तुम लाल सोते रह गए, शंकर से सोते रह गए, इतना न सोना बेटों बिस्तर क़ब्र हो जाए
तुम लाल सोते रह गए, शंकर से सोते रह गए, इतना न सोना बेटों बिस्तर क़ब्र हो जाए
नेताओं से सवाल कीजिये फेसबुक पर ! Ask the leaders on Facebook!
फेसबुक पर नेताओं से सवाल पूछने की तथा उनके 'जवाब' पाने की व्यवस्था की गई है। अब वे सभी जो अभी फेसबुक एकाउंट होल्डर हैं और दुनिया के किसी भी कोने में हैं उन खास नेताओं से सवाल पूछ सकते हैं जो इस सोशल नेट वर्किंग साइट के माध्यम से, आगामी 16 वीं लोक सभा के चुनावों के सन्दर्भ में अपने - राजनैतिक अजेंडे को पेश करने को तैयार हैं। अभी तक नरेद्र मोदी, अरविन्द केजरीवाल, ममता, लालू और अखिलेश यादव ने ही फेसबुक की 'पब्लिक पालिसी डायरेक्टर' < भारत एवं दक्षिण एसिया > आखी दास को इस मंच के माध्यम से जुड़ने की हामी भरी है। भविष्य में और भी नेता और पार्टियाँ इस मंच का इस्तेमाल करना चाहेंगे। फेसबुक की इस नई सर्विस- फेसबुक टॉक्स लाइव (Facebook Talk Live)- की शुरुआत के साथ फेसबुक के यूजर इन राजनीतिक हस्तियों से आसन्न चुनाव और तत्सम्बन्धी राजनैतिक एजेंडे पर सवाल -जवाब कर सकेंगे।
फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले सभी बन्दे आज से ही इस सोशल नेटवर्किंग साइट के एक विशेष पेज पर राजनेताओं के लिये अपने सवाल डाल सकते हैं। प्रतिष्ठित पत्रकार मधु त्रेहन इस स्तर की मेजबानी करेंगी। वे फेसबुक यूजर के सवालों को उपलब्ध नेताओं के समक्ष रखेंगी जिसे वेब साइट पर सीधा प्रस्तुत किया जायेगा।
सभी प्रबुद्ध जन इस अवसर पर कोशिश करें कि न केवल लोक कल्याण के, न केवल राष्ट्रीय निर्धनता के, न केवल शोषण के, न केवल आर्थिक उदारीकरण और विनाशकारी निजीकरण की नीतियों के, न केवल इन नेताओं के पाखण्डपूर्ण आचरण के, न केवल इन नेताओं के भ्रष्टचार की गटर गंगा में आकंठ डूबे होने के अपेक्षित सवाल करें अपितु कुछ सवाल जो वर्तमान व्यवस्था के नियामकों ने ही पैदा किये हैं वे भी पूछने की कृपा करें। ताकि आप सभी जागरूक भारतीय देशभक्तिपूर्ण कर्त्तव्यपालन और उचित उत्तरदायित्व का निर्वहन कर देश को इन सत्ता पिपासु पूँजीवादी नेताओं से बचाने का एक बेहतरीन किन्तु आंशिक प्रयास कर सकें।
केजरीवाल से पूछा जाये कि'आप' का फोर्ड फाउन्डेशन से क्या रिश्ता है ? वे 'आप' पर इतने मेहरबान क्यों हैं ? 'आप' को चंदे के देनदारों में कुछ खास किस्म के एनआरआई ही क्यों हैं ? 'आप' दिल्ली के मुख्यमंत्री होकर दिल्ली राज्य की सरकार चलाने में विफल होकर जब रणछोड़दास हो गये तो अब आइंदा 'आप' को भारत का प्रधानमंत्री क्यों बनाया जाये ? 'आप' अम्बानी को भ्रष्ट मानते हैं वो सही हो सकता है किन्तु देश में और कौन सा ऐसा पूँजीपति है जो ईमानदार का पूत है ? बिजली चोरी करने वाले यदि बिल न भरे तो 'आप' उसका बिल माफ़ करके क्या उन्हें मूर्ख साबित नहीं कर रहे जो ईमानदारी से समय पर बिल भरने को अपना कर्त्तव्य समझते हैं ? आप ने सोमनाथ भारती प्रकरण में, दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगवाने में, जनलोकपाल को विफल करवाने में जो उछलकूद की है, क्या वो अगम्भीर राजनीति नहीं है ? क्या वाकई आप शीला दीक्षित से बेहतर प्रशासनिक क्षमता रखते हैं ?
