दमित सोच से उतना ही उपजा हुआ है जितना विकल्पहीनता और संवेदना के अतिरेक का परिणाम है दर्भा का हमला
दमित सोच से उतना ही उपजा हुआ है जितना विकल्पहीनता और संवेदना के अतिरेक का परिणाम है दर्भा का हमला
सही-गलत क्या होता है राजनीति में ?
– अभिषेक श्रीवास्तव
एक लोकतन्त्र के भीतर ‘देश की सोच’ जनता की सोच होती है और जिस देश-काल में यह घटना घटी है, वहाँ जनता की सोच को सत्ता की दुनाली ने पिछले कुछ बरसों में कुँद कर दिया है... तकनीकी रूप से इस घटना की निन्दा किये जाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये, लेकिन फिर यह ख्याल जरूर रखा जाना चाहिये कि ज़िन्दगी और मौत के बीच जो विरोधाभास स्पष्टतः नजर आ रहे हैं उन्हें कैसे बरता जाय। इन विरोधाभासों में साजिश खोजने के क्रम में एक बुनियादी बात और ध्यान में रखी जानी होगी कि बेहाल जनता जब मारती है तो कोई नियम-कायदा नहीं देखती। हम और आप सुरक्षित शहरों में बैठकर भले यह गुंताड़ा करते रहें कि इसे क्यों मारा और उसे क्यों छोड़ दिया, लेकिन जिन परिस्थितियों ने हजार से ज्यादा लोगों को एक साथ सशस्त्र हमला करने की स्थिति तक ला खड़ा किया है, वहाँ जमीनी स्तर पर हमारे पूर्वाग्रहग्रस्त सवाल और आशंकाएं बेमानी साबित हो जाती हैं...
इस बात को चार दशक से ज्यादा हो रहे हैं। घटना 1971 की है। लोकसभा के मध्यावधि चुनाव बीते ही थे और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में काँग्रेस पार्टी भारी बहुमत से केंद्र में आ चुकी थी। जैसा कि हर बड़े नेता की एक किचेन कैबिनेट हुआ करती है, श्रीमती गांधी की भी थी। इसी समूह के कुछ करीबी विश्वस्तों के साथ एक रात खाना खाते वक्त इंदिरा गांधी ने अपने ठीक सामने बैठे लोकसभा सांसद अमृत नाहटा पर औचक एक सवाल दागा था, ‘‘नाहटा जी, राजनीति में सही-गलत क्या होता है?’’ एक पल के लिये नाहटा सन्नाटे में आ गये थे, लेकिन जैसे-जैसे इस सत्संग में उनके दिन बीते, इस सवाल का मंतव्य उन्हें समझ में आता गया।
ये वही अमृत नाहटा हैं जिन्हें अचानक उस दौर में सियासी उलटबांसियों पर एक फ़िल्म बनाने का शौक चर्राया था। फिल्म बनी तो, लेकिन रिलीज कभी नहीं हो पायी क्योंकि फ़िल्म के मूल प्रिन्ट और निगेटिव आपातकाल में इंदिरा सरकार द्वारा जलवा दिये गये। सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चला, फ़िल्म के प्रिंट जलाने के दोषी संजय गांधी को कुछ दिनों की जेल हुयी जबकि उनके सह-आरोपी तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल गवाहों के मुकर जाने के चलते बच गये थे। ये सारी बातें फ़िल्म के ही नाम से लिखी गयी सवा रुपये की जेबी किताब ‘किस्सा कुर्सी का’ में खुद नाहटा ने बतायी हैं।
आज इंदिरा गांधी नहीं हैं, लेकिन उनका लगाया आपातकाल रोजमर्रा का अहसास बन चुका है आज संजय गांधी अपने कई संस्करणों में देश के हर गली-मोहल्ले में उछल-कूद मचाते देखे जा सकते हैं जबकि बुजुर्गवार शुक्ल दिल्ली के मेदांता अस्पताल में तीन गोलियां खाने के बाद मुसल्सिल रिस रहे खून को रोक पाने और बची-खुची सांसों को थाम लेने की जद्दोजेहद में जुटे हुये हैं। शुक्ल के अलावा 28 अन्य लोग अलग-अलग अस्पतालों में घायल पड़े हुये हैं जबकि दो दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत की खबर आ चुकी है। छत्तीसगढ़ में 25 मई को काँग्रेस के कापिफले पर हुआ नक्सली हमला अकेले मृतकों और घायलों की गिनती का सबब नहीं है। इतने लम्बे समय बाद एक बार फिर इंदिरा गांधी का सवाल सिर उठाये खड़ा है!
