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अक्टूबर क्रांति : सौ बरस बाद

दुनिया की पहली समाजवादी क्रांति का शताब्दी वर्ष शुरू हो गया है।

निन्यानवे साल पहले आज ही के दिन और वास्तव में उस समय प्रचलित पुराने रूसी कलैंडर के अनुसार 25 अक्टूबर को, रूसी मजदूरों, सैनिकों तथा अन्य मेहनतकशों ने, पूंजी पर टिकी व्यवस्था के अंत और दुनिया के पहले समाजवादी राज्य की स्थापना का एलान किया था।

यह वही क्रांति थी जिसके युगपरिवर्तनकारी अर्थ को पहचान कर, रूस से हजारों मील दूर, गुलाम भारत में मुंशी प्रेमचंद ने 1918 में दयानारायण निगम को भेजे एक पत्र में लिखा था कि, ‘‘मैं करीब-करीब बोल्शेविस्ट उसूलों का कायल हो गया हूं।’’ बोल्शेविक यानी कम्युनिस्ट, इस क्रांति की अगुआई कर रहे थे।

और यह वही क्रांति है, जिसके शोषण, उत्पीड़न तथा वंचनाओं से मुक्त एक नया समाज बनाने के उद्यम को देख-जानकर, सिर्फ तेरह वर्ष बाद, 1930 में रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था :

‘‘अगर यहां नहीं आया होता तो मेरी जीवन यात्रा अधूरी रह जाती...जो पहली चीज मेरे दिमाग में आती है, यह कि क्या असाधारण साहस है...वे एक नयी दुनिया बनाने के लिए दृढ़ निश्चय हैं। उनके पास खोने के लिए जरा भी समय नहीं है क्योंकि सारी दुनिया उनके खिलाफ है...। अगर मैंने खुद अपनी आंखों से नहीं देखा होता तो मैं कभी इस पर भरोसा नहीं कर सकता था कि अज्ञान तथा अपमान के अंधेरे में डूबे लाखों लोग न सिर्फ साक्षर बन गए हैं बल्कि मनुष्य होने की गरिमा भी हासिल कर सके हैं। यहां वे दूसरी नस्लों के लिए भी उतनी ही मेहनत कर रहे हैं, जितनी अपने लिए...।’’

बेशक, यह पूछा जा सकता है कि क्या सौ साल पहले हुई उस क्रांति से निकले राज्य का, पिछली सदी के

अंतिम दशकों में अंत ही नहीं हो गया था?

समाजवादी राज्य का ही नहीं, क्या 1991 में एक देश के रूप में, उस क्रांति के फलस्वरूप सामने आए सोवियत संघ का ही अंत नहीं हो गया था?

और क्या इसके साथ ही पूर्वी योरप के समाजवादी शासनों के लुढ़कने के साथ जुड़कर, दुनिया से समाजवादी शिविर का ही अंत नहीं हो चुका है, जिसमें चीन समेत बचे हुए समाजवादी देशों का, पूंजीवादी दुनिया के साथ एडजस्ट करके चलना भी शामिल है। तब हमें सौ साल बाद उस समाजवादी क्रांति को क्यों याद रखना चाहिए, जिसे इतिहास खुद ही विफल साबित कर चुका है?

एक जापानी मूल के तुरंता दार्शनिक, फुकोयामा ने तो इस विफलता को इतिहास मात्र की विफलता बताते हुए, ‘‘इतिहास के अंत’’ का ही एलान कर दिया था।

यह दूसरी बात है कि इस एलान के पीछे से झांक रहे पूंजीवाद की अजर-अमरता के एलान की, पिछले दशक के अंतिम वर्षों से शुरू हुए विश्व पूंजीवादी संकट ने ऐसी दुर्गत बनायी है कि, फुकोयामा के सिद्धांत और भविष्यवाणी को भूलने में दुनिया को एक दशक भी नहीं लगा है।

            लेकिन, क्या वाकई इन सौ सालों में, 1917 की अक्टूबर क्रांति की विफलता साबित हो गयी है?
हर्गिज नहीं, बशर्ते हम मानवता के लिए इस क्रांति के अर्थ को, इसके नतीजे में स्थापित सोवियत राज्य तथा सोवियत संघ की नियति तक ही सीमित कर के नहीं देखें।

प्रेमचंद और टैगोर की जिन प्रतिक्रियाओं का हमने शुरू में उल्लेख किया, उनसे कम से कम इतना तो साफ है ही कि इस क्रांति का अर्थ सिर्फ एक देश के रूप में रूस या सोवियत संघ तक ही सीमित नहीं था।

सचाई यह है कि इस क्रांति का असली और मानवता के लिए सबसे बड़ा अर्थ इस विचार में निहित था कि एक ऐसा समाज वाकई बनाया जा सकता है, जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण से मुक्त हो और इसलिए, इंसानों के अपनी क्षमताओं का पूरा विकास करने के रास्ते खोलता हो।

शक, शोषण और वंचनाओं की बुराइयों के रूप में पहचान और उनसे मुक्त समाज की कल्पनाओं का इतिहास कहीं और पुराना है। लेकिन, अक्टूबर क्रांति का संदेश, इन कल्पनाओं के वास्तविकता में बदले जा सकने संदेश है। और इसी के हिस्से के तौर पर इसका संदेश है कि इन कल्पनाओं को, उस सर्वहारा के नेतृत्व में, जिसके पास मौजूदा व्यवस्था में खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है, मेहनतकशों का राज ही साकार कर सकता है।

