दिल्ली वालों ने संडे को मोदी और भाजपा की आबरू का जनाज़ा ही निकाल दिया
दिल्ली वालों ने संडे को मोदी और भाजपा की आबरू का जनाज़ा ही निकाल दिया
मोदी दिल्ली में बोल गये और दिल्ली वाले नहीं आये!
विकास रैली की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट : दिल्ली, 29 सितंबर 2013
अभिषेक श्रीवास्तव
हाल ही में एक बुजुर्ग पत्रकार मित्र ने मशहूर शायर मीर की लखनऊ यात्रा पर एक किस्सा सुनाया था। हुआ यों कि मीर चारबाग स्टेशन पर उतरे, तो उन्हें पान की तलब लगी हुयी थी। वे एक ठीहे पर गये और बोले, "ज़रा एक पान लगाइयेगा।" पनवाड़ी ने उन्हें ऊपर से नीचे तक ग़ौर से देखा, फिर बोला, "हमारे यहाँ तो जूते लगाये जाते हैं हुज़ूर।"
दरअसल, यह बोलचाल की भाषा का फ़र्क था। लखनऊ में पान बनाया जाता है। लगाने और बनाने के इस फ़र्क को समझे बगैर दिल्ली से आया मीर जैसा अदीब भी गच्चा खा जाता है। ग़ालिब, जो इस फ़र्क को बखूबी समझते थे, बावजूद खुद दिल्ली में ही अपनी आबरू का सबब पूछते रहे। दिल्ली और दिल्ली के बाहर के पानी का यही फ़र्क है, जिसे समझे बग़ैर ग़यासुद्दीन तुग़लक से दिल्ली हमेशा के लिये दूर हो गयी। गर्ज़ ये, कि इतिहास के चलन को जाने-समझे बग़ैर दिल्ली में कदम रखना या दिल्ली से बाहर जाना, दोनों ही ख़तरनाक हो सकता है। क्या नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात कोई जाकर समझा सकता है? चौंकिए मत, समझाता हूँ...।
अगर आपने राजनीतिक जनसभाएं देखी हैं, तो ज़रा आज की संज्ञाओं का भारीपन तौलिये और मीडिया के जिमि जि़प कैमरों के दिखाये टीवी दृश्यों से मुक्त होकर ज़रा ठहर कर सोचिये : जगह दिल्ली, मौका राजधानी में विपक्षी पार्टी भाजपा की पहली चुनावी जनसभा और वक्ता इस देश के अगले प्रधानमन्त्री का इकलौता घोषित प्रत्याशी नरेंद्र मोदी। सब कुछ बड़ा-बड़ा। कटआउट तक सौ फुट ऊँचा। दावा भी पाँच लाख लोगों के आने का था। छोटे-छोटे शहरों में रैली होती है तो रात से ही कार्यकर्ता जमे रहते हैं और घोषित समय पर तो पहुँचने की सोचना ही मूर्खता होती है। मुख्य सड़कें जाम हो जाती हैं, प्रवेश द्वार पर धक्का-मुक्की तो आम बात होती है। दिल्ली में आज ऐसा कुछ नहीं हुआ। न कोई सड़क जाम, न ही कोई झड़प, न अव्यवस्था। क्या इसका श्रेय जापानी पार्क में मौजूद करीब तीन हज़ार दिल्ली पुलिस बल, हज़ार
एसआइएस निजी सिक्योरिटी और हज़ार के आसपास आरएएफ के बलों को दिया जाय, जिन्होंने कथित तौर पर पाँच लाख सुनने आने वालों को अनुशासित रखा? दो शून्य का फ़र्क बहुत होता है। अगर हम भाजपा कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों, मीडिया को अलग रख दें तो भी सौ श्रोताओं पर एक सुरक्षाबल का हिसाब पड़ता है। ज़ाहिर है, पाँच लाख की दाल में कुछ काला ज़रूर है।
आयोजन स्थल पर जो कोई भी सवेरे से मौजूद रहा होगा, वह इस काले को नंगी आँखों से देख सकता था। मोदी की जनसभा का घोषित समय 10 बजे सवेरे था, जबकि वक्ता की लोकप्रियता और रैली में अपेक्षित भीड़ को देखते हुये मैं सवेरे सवा सात बजे जापानी पार्क पहुँच चुका था। उस वक्त ईएसआई अस्पताल के बगल वाले रोहिणी थाने के बाहर पुलिसवालों की हाजि़री लग रही थी। सभी प्रवेश द्वार बन्द थे। न नेता थे, न कार्यकर्ता और न ही कोई जनता। रोहिणी पश्चिम मेट्रो स्टेशन वाली सड़क से पहले तक अंदाज़ा ही नहीं लगता था कि कुछ होने वाला है। अचानक मेट्रो स्टेशन वाली सड़क पर बैनर-पोस्टर एक लाइन से लगे दिखे, जिससे रात भर की तैयारी का अंदाज़ा हुआ। बहरहाल, आठ बजे के आसपास निजी सुरक्षा एजेंसी एसआइएस के करीब हज़ार जवान पहुँचे और उनकी