यह देशद्रोहियों और देशप्रेमियों के बीच नहीं, यह देश और देशप्रेम की दो धारणाओं और विचारों के बीच बहस है
हर जगह साधारण आदमी मारा जा रहा है, वह सैनिक हो या नागरिक
आज़ाद वतन आज़ाद ज़ुबां -1
देश प्रेम के मायने
नई दिल्ली। बीती दिनांक 12 मार्च 2016 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में पांच साहित्यिक संगठनों – प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ और साहित्य संवाद - ने मिलकर ‘’देश प्रेम के मायने’’ विषय पर परिचर्चा की। यह ' आज़ाद वतन आज़ाद ज़ुबां' श्रृंखला की पहली कड़ी थी।
कार्यक्रम की शुरुआत में सांस्कृतिक संगठन ‘संगवारी’ के कपिल शर्मा ने पिछले दिनों पुलिसिया दमन पर अपने अनुभव को साझा किया। उन पर यह आरोप लगाया गया था कि वे नौजवानों को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दे रहे हैं। कपिल ने कहा कि हम गिटार बजाते हैं, ढपली बजते हैं और वे इसको ही हथियार बताते हैं। उनकी टीम ने हबीब जालिब की गज़ल भी सुनाई।
जन नाट्य मंच की टीम ने रोहित बेमुला के पत्र की रीडिंग पर्फार्मेंस ‘’दा लास्ट लेटर’’ नाम से की। यह रोहित के आख़िरी ख़त के साथ बंडारू दतात्रेय और स्मृति ईरानी के पत्रांशों और दलित उत्पीड़न पर केन्द्रित कविताओं को मिलाकर तैयार की गयी एक भावप्रवण प्रस्तुति थी, जिसमें मलयश्री हाशमी द्वारा कविताओं का पाठ ख़ास तौर से प्रभावशाली था। कवि मंगलेश डबराल ने ‘तानाशाह’ शीर्षक कविता पढ़ी।
आशुतोष कुमार ने इस श्रृंखला और कार्यक्रम की योजना के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इसकी सफलता तभी संभव है, जब इसको इन सेमिनार हालों से निकालकर जनता के बीच ले जाया जाय। आशुतोष का मानना है कि जो लोग हथियारों से, हिंसा से और दुष्प्रचार से बहस चला रहे हैं, चरित्र हनन कर रहे हैं, उन्हें बौद्धिक- वैचारिक बहस में खींचने की जरूरत है। यह देशद्रोहियों और देशप्रेमियों के बीच नहीं, यह देश और देशप्रेम की दो धारणाओं और विचारों के बीच बहस है। आर एस एस की राष्ट्र की कल्पना जड़, स्थिर और प्रगति विरोधी है। ऋग्वेग के पुरुष सूक्त के समय से ही उसके सारे नियम तय हैं। इसी सूक्त को वर्ण व्यवस्था का आधार समझा जाता है। वे इसमें बदलाव की हर कोशिश को देशद्रोह करार देते हैं। हमारी कल्पना में राष्ट्र एक निरन्तर विकासशील ईकाई है। सब के लिए हवा और रोशनी हो, हम ऐसा देश चाहते हैं। और हम हारेंगे नहीं।
विष्णु नागर, उमराव सिंह जाटव और हीरालाल राजस्थानी ने बीच-बीच में एक-एक कविता का पाठ किया। कार्यक्रम में प्रवीर पुरकायस्थ, विवेक कुमार, हेमलता माहिश्वर, नंदिनी सुंदर आदि ने विषय पर बात रखी।
प्रवीर पुरकायस्थ ने अपने वक्तव्य में जर्मनी से लेकर अमेरिका तक के राष्ट्रवाद को स्पष्ट किया। उन्होने बताया कि आरएसएस का राष्ट्रवाद यूरप में जन्मी फासिस्ट कल्पना को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा हैं। यह सैन्य-राष्ट्रवाद है जो कि आरएसएस के गणवेश से भी स्पष्ट है और टेक्नोलॉजी के युग के इस सैन्य-राष्ट्रवाद की विडम्बना देखिये कि यह निज़ाम अमेरिका से जो युद्धक विमान खरीदने के समझौते में लगा है, उन्हें किसी भी स्टेज पर अमेरिका द्वारा ऑफ या डीएक्टिवेट किया जा सकता है। आप ऐसी लडाइयां लड़ेंगे जिनकी कुंजी अमेरिका के हाथ में होगी। इसीलिए यहाँ की एयरफोर्स ऐसी ख़रीदारी का विरोध करती आयी है।

