गरीबी की पहचान यानी गरीबी से मौत की सजा
गरीबी की पहचान यानी गरीबी से मौत की सजा
सचिन कुमार जैन
गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की पहचान का सर्वे शुरू हो रहा है. अब आपके पास आकर पूछा जाएगा कि आपके घर में कितने कमरे हैं|..कमरे का मतलब सुनिए| वह ढांचा जिसका आकार 2 मीटर लम्बा, डेढ़ मीटर चौड़ा और 2 मीटर ऊँचा हो| इस ढाँचे को कमरा माना जाएगा| यह सूचक गाँव के उन घरों को ध्यान में रख कर बनाया गया है जो एक ख़ास परिस्थिति में बनाए जाते हैं| पर क्या आपको नहीं लगता कि सरकार अपने मन की बात बोल रही है? नहीं समझे क्या! इस आकार की तो कब्र बनती है!
भारत सरकार के योजना आयोग का मानना है कि गाँव में गरीब वह है जो एक दिन में 15 रूपए से कम खर्च करता है| और शहर में रहने वाला व्यक्ति यदि एक दिन में 20 रूपए से ज्यादा खर्च करते है तो वह अमीर है!! इसे कहते हैं नीति के हथियार से कत्ले-आम! इस कत्ले - आम में लोग सड़क पर ही नहीं बल्कि घरों में, खेतों में, फुटपाथों पर, इबादतगाहों में, स्कूलों में||| यानी हर कहीं चुपचाप लोग मरते रहते हैं| मैं आपकों नहीं बताऊंगा, पर गुजारिश करूंगा कि जहाँ पर भी आप रहते हैं वहीँ जरा आप अपने घर पर एक डिब्बा बनाइये और 15 या 20 रूपए में आप बाज़ार से क्या ला सकते हैं, उसे लाकर उस डिब्बे में रख दीजिये, फिर अपने सामने रख कर जरा सोचिये| और ध्यान रखियेगा कि योजना आयोग के मुताबिक़ इस राशि में शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन के खर्चे भी शामिल हैं|
गरीब कितने हैं यह तो केंद्र सरकार ने तय कर दिया| फिर इसके बाद वे राज्य सरकार को बताते हैं कि आपके राज्य में कितने गरीब हैं, अब आप उन्हें पहचानने के लिए जनगणना या बीपीएल सर्वे करिए| जो लोग गरीब माने जायेंगे उन्हें सरकार की योजनाओं का लाभ मिलेगा| पिछली बार जब केंद्र सरकार ने बताया कि देश में 6.5 करोड़ परिवार गरीब हैं और राज्य सरकारें उन्हें पहचानने के लिए घर-घर गयी तो पता चला कि वास्तव में 6.5 नहीं बल्कि 11.5 करोड़ परिवारों को सरकारी मदद देने की जरूरत है| राज्य सरकारों के पक्ष को केंद्र सरकार ने कभी नहीं माना और केवल 6.5 करोड़ परिवारों के लिए ही सस्ते अनाज का आवंटन किया| नयी जनसँख्या के मान से 17 करोड़ परिवार गरीबी की रेखा के नीचे हैं पर राज्य सरकारों को महज सवा 8 करोड़ परिवार गरीब मानने के लिए विवश किया जा रहा है| इससे शेष परिवारों को सस्ता राशन जैसे कार्यक्रम चलाने के लिए राज्य सरकारों को अपने सीमित बजट संसाधनों में से बड़ी धनराशि खर्च करना पड़ेगी| यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो जनता उन्हें अपने गाँव की सीमा में घुसने नहीं देगी|
बात यहीं ख़त्म नहीं होती है| बीपीएल सर्वे के लिए जो मानक योजना आयोग और केंद्र सरकार ने तय किये हैं वे उतने ही खतरनाक हैं जितना कि आतंकवाद और संसाधनों की लूट का मामला| यदि किसान के पास क्रेडिट कार्ड है, यानी यदि उस पर क़र्ज़ है तो वह अमीर है, यह सरकार मानती है| गरीबी के नए सूचकों में जिसके पास मोटरसाइकिल है वह गरीब नहीं माना जाएगा| उन्हें चार पहिया वाहन के मालिक के बराबर माना गया है| जिसके घर में रेफ्रिजरेटर है वह भी गरीब नहीं है| जिनके पास मोबाईल या लैंड लाइन फ़ोन है वह भी गरीब नहीं है| जब जाति दर्ज करने की बात आई तो सरकार ने कहा है कि केवल उन्ही लोगों को दलित माना जाएगा, जो या तो हिन्दू हैं, सिख हैं, या बुद्धिस्ट हैं|…. पर जो मुसलमान या इसाई दलित हैं उन्हें दलित की श्रेणी में दर्ज नहीं किया जाएगा| गरीबों की पहचान के इस सर्वे में परिवार की परिभाषा है - एक ही चूल्हे या रसोई के अंतर्गत रहने वाले लोगों का समूह| इसमें पति-पत्नी, बच्चे, बहू, सास-ससुर, यदि कोई नौकर है तो वह भी और इसमें पेईंग गेस्ट भी शामिल है| इन सबको मिला कर एक परिवार माना जाएगा|
