लखनऊ से तौसीफ़ क़ुरैशी। मोदी की भाजपा (Modi's BJP) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) में 2019 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha elections in 2019) में अब इस बात को लेकर होड़ लगी है कि किसके साथ छोटे दल ज़्यादा आएं। भाजपा 2014 में जहाँ मोदी का साम्प्रदायिक जादू (communal magic of Modi), गुजरात का स्वयंभू विकास मॉडल (development model of Gujarat) व सबका साथ, सबका विकास का नारा लेकर और ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ चुनाव में गई थी, लेकिन अपने किसी भी वायदे पर सही और ठोस तरीक़े से काम नहीं कर पाने की वजह से मोदी सरकार के साथी दल भाग रहे हैं या यूँ कहें कि ऑंखें दिखा रहे हैं और मोदी की भाजपा रूठों को मनाने में लगी है कि कुछ भी किया जाए साथी दल भागने नहीं चाहिए। राजग (NDA) में शामिल दलों (Parties in NDA) से मोदी की भाजपा के रिश्ते बेहतर नहीं रहे, यही वजह है साथी दल राजग (NDA) से बाहर जाने को छटपटा रहे हैं। शिवसेना को मनाने में तो वो सफल हो गई है लेकिन अभी भी शिवसेना के तेवर मोदी सरकार के खिलाफ ही लग रहे हैं। संप्रग (UPA) भी लगातार इस कोशिश में लगा है कि संप्रग (UPA) का कुनबा बढ़ जाए। किसी हद तक माना जाए तो संप्रग (UPA) को इसमें सफलता भी मिल रही है, इसी लिए मोदी की भाजपा व उसके रणनीतिकार अमित शाह परेशान हैं कि क्या किया जाए जिससे सत्ता पर वापिस क़ब्ज़ा किया जा सके।

मोदी की भाजपा ने राजग (NDA) के तीन बड़े साथियों से गठबंधन को लगभग अंतिम रूप दे दिया है उनमें बिहार में जेडीयू, व रामविलास पासवान से, महाराष्ट्र में शिवसेना व तमिलनाडु में एआईएडीएमके के साथ सीटों की शेयरिंग कर ली है वहीं यूपी में उसके साथी अपना दल व सुहेलदेव समाज पार्टी के साथ उसकी बातचीत पूरी नहीं होने की वजह से फ़ाइनल नहीं हो पायी है।

यूपी में यह भी ख़बरें मिल रही हैं कि अपना दल व सुहेलदेव समाज पार्टी का तालमेल योगी सरकार से ठीक नहीं बैठ पा रहा है, इसकी वजह से दोनों या एक दल राजग (NDA) छोड़कर भाग सकता है।

सुहेलदेव समाज पार्टी तो बहुत पहले से योगी सरकार पर हमला करती आ रही है और अब अपना दल ने भी अपने तेवर कड़े कर लिए हैं, लेकिन सरकार के मुखिया योगी उन्हें कुछ कहने से डरते हैं। लोकसभा संग्राम की वजह से कुछ नहीं कहते परन्तु राजभर का आरोप है कि मैं बिना क़लम दवात का मंत्री हूँ उनके विभाग में मेरी नहीं चलती है तो ये हाल है।

राजग (NDA) के घटक दलों की बात की जाए तो अन्य प्रदेशों में आन्ध्र प्रदेश के चन्द्र बाबू नायडू राजग (NDA) का साथ छोड भाग ही गए हैं, जिसकी वजह से आन्ध्र और तेलंगाना में अकेले ही चुनावी मैदान में जाना पड़ेगा। वैसे तेलंगाना में के चन्द्रशेखर राव और मोदी की भाजपा में गुटरगूं होती रहती है, लेकिन वहाँ मुसलमान न छिटक जाए, इसका भय राव को सताता रहता है, इस लिए ये मिलन हो इसकी संभावना न के बराबर ही है। इससे यही लगता है कि यहाँ अपने ही दमपर चुनाव लड़ना पड़ेगा जहाँ से रिज़ल्ट ज़ीरो रहेगा।

केरल में सबरीमाला कराने के बाद भाजपा खुद को वहाँ मज़बूत मान रही है। वहाँ भी कोई नहीं है इस लिए वहाँ भी अकेले ही चुनावी मैदान में जाना पड़ेगा। ऐसा नहीं लगता यहाँ भी कुछ हो पाए।