हाजि़री हुयी। नौ बजे तक ट्रैक सूट पहने कुछ कार्यकर्ता आने शुरू हुये। गेट नंबर 11, जहाँ से मीडिया को प्रवेश करना था, वहाँ नौ बजे तक काफी पत्रकार पहुँच चुके थे। गेट नंबर 1 से 4 तक अभी बन्द ही थे। सबसे ज्यादा चहल-पहल मीडिया वाले प्रवेश द्वार पर ही थी। दिलचस्प यह था कि तीन स्तरों के सुरक्षा घेरे का प्रत्यक्ष दायित्व तो दिल्ली पुलिस के पास था, लेकिन कोई मामला फँसने पर उसे भाजपा के कार्यकर्ता को भेज दिया जा रहा था। तीसरे स्तर के सुरक्षा द्वार पर भी भाजपा की कार्यकर्त्री और एक स्थानीय नेतानुमा शख्स दिल्ली पुलिस को निर्देशित कर रहे थे।
यह अजीब था, लेकिन दिलचस्प। साढ़े नौ बजे पंडाल में बज रहे फिल्मी गीत "आरंभ है प्रचंड" (गुलाल) और "अब तो हमरी बारी रे" (चक्रव्यूह) अनुराग कश्यप व प्रकाश झा ब्रांड बॉलीवुड को उसका अक्स दिखा रहे थे। इसके बाद "महंगाई डायन" (पीपली लाइव) की बारी आयी और भाजपा के सांस्कृतिक पिंजड़े में आमिर खान की आत्मा तड़पने लगी।जनता हालाँकि यह सब सुनने के लिये नदारद थी। सिर्फ मीडिया के जिमी जि़प कैमरे हवा में टँगे घूम रहे थे। अचानक मिठाई और
नाश्ते के डिब्बे बँटने शुरू हुये। कुछ कार्यकर्ता मीडिया वालों का नाम-पता जाने किस काम से नोट कर रहे थे। फिर पौने दस बजे के करीब अचानक एक परिचित चेहरा दर्शक दीर्घा में दिखायी दिया। यह अधिवक्ता प्रशांत भूषण को चैंबर में घुसकर पीटने वाली भगत सिंह क्रांति सेना का सरदार नेता था। उसकी पूरी टीम ने कुछ ही देर में अपना प्रचार कार्य शुरू कर दिया। "नमो नम:" लिखी हुयी लाल रंग की टोपियाँ और टीशर्ट बाँटे जाने लगे। कुछ ताऊनुमा बूढ़े लोगों को केसरिया पगड़ी बाँधी जा रही थी। कुछ लड़के भाजपा का मफलर बाँट रहे थे। जनसभा के घोषित समय दस बजे के आसपास पण्डाल में भाजपा कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों और मीडिया की चहल-पहल बढ़ गयी। सारी कुर्सियाँ और दरी अब भी जनता की बाट जोह रही थीं और टीवी वाले जाने कौन सी जानकारी देने के लिये पीटीसी मारे जा रहे थे।
सवा दस बजे एक पत्रकार मित्र के माध्यम से सूचना आयी कि नरेंद्र मोदी 15 मिनट पहले फ्लाइट से दिल्ली के लिये चले हैं। यह पारम्परिक आईएसटी (इंडियन स्ट्रेचेबल टाइम) के अनुकूल था, लेकिन आम लोगों का अब तक रैली में नहीं पहुँचना कुछ सवाल खड़े कर रहा था। साढ़े दस बजे के आसपास माइक से एक महिला की आवाज़़ निकली। उसने सबका स्वागत किया और एक कवि को मंच पर बुलाया। "भारत माता की जय" के साथ कवि की बेढंगी कविता शुरू हुयी। फिर एक और कवि आया जिसने छंदबद्ध गाना शुरू किया। कराची और लाहौर को भारत में मिला लेने के आह्वान वाली पंक्तियों पर अपने पीछे लाइनें दुहराने की उसकी अपील नाकाम रही क्योंकि कार्यकर्ता अपने प्रचार कार्य में लगे थे और दुहराने वाली जनता अब भी नदारद थी।
पौने ग्यारह बजे की स्थिति यह थी कि आयोजन स्थल पर बमुश्किल दस से बारह हज़ार लोग मौजूद रहे होंगे। एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर ने (नाम लेने की
ज़रूरत नहीं) बताया कि कुल सात हज़ार के आसपास सुरक्षाबल (सरकारी और निजी), 500 के आसपास मीडिया, तीन हज़ार के आसपास कार्यकर्ता और स्वयंसेवक व छिटपुट और लोग होंगे। "लोग नहीं आये अब तक?", मैंने पूछा। वो मुस्कराकर बोला, "सरजी संडे है। हफ्ते भर नौकरी करने के बाद किसे पड़ी है। टीवी में देख रहे होंगे।" फिर उसने अपने दो सिपाहियों को चिल्लाकर कहा, "खा ले बिजेंदर, मैं तुम दोनों को भूखे नहीं मरने दूँगा।" ग्यारह बज चुके थे और पण्डाल के भीतर तकरीबन सारे मीडिया वाले और पुलिसकर्मी भाजपा के दिये नाश्ते के डिब्बों को साफ करने में जुटे थे। मंच से कवि की आवाज़ आ रही थी, "मोदी मोदी मोदी मोदी"। उसने 14 बार मोदी कहा। मंच के नीचे पेडेस्टल पंखों और विशाल साउण्ड सिस्टम के दिल दहलाने वाले मिश्रित शोर का शर्मनाक सन्नाटा पसरा था और हरी दरी के नीचे की दलदली ज़मीन कुछ और धसक चुकी थी।