पिछले आधे दशक में अल्पसंख्यकों की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थिति पर सच्चर समिति पर खूब जूतम-पैजार होती रही, और यह साफ़ भी हुआ कि उनकी स्थिति खराब है| पर जिस मुद्दे पर राजनीति होती है, उस मुद्दे पर राजनैतिक अर्थनीति केन्द्रित नहीं होती है| बीपीएल के इस सर्वे में अल्पसंख्यकों की शामिल करना तो दूर, उन्हें बाहर रखने की व्यवस्था की गयी है| जैसे मुस्लिम दलित बुनकर इसमें शामिल नहीं हो पायेंगे| फिर छोटे व्यवसायी इससे बेदखल होंगे| यदि एक सब्जी बेचने वाला यदि पुरानी मोपेड लेकर सब्जी बेचने लगेगा तो ऐसी व्यवस्था की गयी है कि वह सूची से बाहर हो जाए| भूमिहीनता के सूचक के साथ खेल करने में योजनाकारों ने खूब दिमाग लगाया है| यदि कोई भूमिहीन शारीरिक श्रमिक का काम करता है तो ही गरीब होगा; यदि वह नाई या टेलर का काम करके गाँव में कुछ थोडा बहुत कमा रहा है तो उसके भूमिहीन होने के कोई मायने नहीं माने जायेंगे| सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी डा सक्सेना समिति ने सुझाव दिया था कि एकल महिला परिवार, महादलित परिवार, एड्स से ग्रसित लोगों को स्वतः गरीबी की रेखा में मान लेना चाहिए, पर इन सूचकों को बाहर करके, इन वंचित तबकों को भी बेदखल कर दिया गया|
उन बंधुआ मजदूर परिवारों को गरीब माना जाएगा जो कानूनी रूप से छुड़ा कर पुनर्वसित कराये गए हैं| आपको पता होगा कि पहले तो सरकार मानती ही नहीं है कि बंधुआ मजदूरी है, और जब बात उन्हें मुक्त कराने की आती है तब जरा नोट कीजिये कि पिछले 10 सालों महज़ 300 परिवार मध्यप्रदेश में इस श्रेणी में आयेंगे| कुछ बीमारियाँ गरीबी से जुड़ गयी हैं| तपेदिक, सिलिकोसिस ऐसे रोग हैं जो लोगों को गरीबी के चक्र में फंसाते हैं, पर इन्हें कहीं पर भी गरीबी का सूचक नहीं माना गया है|
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने वंचितपन के 7 सूचक तय किये हैं| | जैसे पहला सूचक - ऐसे परिवार जिनका घर एक कमरे का है जिसमे कच्ची दीवार और कच्ची छत है, दूसरा सूचक - जिनमे 16 से 59 वर्ष की उम्र के बीच का कोई वयस्क व्यक्ति नहीं है, तीसरा सूचक - ऐसे परिवार जिनकी मुखिया महिला है और 16 से 59 वर्ष की उम्र का पुरुष नहीं है, चौथा सूचक - जिनमे विकलांग सदस्य है परन्तु श्रम करने लायक वयस्क सदस्य नहीं है, पांचवा सूचक - दलित या आदिवासी परिवार है, चत्वा सूचक - जिसमे 25 वर्ष से ज्यादा उम्र का साक्षर सदस्य नहीं है, सातवां सूचक - ऐसे भूमिहीन जिनकी ज्यादातर आय शारीरिक श्रम मजदूरी से आती है| इन सूचकों में यह कहीं भी नहीं है कि उनकी आय कितनी है, वे भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर कितना खर्च कर पाते हैं, बदहाली के कारण पलायन करने वाले और विस्थापन के शिकार लोगों के इससे बाहर रखने की कोशिश की गयी है|
इस बार सबसे बड़ा सवाल यह था कि ऐसा सर्वेक्षण हो जिसमे सबसे कम बहिष्कार और गलतियाँ हों| पर अब साफ़ है कि सब कुछ गड़बड़ होने वाला है| इस मर्तबा कागज़ का फार्म नहीं होगा| हर सर्वेकर्ता को एक टेबलेट कम्पूटर दिया जाएगा, जिसका आकार मोबाइल फ़ोन से थोडा बड़ा होगा| और हर सर्वेकर्ता उसमे सीधी जानकारी दर्ज करेगा| एक नया उपकरण, तकनीकी मामला और सर्वे करने वाले हैं पटवारी, आशा कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कार्यकर्ता आदि| यह बेहद गंभीर मसला है कि जिन लोगों की गरीबी की बात हो रही है, उनसे न तो योजना आयोग कुछ पूछता है, न ही ग्रामीण विकास मंत्रालय| फिर अंकों और प्रतिशत में तय हो जाती है गरीबी की परिभाषा. एक घोटाले की पूरी रूपरेखा रच दी गयी है| सबकुछ तय हो गया है| और अंत में जब एक ऐसी सूची तैयार हो जायेगी जिसमे से आधे वो लोग बाहर होंगे, जो वास्तव में गरीब हैं| उस सूची को ग्राम सभा में रखा जाएगा| ग्राम सभा ही इसे सहमति देगी| उसे यह निर्णय लेने का अधिकार न होगा कि वह 100 लोगों के नाम उसमे जोड़ दे, क्यूंकि गरीबों की अंतिम संख्या तो योजना आयोग पहले ही तय कर चुका है| उसमे कोई ताकत बदलाव नहीं कर सकती है| इसके बाद जब सरकार के नुमाइंदे किसी मंच पर जायेंगे तो वहां व्याख्यान देंगे कि देखिये हमारे यहाँ गरीबी की रोखा की सूची को ग्राम सभा यानी गाँव की सभा अंतिम निर्णय लेती है| यह है लोकतंत्र, जहाँ लोक तंत्र के जाल में फंसा है| आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस पूरे मामले में राज्य सरकारों को अपनी बात कहने का कोई अधिकार ही नहीं है, जबकि इसके परिणाम उन्हें ही भुगतने पड़ते हैं| राजनीति का तो यही तकाजा यही है कि राज्य सरकारें इस मामले पर अपनी बात रखें और अडिग रहें, तो ही योजना आयोग और विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों का गठजोड़ तोडा जा सकता है|