नरेद्र मोदी, लालू, ममता और तो खुद ही देश के लिये 'सवाल' हैं। उनसे कुछ भी पूछना याने उन्हें अनावश्यक महत्व देने जैसा है। प्रश्नकर्ता को अपनी ही बेइज्ज्ती कराना जैसा है। फिर भी देश के स्वनामधन्य प्रबुद्ध जनों और वास्तविक देशभक्त मीडिया <यदि वह कहीं है तो !> को चाहिए कि सब कुछ न तो भगवान् भरोसे छोड़े और न ही इन तथाकथित हाईटेक और मीडिया ललचाऊ -पूँजीवादी- दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक राजनैतिक दलों के शोषणकारी नेताओं के रहमो करम पर छोड़ें। जो प्रश्नकर्ता अण्णा हजारे जैसे निरे निरक्षर हैं और निरन्तर देश की राजनीति का सर्वस्व छोड़कर केवल भ्रष्टाचार विरोध की भंग में मस्त हैं और सवालों की जुगाली करते रहें हैं, वे अपने वैचारिक दिग्भ्रम से मुक्त होने के लिये चाहे तो निष्पक्ष होकर राष्ट्रहित में-समाज हित में न केवल नेताओं से बल्कि कुछ सवाल जनता से भी पूछने की हिमाकत कर सकते हैं।
वे सवाल कर सकते हैं कि क्या 'आप' के उदय उपरान्त दिल्ली राज्य का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य और ज्यादा कुरूप और भद्दा नहीं हो चला है ? क्या 'आप' का आचरण और शासन-प्रशासन, शीला दीक्षित सरकार- <काँग्रेस सरकार > के कार्यकाल से बेहतर साबित हुआ है ?
क्या दिल्ली राज्य की वर्तमान राजनैतिक नियति यही है कि राष्ट्रपति शासन लागू हो और यूपीए के नेता ही परोक्ष रूप से दिल्लीश्वर बने रहें ? क्या प्रकारान्तर से पुनः काँग्रेस का ही शासन स्थापित होने का इंतजाम नहीं हो गया है ? क्या 'आप' का और भाजपा का यूपीए के खिलाफ लगतार इतना सारा विष वमन- किसी क्रांतिकारी परिवर्तन का उद्घाटक सिद्ध हुआ है ?
क्या यह सम्भव नहीं है कि मई- 2014 के बाद आगामी 16 वीं लोक सभा के गठन उपरान्त शायद केन्द्र में भी ऐसा ही मंजर देखने को मिले ? क्या जनता को अपने जनाक्रोश के रूप में 'आप' जैसे अराजकतावादी और 'नमो' जैसे छद्म साम्प्रदायिक और ममता जैसे छद्म अधिनायकवादी विकल्प ही पसंद आने वाले हैं ? क्या सत्ता लोलुप पूँजीवादी दलालों को नहीं मालूम कि देश के जन-गण को पूरा- पूरा एहसास है कि वे अनायास ही भ्रष्टाचार उन्मूलन, जनलोकपाल बिल अवलम्बन, आर्थिक उदारीकरण और व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर, जाने-अनजाने ही घोर अवसरवादी - व्यक्तिवादी और खतरनाक फासिस्ट विचारधारा वाले दलों व उनके नेत्तव का आँख मीचकर समर्थन करने नहीं जा रहे हैं ? क्या केवल दुष्प्रचार और झूठ के सहारे राजनीति में अराजकता और अलोकतांत्रिकता को स्वीकार किया जा सकता है ?
क्या निरन्तर संविधान की अवमानना करने वालों को भी राष्ट्रनायक का दर्जा दिया जा सकता है ? क्या अपने विराट देश की महानतम धर्मनिरपेक्ष और सांस्कृतिक विरासत को ध्वस्त करने की चेष्टा करने वालों को भी जनादेश देना जायज है ? जो अंधाधुंध उदारीकरण और मुनाफाखोरों के लिये बाजारीकरण का मन्त्र जाप करते रहते हैं, जो कॉर्पोरेट कम्पनियों के मुरीद होकर कर देश की अव्यवस्था को अँधी सुरंग में धकेलते रहे हैं, जो नए कठमुल्ले भी अब आत्मघाती वादा कर रहे हैं कि "हम भी पूँजीवाद के विरोधी नहीं हैं" उन्हें सम्पूर्ण राष्ट्र की राज्य सत्ता सौपना उचित होगा ?