यह राष्ट्रवाद की नहीं, जातिवाद की लड़ाई है
प्रो॰ विवेक कुमार ने पिछले दिनों अपने ऊपर हुये हमले के अनुभव को साझा किया। उनके व्याख्यानों को कई जगह रोक दिया गया। उनका कहना है कि जो बीजेपी के लोग अंबेडकर पर अपना अधिकार जता रहे थे, आज वही अंबेडकर पर होने वाली संगोष्ठियों पर हमला कराते हैं। उन्होने वामपंथियों से भी अपनी कुछ शिकायतें दर्ज की। वाम भी दलित विचारकों के साथ भेदभाव करता नज़र आता है। पिछले कुछ सालों से संघ के लोग एजेंडा सेट कर रहे हैं, और हम उस पर बहस कर रहे हैं। यह राष्ट्रवाद की नहीं, जातिवाद की लड़ाई है।
नंदिनी सुंदर ने अपनी बात बस्तर से शुरू की। उनका कहना था कि राष्ट्रवाद के प्रश्न को पहले से तैयार उत्तरों तक सीमित कर दिया जा रहा है। इरोम शर्मिला का भी एक राष्ट्रवाद है। उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा रहा। वह अफस्पा से आज़ादी के लिए लड़ रही है। तो मणिपुर में ही कुछ लोग उससे अलग तरह से भी सोचते हैं। एक जवान जो मर रहा है उसका भी राष्ट्रवाद है। इन सब में एक कान्फिल्क्ट है। अंततः हर जगह साधारण आदमी मारा जा रहा है, वह सैनिक हो या नागरिक।
हेमलता माहिश्वर का कहना था कि देश के नागरिक ही देश को मुकम्मल शक्ल देते हैं। आजकल देशप्रेम झण्डा लगाने मे प्रदर्शित किया जा रहा है। क्यों नहीं उन जगहों पर जहां बच्चों को स्कूल तक जाने की सड़क नहीं, सड़क बनाई जाय। क्या यह देशप्रेम नहीं होगा! देशप्रेम शब्द में ही अंतर्विरोध है। देश में जिम्मेदारी की भावना होती है, जबकि प्रेम स्वच्छंद होता है।
पंकज श्रीवास्तव ने कहा कि ‘देशप्रेम के मायने’ पर बात करने मे खतरा है, लेकिन यह खतरा तो उठाना ही होगा। मुझे देशप्रेम के साथ अपने बचपन की याद आती है। उस समय देश से ज्यादा परदेश की बात होती थी। कोई कलकत्ता, कोई बंबई, कोई बंगलौर जाता था, तो कहा जाता था कि वह परदेश गया है। इसका मतलब यह कि एक देश के भीतर कई देश हैं। आज देश एक अमूर्त भावना हो गया है। टीवी चैनल भी देशप्रेम की परिभाषा दे रहे हैं। आज भी बहुत बड़ा हिस्सा है जो टीवी मे देखे हुए को सच मानता है। तो टीवी के माध्यम से जो भावनात्मक उबाल पैदा किया जा रहा है, उसका प्रतिवाद कैसे करें ? कार्पोरेट पूंजी सरकार के साथ नत्थी है। उम्मीद की किरण बस इतनी है कि लोग अभी भी एक दूसरे से संवाद रखना चाहते हैं।
कार्यक्रम के अंत मे अली जावेद ने हबीब ग़ालिब की एक ग़ज़ल सुनाई। कुछ बातें रखीं। संचालन संजीव कुमार ने किया। सवाल-जवाब में विवेक कुमार और अली जावेद ने सभागार से आए सवालों को एड्रेस किया। कार्यक्रम में लगभग डेढ़ सौ लोगों की उपस्थिति रही। इस आह्वान के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ कि 'आज़ाद वतन आज़ाद जुबां' को दिल्ली के रिहायशी इलाकों / बस्तियों में ले जाने के लिए लोग अपनी ओर से ठोस प्रस्ताव लेकर आयें, ताकि इसे सभागार-संस्कृति से बाहर आम जनता के बीच ले जाना संभव हो।

-प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ और साहित्य संवाद