आखिर ऐसी क्या बात है कि जब-जब हमला इस तन्त्र की मुख्य धारा से जुड़े लोगों पर होता है, पब्लिक डोमेन में सही और गलत की विभाजक रेखायें खींची जाने लगती हैं। अचानक दो खेमे बँट जाते हैं और इंसाफ का विचार कहीं लुप्त हो जाता है। यही हुआ था जब सीआरपीएफ के जवान मारे गये थे। सही-गलत के पलड़े में 25 मई की घटना को तौलें तो शायद हम सच तक न पहुँच पायें क्यों कि हमेशा सही-गलत का सामाजिक पैमाना तय करना मुश्किल होता है। इसीलिये कभी-कभार ‘पर्सनल’ होना बुरा नहीं होता, खासकर तब जबकि इस हमले में मृत कम से कम एक शख्स बस्तर के कई परिवारों का लगातार पर्सनल’ मामला बताया जाता रहा है। महेंद्र कर्मा- जिसने सलवा जुडुम को पैदा किया और आदिवासियों के हाथों में बन्दूक थमाई। हम कर्मा के बारे में इतना ही जानते थे, जब तक कि 25 मई को सीपीआई (माओवादी) का आधिकारिक बयान नहीं आ गया और उन्होंने कर्मा के पूरे इतिहास का कच्चा-चिट्ठा सार्वजनिक नहीं कर दिया। नीचे दी हुयी कर्मा की कुंडली बाँचें और तय करें कि क्या सही है, क्या गलतः
"आदिवासी नेता कहलाने वाले महेंद्र कर्मा का ताल्लुक दरअसल एक सामन्ती माँझी परिवार से रहा। इसका दादा मासा कर्मा था और बाप बोड्डा माँझी था जो अपने समय में जनता के उत्पीड़क और विदेशी शासकों का गुर्गा रहा था। इसके दादा के जमाने में नवब्याहता लड़कियों को उसके घर पर भेजने का रिवाज रहा। इससे यह अँदाजा लगाया जा सकता है कि इसका खानदान कितना कुख्यात था... महेंद्र कर्मा ने बाहर के इलाकों से आकर बस्तर में डेरा जमाकर करोड़पति बने स्वार्थी शहरी व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करते हुये उस (आदिवासियों के) आन्दोलन का पुरजोर विरोध किया था... 1999 में ‘मालिक मकबूजा’ के नाम से चर्चित एक घोटाले में कर्मा का नाम आया था। 1992-96 के बीच उसने लगभग 56 गाँवों में फर्जीवाड़े आदिवासियों की जमीनों को सस्ते में खरीद कर, राजस्व व वन अधिकारियों से साठ-गाँठ कर उन जमीनों के अन्दर मौजूद बेशकीमती पेड़ों को कटवाया था। चोर व्यापारियों को लकड़ी बेचकर महेंद्र कर्मा ने करोड़ों रुपए कमा लिये थे, इस बात का खुलासा लोकायुक्त की रिपोर्ट से हुआ था। हालाँकि इस पर सीबीआई जाँच का आदेश भी हुआ था लेकिन सहज ही दोषियों को सजा नहीं हुयी... महेंद्र कर्मा को अविभाजित मध्य प्रदेश शासन में जेल मन्त्री और छत्तीसगढ़ के गठन के बाद उद्योग मन्त्री बनाया गया था। उस समय सरकार ने नगरनार में रोमेल्ट/ एनएमडीसी द्वारा प्रस्तावित इस्पात संयंत्र के निर्माण के लिये जबरिया जमीन अधिग्रहण किया था। स्थानीय जनता ने अपनी जमीनें देने से इनकार करते हुये आन्दोलन छेड़ दिया जबकि महेंद्र कर्मा ने जनविरोधी रवैया अपनाया था। तीखे दमन का प्रयोग कर, जनता के साथ मारपीट कर, फर्जी केसों में जेलों में कैद कर आखिर में जमीनें बलपूर्वक छीन ली गयीं जिसमें कर्मा की मुख्य भूमिका रही। क्रान्तिकारी आन्दोलन के खिलाफ 1990-91 में पहला जन जागरण अभियान चलाया गया था। इसमें संशोधनवादी भाकपा ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। इस प्रतिक्रान्तिकारी व जनविरोधी अभियान में कर्मा और उसके कई रिश्तेदारों ने, जो भूस्वामी थे, सक्रिय भाग लिया था। 1997-98 के दूसरे जन जागरण अभियान की महेंद्र कर्मा ने खुद अगुवाई की थी। उसके गृहग्राम पफरसपाल और उसके आसपास के गांवों में शुरू हुआ यह अभियान भैरमगढ़ और कुटरू इलाकों में भी पहुँच चुका था। सैकड़ों लोगों को पकड़ कर, मारपीट करके जेल भेज दिया गया था। लूटपाट और घरों में आग लगाने की घटनायें हुयीं। महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया... रमन सिंह और महेंद्र कर्मा के बीच कितना बढ़िया तालमेल रहा इसे समझने के लिये एक तथ्य काफी है कि मीडिया में कर्मा को रमन मन्त्रिमण्डल का ‘सोलहवाँ मन्त्री’ कहा जाने लगा था। सोयम मूका, रामभुवन कुशवाहा, अजय सिंह, विक्रम मण्डावी, गन्नू पटेल, मधुकर राव, गोटा चिन्ना, आदि महेंद्र कर्मा के करीबी और रिश्तेदार सलवा जुडुम के अहम नेता बनकर उभरे थे। साथ ही, उसके बेटे और अन्य करीबी रिश्तेदार सरपंच पद से लेकर जिला पंचायत तक के सभी स्थानीय पदों पर कब्जा करके गुण्डागर्दी वाली राजनीति करते हुये, सरकारी पैसों का बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करते हुये कॉपोर्रेट कम्पनियों और बड़े व्यापारियों का हित पोषण कर रहे हैं। और सलवा जुडुम ने बस्तर के जन जीवन में जो तबाही मचाई और जो क्रूरता बरती उसकी तुलना में इतिहास में बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। कुल एक हजार से ज्यादा लोगों की हत्या कर, 640 गाँवों को कब्रगाह में तब्दील कर, हजारों घरों को लूट कर, मुर्गों, बकरों, सुअरों आदि को खाकर और लूट कर, दो लाख से ज्यादा लोगोंको विस्थापित कर, 50 हजार से ज्यादा लोगों को बलपूर्वक ‘राहत’ शिविरों में घसीट कर सलवा जुडुम जनता के लिये अभिशाप बना था। सैकड़ों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। कई महिलाओं की बला