क्या नरेंद्र मोदी केजरीवाल, राहुल गांधी और अण्णा हजारे की नयी किन्तु 'घटिया पसंद' याने ममता बनर्जी ये सभी नेता अपनी कोई आर्थिक-सामाजिक या वैदेशिक नीति ऐसी रखते हैं जो डॉ. मनमोहनसिंह की आर्थिक नीति से पृथक या वैकल्पिक हो ? क्या ये सभी प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री देश की कॉर्पोरेट लॉबी से, अमेरिकी लाबी से और विश्व बैंक की साम्राज्यवादी लॉबी से संघर्ष करने का माद्दा रखते हैं ? यदि नहीं तो इन सभी को रिजेक्ट करने का साहस देश की जनता क्यों नहीं कर सकती ?
वर्तमान राजनैतिक घटनाक्रम से खास तौर पर दिल्ली राज्य में अभिनीत दो-तीन महीनों की राजनैतिक नृत्य नाटिका से यह तो स्पष्ट हो चला है कि आगामी लोक सभा चुनाव को ध्यान में रखकर ही काँग्रेस, भाजपा और 'आप' ने, न केवल दिल्ली राज्य की यह वर्तमान दुर्दशा सुनिश्चित की है, अपितु राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी वे मैदान मारने की फिराक में हैं। खास तौर से 'आप' ने तथाकथित नामी गिरामी हस्तियों, एनजीओ धारकों और चुनाव जिताऊ चेहरों की तेजी से तलाश शुरू कर दी है। वे आपा-धापी में उनको भी लोक सभा उम्मीदवार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जल्दी से जल्दी टिकट बाँटकर आगामी मई-2014 के लोक सभा चुनावों में अपनी ओर खींचने में लगे हैं जो राजनीति में तो कोरे हैं ही साथ ही नैतिक-चारित्रिक और अनुशाशन के मामले में भी बेहद कमजोर हैं। ये दिग्भ्रमित अराजक तत्व अपनी अधिक से अधिक राजनैतिक शक्ति का वर्चस्व स्थापित कर राष्ट्र सत्ता में स्थापित होने के लिये व्यग्र हो रहे हैं।
वैसे तो काँग्रेस, भाजपा और वाम मोर्चे सहित तीसरे मोर्चे ने अपने राजनैतिक सिलसिले को कभी भी विराम नहीं दिया किन्तु 'आप' ने तो ज़रा ज्यादा ही बंदरकूदनी मचा रखी है। उसने दिल्ली राज्य की राजनीति से आगे की राष्ट्रीय राजनीति की चालें चलना शुरू कर दिया है। यह सर्वविदित है कि वामपंथ को छोड़कर बाकी सभी दलों को वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के रहनुमाओं याने पूँजीपति वर्ग का आशीर्वाद, आश्रय और सहयोग प्राप्त है। 'आप' और उनके नेता केजरीवाल को अम्बानी से शिकायत या परेशानी केवल अवसरवादी ब्लैकमेल के अलावा कुछ नहीं है। अम्बानी समेत तमाम पूँजीपति वर्ग को चाहे काँग्रेस हो, भाजपा हो, या 'आप' हों, वे किसी को भी साधने में कामयाब हो जाते हैं। वे केवल कम्युनिस्टों अर्थात वामपंथियों को नहीं खरीद सकते। इसीलिये शोषणकारी ताकतों की चिर संगनी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था से भाजपा, काँग्रेस या 'आप' को भी कोई परहेज नहीं है। चूँकि ये तीनों ही पूँजीवादी विचारधारा के झंडावरदार हैं इसलिये इनमें से किसी के भी नेतृत्व में देश की मेहनतकश आवाम के हित हमेशा खतरे में ही रहेंगे क्योंकि मेहनतकश के खून-पसीने से विराट सम्पदा बटोरने वालों को इन सभी को साधना आता है।
जो इनसे पृथक् विचार या क्रान्तिकारी सिद्धान्त और सोच रखते हैं वे राष्ट्रीय क्षितिज पर बिखरे हुये हैं।