इस ऐतिहासिक संभावना का एहसास अपने आम में मानव जाति के इतिहास के एक अगले चरण का, एक नये युग का द्योतक है। हम सभी जानते हैं और मानते हैं कि आधुनिक युग को, इससे पहले के युग से एक ही चीज अलग करती है- मनुष्य और उससे जुड़े लक्ष्यों का विचार के केंद्र में होना। उसी प्रकार, अलगाव व हर प्रकार के शोषण-उत्पीडऩ समेत, सभी प्रकार के बाहरी बंधनों से मुक्त मनुष्य, इस समाजवादी युग के केंद्र में है। और सिर्फ एक आदर्श के रूप में ही नहीं, एक ठोस सचाई के रूप में भी, इस युग के आगमन के रूप में मानवता की प्रगति को, इसे जमीन पर उतारने की किसी खास कोशिश की विफलता बदल नहीं सकती है। फिर चाहे वह कोशिश सोवियत राज्य की तरह, इस नये युग की शुरूआत करने वाली कोशिश ही क्यों न हो!

इसके अलावा यह भी नहीं भूलना चाहिए कि टैगोर ने अक्टूबर क्रांति के देश में तेरह साल बाद जो ‘‘एक नयी दुनिया बनाने के लिए दृढ़ निश्चय’’ देखा था, उसने अपने सात दशक से ज्यादा के जीवन में कोई मामूली चमत्कार नहीं किए थे।

सिर्फ आर्थिक पहलू से ही, 1913 से 1965 के बीच खुद प्रतिष्ठिïत अमरीकी अर्थशास्त्रियों के अनुसार, रूस/ सोवियत संघ ने दुनिया में सबसे ज्यादा वृद्धि दर दर्ज करायी थी, जापान से भी ज्यादा।
इस आर्थिक शक्ति ने ही और जाहिर है कि अपनी समाजवादी व्यवस्था की हिफाजत करने की राजनीतिक इच्छा की शक्ति के साथ जुड़कर, सोवियत संघ के लिए फासीवादी युद्घ मशीन का सामना करना और दो करोड़ से ज्यादा सैनिकों तथा नागरिकों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी, दुनिया की इस सबसे ताकतवर युद्घ मशीन को चकनाचूर करना संभव बनाया था, जबकि फ्रांस जैसे उन्नत पूंजीवादी देशों ने चंद हफ्तों में ही उसके सामने घुटने टेक दिए थे।

यह भी कोई साधारण बात नहीं है कि जो रूस, पहले विश्व युद्घ में एक साम्राज्यवादी ताकत के रूप में शामिल हुआ था, उसका उत्तराधिकारी सोवियत संघ दूसरे विश्व युद्घ के समय तक दुनिया भर में उपनिवेशों की मुक्ति का सबसे मजबूत सहारा बन चुका था।

इस शोषणमुक्त और बहुत हद तक अभावों से मुक्त समाज में, सिर्फ साक्षरता या सार्वभौम मताधिकार या महिलाओं तथा अन्य सभी वंचितों के लिए बराबरी ही नहीं आयी थी, संस्कृति से लेकर विज्ञान तक के क्षेत्रों में सर्जनात्मकता का जैसा विस्फोट हुआ था, अकल्पनीय था।

यही है जिसने क्रांति के समय तक योरप में सबसे पिछड़े माने जाने वाले सोवियत राज्य को, चार दशकों में ही अंतरिक्ष तथा नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्रों में दुनिया में सबसे आगे पहुंचा दिया था। सोवियत संघ के पराभव से इन संभावनाओं का प्रदर्शन निरर्थक नहीं हो जाता है।

तब तो और भी नहीं जब विश्व पूंजीवादी व्यवस्था, इस सदी के अपने सबसे गहरे और पिछली सदी के तीसरे दशक की महामंदी के बाद, सबसे लंबे संकट की गिरफ्त में है।

इस संकट की पृष्ठभूमि में आज सिर्फ लातीनी अमरीका या एशिया या अफ्रीका में ही नहीं, खुद योरप के अनेक देशों में कमखर्ची के नाम पर, मेहनतकशों के अधिकारों व लाभों पर हमलों के खिलाफ बड़ी-बड़ी हड़तालें तथा दूसरी कार्रवाइयां हो रही हैं।

इस क्रम में अनेक उन्नत योरपीय देशों में पहले से स्थापित राजनीतिक ताकतों के भी पांव उखड़ रहे हैं।
पुराना नारा है--‘जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफान रहेगा’। अक्टूबर क्रांति, धरती का वही तूफान है।

इस तूफान का रूप बेशक बदल सकता है, लेकिन चरित्र नहीं बदलने वाला है। यह तूफान आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना सौ साल पहले था।

यह तूफान तो धरती से भूख को, शोषण व असमानता के अन्याय को मिटाकर ही शांत होगा।
हां! अक्टूबर क्रांति हम सब से यह तय करने की मांग जरूर करती है कि हम किस की तरफ हैं--भूख की तरफ या उसे मिटाने वाले तूफान की तरफ। असमानता की तरफ या समानता की तरफ। पूंजीवाद की तरफ या समाजवाद की तरफ।

0 राजेंद्र शर्मा

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