डॉ. अनिल मिश्र
चार-पांच दिन पहले मेरे एक रिश्तेदार ने देशज कहावत कोट करी। बोले, "वर मरै कि कन्या/बछिया त मिलिन जई।"
मैंने फ़ौरन कहा, देखिए! ये ब्राह्मणवादी सोच है। ये कॉमन सेन्स इंसानों के आगे ब्राह्मणों के गोरखधंधों को प्राथमिकता देती है। ये भला कोई बात हुई?"
फिर मुझे याद आया कि ब्राह्मण समुदाय में गाय कैसे सामाजिक वर्चस्व का साधन बन गई। गोदान एक तरह का वो अनुष्ठान था, जिससे ग़रीब ब्राह्मण भी सामाजिक पूँजी में हिस्सेदारी का बोध रखता था। वरना, खेती किसानी करने वाली सभी जातियां और समुदाय हर तरह के पशुओं का रख-रखाव करते हैं। और, सभ्यता के विकासक्रम में, इंसानी समाज ने पशुओं के साथ एक तरह का को-हैबिटेशन, साझा जीवन, विकसित कर लिया है।
मेरे नाना को कुत्ते नापसंद थे। एक बार हम बच्चे एक पिल्ला पकड़कर उसे पालने के लिए ले आये। उन्होंने हमें बेतरह डांटा। कुत्तों के प्रति उनकी नापसंदगी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब कभी नाती-नतिनियों को वे जीवन की कोई ज़रूरी सीख देते और उसे वे बेमतलब की सीख समझ, अनसुना करते तो निराशा और धीमे स्वर में वे कहते, "सारौ, तूँ पंचे कुकुरा के पूँछि आह'अ। कि जब तक ज़मीन मा गाड़े रहै तबै तक सीध रहब'अ।"
लेकिन गाय की पूजा उन्होंने कभी नहीं करी। उन्हें चाय की तलब होती तो नानी से कहते कि दूध न होय त गइया लगबाय ले। दूध दुहते हुए देखते तो कहते, "होइ ग दादू। सगला न निचोय ल। बछवौ क पेट भर पियै का रहय द'अ।"
गौ रक्षा के नाम पर जीते जी लोगों को मार डालने का जो मंज़र देखने को मिला, उससे नाना मुझे अनायास बहुत याद आये।
पिछले दिनों जयपुर के एक कार्यक्रम में हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार ने एक अहम सवाल पूछा था कि सन 47 के बाद लगभग हर शहर में गोशाला और गोचर के लिए ज़मीन दान में दी गई थीं। ज़रा देखिए कि वे ज़मीनें कहाँ ग़ायब हो गईं? आजकल किनके मकान, दूकान और फॉर्म हाउस बने हैं वहाँ?
फिर जयपुर के ही पास हिंगोनिया नामक गोशाला से तक़रीबन हज़ार गायों के मारे जाने की ख़बर राष्ट्रीय चर्चा का मुद्दा बनी। जबकि राजस्थान पत्रिका जैसे अख़बार ने तो नवंबर 2015 से इस गोशाला की दुर्दशा और गायों की मौत पर फ्रंट पेज़ ख़बरें छपी थीं। एनडीटीवी हिंदी के रविश कुमार और इस चैनल की जयपुर संवाददाता हर्षा कुमारी सिंह ऐसे पत्रकार हैं, जिन्होंने इस मसले पर विस्तार और गहनता से चर्चा और रिपोर्टिंग करी।
पंजाब से भी ख़बरें आईं कि गोरक्षा दल के आतंक से कारोबारी लोग कैसे दहशत में है।
गोरक्षा दल के सामाजिक स्वयंसेवी के दफ़्तरों में दीवार पर मोदी साहब की तस्वीर टंगी देखी।

फिर कल अपने मुल्क के प्रधानमंत्री का भाषण सुना। चैनलों की चालाक भाषा पैकेज़िंग के बावजूद उस भाषण का सारांश कुछ यूं था: हमसे इन मुद्दों पर जवाब न मांगिये। पंचायत, नगर-पालिका, नगर-निगम के अधिकारियों से भी कुछ कहिये। (ये बात आप ही क्यूँ नहीं कहे साहब?? आपकी बात लोग ज़्यादा सुनते हैं, आपके पास चैनल भी कई हैं, और आपके आमद भक्त उन चैनलों की “राष्ट्रवादी पत्रकारिता” को पत्थर की लकीर भी समझते हैं।)
गोरक्षा के नाम पर जो उत्पात, मार-काट, दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं उसमें मेरे संगठन का, मेरे ऑरिजनल ब्राह्मणवादी संगठन के बग़ल-बच्चा संगठनों का कोई लेना देना नहीं है। ऊ तो कुछ लफंगे, लुच्चे लोग हैं। बुंदेली बोली में कहें तो जे लोग रात के असामाजिक तत्त्व हैं। दिन के गोरक्षक। (दिन में असामाजिक नहीं हैं क्या? और अगर रात के हैं तो दिन में साफ़-शफ्फाक कैसे हो जाते हैं?? कोई काला जादू की तरक़ीब हो तो हमें भी सुझायें?)

प्रधानमन्त्री ने कहा कि इ सब देख-सुनकर उन्हें ग़ुस्सा भी आता है।
सच में प्रधानमंत्री जी?? आपका ग़ुस्सा वाकई एत्ता रेशमी और मुलायम होता है क्या?? 2002 में, आपकी नाक तले, जब हज़ारों अल्पसंख्यकों को क़त्ल किया गया था, तब आपके नैतिक ग़ुस्से का बयान मुझे कहीं नहीं पढ़ने को मिला। हाँ, बाजपेयी जी की आंखें ज़रूर नम थीं। तब, क्षोभ में, उन्होंने राजधर्म की भी याद दिलाई थी।
एक दिल अज़ीज़ दोस्त की कविता मुझे याद आई। जिसके भाव कुछ यूं थे कि पीछे चलने के लिए लौटना ही नहीं होता, बल्कि अपनी जगह पर ठहरना ही काफ़ी होता है।
आम चर्चा दलित अत्याचारों, सांस्थानिक जातिगत उत्पीड़न और रोज़ी-रोटी पे व्यवस्थागत हमलों की हो रही थी। और साहब ने इशारा "असामाजिक तत्वों" की तरफ़ कर दिया।