इन गैर भाजपा और गैर काँग्रेस दलों को एकजुट करना अर्थात् तराजू पर मेढक तौलने जैसा दुहतर कार्य है।
क्षेत्रीय दलों सहित तीसरे मोर्चे को बार-बार पुनर्जीवित करना केवल वाम मोर्चे ही प्रयास करता है बाकी सारे तो उछल-कूद कर, आपस में लड़-भिड़ कर 'एक से अनेक' हो जाने को आतुर रहते हैं। सिर्फ वामपंथ ही है जो अपनी बेहतर नीतियाँ, कार्यक्रम और संगठनात्मक क्षमता से सुसज्जित होकर सही अर्थों में व्यवस्था की है।
अतीत की भाँति इस बार भी तदनुसार एकजुटता और 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' के प्रयास शुरू हो गये हैं।
तीसरे मोर्चे की और विशेषतः वाम मोर्चे की यह शानदार विशेषता है कि वे भाजपा, काँग्रेस या 'आप' की तरह केवल चुनावी गठबंधन या सत्ता प्राप्ति के लिये एकजुट नहीं हो रहे बल्कि वर्तमान पुरोगामी नीतियों को पलटकर मानव हितैषी, सर्व समावेशी वैकल्पिक आर्थिक- सामाजिक और राजनैतिक 'दर्शन' का विकल्प प्रस्तुत करने की क्रांतिकारी सोच को विमर्श के केंद्र में रखते हैं।
देशी-विदेशी पूँजीपतियों, कॉर्पोरेट समूहों और विदेशी आवारा पूँजी के मालिकों की कोशिश यही रहती है कि बारी-बारी से केवल काँग्रेस या भाजपा ही देश पर काबिज रहें। चूँकि आर्थिक घोटालों और अंधाधुंध निजीकरण से देश में व्यवस्था परिवर्तन की माँग उठने लगी है इसलिये बहुत सम्भावना है कि काँग्रेस और भाजपा-दोनों को ही आगामी चुनावों में सत्ता नहीं मिलने वाली।
कॉर्पोरेट जगत और आवारा पूँजी ने काँग्रेस और भाजपा का पूँजीवादी विकल्प खुला रखा है जिसका नाम "आम आदमी पार्टी" है।
इसीलिये अभी तो सवाल ज्यादातर केजरीवाल से ही पूछे जा सकते हैं। वैसे भी शायद पूँजीवादी दलों में केजरीवाल ही हैं जो डॉ. मनमोहन सिंह के चेले बन सकते हैं। क्योंकि काम चलाऊ अर्थशास्त्र तो केजरी को मालूम ही होगा। नरेद्र मोदी, ममता, अखिलेश और लालू जैसे नेता तो माशा अल्लाह केवल अपने -अपने आकाओं के मुखौटे भर है।
अपने-अपने वर्ग-चरित्र के अनुसार सभी दल अपने-अपने अलायंस के साथ सीटों का तालमेल करने, 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम' तय करने के साथ ही अपने खुद के चुनावी अस्त्र-शस्त्र भी कार्यक्रम और नीतियों की शान पर चढ़ाकर धारदार बनाने में जुट गये हैं।
सवाल उठता है कि देश की जनता क्या चाहती है ?
सवाल यह भी उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि देश की निरक्षरता-जड़ता और मूल्यहीनता से आबद्ध आवाम का बहुमत ही नकारात्म्क और दिग्भ्रमित ही न हो ? यह सवाल इसलिये उठ सकता है कि जनता का अपना खुद का जनमत यदि दिल्ली राज्य वाला ही है तो शीला दीक्षित सरकार को हटाकर मिला क्या ? उपराज्यपाल नजीब जंग के बहाने दिल्ली की सत्ता पर तो काँग्रेस का शासन वापिस लौट आया। क्या यही जनादेश था ?
चूँकि जनमत बनाये जाने का दौर है, जनता को भरमाने का दौर है इसलिये प्रबुद्धजनों की जिमेदारी है कि निराला की पंक्तियाँ यादकर जा जाएँ :-
"तुम लाल सोते रह गये, शंकर से सोते रह गये, इतना न सोना बेटों विस्तर क़ब्र हो जाये"
श्रीराम तिवारी
श्रीराम तिवारी , लेखक जनवादी कवि और चिन्तक हैं. जनता के सवालों पर धारदार लेखन करते हैं।