उड़ीसा में भी कोई सहयोगी नहीं है, यहाँ भी अकेले ही लड़ना पड़ेगा।

हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान उत्तराखंड व दिल्ली यहाँ कांग्रेस से उसकी सीधी लडाई है। रही बात कश्मीर की तो वहाँ पहले भी उसके पास कोई नहीं है और न खुद ही सक्षम है। वो वहाँ सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी केन्द्र में सरकार होने की वजह से पीडीपी के साथ मिलकर बना ली थी जो साथ ज़्यादा दिन नहीं चला और सरकार गिर गई थी। तो वहाँ भी कुछ नहीं है।

हरियाणा में अकाली दल, त्रिपुरा में आईपीएफटी, पुडुचेरी में एआईएनआर कांग्रेस, गोवा में एमजीपी और जीएफपी, कर्नाटक में केपीजे, मणिपुर में एनपीएफ, एनपीपी व लोक जनशक्ति पार्टी, अरूणाचल प्रदेश में एनपीपी, असम में बीपीएफ जैसी पार्टियाँ सहयोगी हैं।

2014 में तीस दलों को लेकर राजग (NDA) चुनावी मैदान में गया था। इसी राजग (NDA) गठबंधन के सहयोगी शिवसेना ने 18 और टीडीपी ने 16 सीटें जीती थीं। तमिलनाडु में छह दल साथ थे। मगर सीट एक ही मिली थी। 2014 में डीएमडीके, पीएमके, एमडीएमके, केएमके, एमडीएमके, केएमडीके, एनजेपी, व आईजेके जैसे दलों की गोद में बैठकर चुनाव लड़ा था, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा था।

महाराष्ट्र में भी कई दलों को साथ लेकर 2014 का चुनाव लड़ा था, इसमें राजग (NDA) के साथ शिवसेना आरपीआई, स्वाभिमान पक्ष, राष्ट्रीय समाज पक्ष जैसे दल साथ थे, लेकिन अब वहाँ भी कई दल भागने को तैयार हैं। आरपीआई के नेता केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावले को कोई सीट न देने की वजह से बाहर जाने को मजबूर हैं।

जब बिहार में साथी दल भाग गए तो 2014 में दो सीट जीतने वाले नीतीश कुमार के सामने घुटने टेकने पड़े और बड़ा भाई माना जिसे बराबर सीट देनी पड़ी और जेडीयू को साथ ले लिया। अभी और जगह भी बातचीत की तिकड़म जारी है और कहते हैं कि विपक्ष हमारे खिलाफ गठबंधन कर रहा है। खुद गठबंधन करे तो ठीक, लेकिन जब विपक्ष गठबंधन करे तो ग़लत। ये क्या उचित है कि विपक्ष को गठबंधन करने पर टारगेट किया जाए। जब आप कर रहे हैं तो विपक्ष को क्यों और किस आधार पर ग़लत क़रार दे रहे हैं। राजग (NDA) के सहयोगियों की संख्या चालीस के पार है, ये बात अलग है उन दलों का उतना जनाधार नहीं है जितनी विपक्ष के गठबंधन वाले दलों का है, लेकिन नाम तो गठबंधन का ही होगा। यानी संप्रग (UPA) और राजग (NDA) में इस बात को लेकर जोर लग रहा है कि 2019 के लोकसभा संग्राम में किसके पास ज़्यादा और शक्तिशाली दल रहते हैं, क्योंकि 2019 का लोकसभा चुनाव इसी सख़्ती से जीता जाएगा।

अब यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा कि कौन ज़्यादा शक्तिशाली गठबंधन बनाने में कामयाब होता है। 2019 के चुनाव की जीत का सेहरा उसी गठबंधन के मुखिया के सर बंध जाएगा। यही राजनीति के जानकार मान रहे हैं। उनका तर्क है क्षेत्रीय क्षत्रप ही 2019 की दिशा तय करेंगे। राष्ट्रीय पार्टियाँ अपने दम पर यह लडाई जीतने में नाकाम हैं, इसलिए उनको साथ लेकर ही यह जीत हासिल की जा सकती है।

बस उसी पर ही काम हो रहा है। देखते हैं ये बाज़ी कौन मारता है, राजग (NDA) या संप्रग (UPA)। इसी पर राजनीतिक जानकार अपनी नज़रें गढ़ाए हुए हैं कि कौन सा दल मोदी और कौन सा दल राहुल के साथ रहेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में अभी ये तय होना बाक़ी है वैसे पूरी फ़िल्म तैयार है बस रिलीज़ होनी बाक़ी है।

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