जाता है। इस समुदाय के नेताओं के विरुद्ध ही युद्ध अपराध के तमाम मामले हैं।
विडंबना यह है कि अल्पसंख्यक हिंदुओं पर उत्पीड़न के मामले में भी यह रजाकर वाहिनी है। अब वजूद के लिहाज से भी समान तौर पर देश निकाले के अभ्यर्थी हिंदू अल्पसंख्यकों और बिहारी मुसलमानों का कोई साझा मंच असंभव है और बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता के परिदृश्य में इन दो समुदायों के गृहयुद्ध की आग में भारत भूमि का झुलसते रहना तय है।
बांग्लादेश की आजादी के बाद मुजीब ने खुद इन्हें पाकिस्तान भेजने की कोशिश की थी, लेकिन पाकिस्तान ने उनकी जिम्मेदारी लेने से साफ इंकार कर दिया था।
अब नये नागरिकता कानून के तहत उर्दूभाषियों पर निशाना साधा गया तो हिंदू शरणार्थियों के मुकाबले पाक समर्थक बिहारी मुसलामानों की बंगाल, बिहार और असम में घुसपैठ व्यापक होने पर भारत के लिए भारी समस्या होगी।
इसी बीच, मोदी के प्रधानमंत्रित्व से कट्टरपंथी गठबंधन की नेता बेगम खालिदा जिया और उनकी पार्टी जश्न मना रही हैं। अवामी लीग और कांग्रेस के मधुर संबंध इंदिरा मुजीब जमाने से हैं। इसके मद्देनजर खालिदा को उम्मीद है कि उन्हें मोदी का समर्थन मिलेगा। यह बेहद खतरनाक समीकरण है। इसमें फंस गये तो सीमा के आर-पार तबाही तय है।