कुछ देर बाद हम निराश होकर निकल लिये। मोदी सवा बारह के आसपास आये और दिल्ली में हो रही जोरदार बारिश के बीच एक बजे की लाइव घोषणा यह थी कि रैली में पाँच लाख लोग जुट चुके हैं। मोदी ने कहा कि ऐसी रिकॉर्ड रैली आज तक दिल्ली में नहीं हुयी। इस वक्त मोबाइल पर उनका लाइव भाषण देखते हुये हम बिना फँसे रिंग रोड पार कर चुके थे। पंजाबी बाग से रोहिणी के बीच रास्ते में गाजि़याबाद से रैली में आती बैनर, पोस्टर और झण्डा बाँधे कुल 13 बसें दिखीं। अधिकतर एक ही टूर और ट्रैवल्स की सफेद बसें थीं। निजी वाहनों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हरेक बस में औसतन 20-25 लोग थे। लाल बत्तियों पर लगी कतार को छोड़ दें तो पूरी रिंग रोड (जो हरियाणा को दिल्ली से जोड़ती है), रोहिणी से धौला कुआँ वाली रोड (गुड़गांव वाली), कुतुब से बदरपुर की ओर जाती सड़क (जो फरीदाबाद को दिल्ली से जोड़ती है) और बाद में उत्तर प्रदेश से दिल्ली को जोड़ने वाली आउटर रिंग रोड खाली पड़ी हुयी थी। और यह दिल्ली की बारिश में था जबकि जाम एक सामान्य दृश्य होता है।
रैली में आखिर लाखों लोग आये कहां से? क्या सिर्फ 26 मेट्रो से? बसों और निजी वाहनों से तो जाम लग जाता, जबकि ग़ाजि़याबाद से रोहिणी और वहाँ से वापस रिंग रोड, आउटर रिंग रोड व भीतर की पंजाबी बाग वाली रोड को कुल 125 किलोमीटर हमने पूरा नापा। ग़ाजि़याबाद का जि़क्र इसलिये विशेष तौर पर किया जाना चाहिए क्योंकि राजनाथ सिंह यहाँ से सांसद हैं और पिछले दो दिनों से बड़े पैमाने पर यहाँ रैली की तैयारियां चल रही थीं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि मोदी की जनसभा में जितने भी नेताओं के कटआउट आये थे, सब ग़ाजि़याबाद से आये थे जिन्हें एक ही कम्पनी "आज़ाद ऐड" ने बनाया था। सवेरे साढ़े आठ बजे तक ये कटआउट यहाँ ट्रकों में भरकर पहुँच चुके थे, हालाँकि ग़ाजि़याबाद से श्रोता नहीं आये थे। वापस पहुँचने पर इंदिरापुरम, ग़ाजि़याबाद के स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता टीवी पर मोदी का रिपीट भाषण सुनते मिले।
बहरहाल, मोदी जब बोल चुके थे तो भाजपा कार्यालय के एक प्रतिनिधि ने फोन पर बताया कि रैली में आने वालों की कुल संख्या 50,000 के आसपास थी। अगर हम इसे भी एकबारगी सही मान लें, तो याद होगा कि इतने ही लोगों की रैली पिछले साल फरवरी में दिल्ली में कुछ मजदूर संगठनों ने की थी और समूचा मीडिया यातायात व्यवस्था और जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाने की त्राहि-त्राहि मचाये हुये था। अजीब बात है कि बिना हेलमेट पहने और लाइसेंस के बतौर भारत का झण्डा उठाये दर्जनों बाइकधारी नौजवानों के आज सड़क पर होने के बावजूद कुछ भी अस्तव्यस्त नहीं हुआ, लाखों लोग रोहिणी जैसी सुदूर जगह पर आ भी गये और चुपचाप चले भी गये। यह नरेंद्रभाई मोदी की रैली में ही हो सकता है। उत्तराखंड की बाढ़ में फंसे गुजरातियों को जिस तरह उन्होंने एक झटके में वहाँ से निकाल लिया था, हो सकता है कि ऐसा ही कोई जादू चलाकर उन्होंने दिल्ली की विकास रैली में लाखों लोगों को पैदा कर दिया हो। ऐसे चमत्कार आँखों से दिखते कहाँ हैं, बस हो जाते हैं।
ऐसे चमत्कारों का हालाँकि खतरा बहुत होता है। उत्तराखंड वाले चमत्कार में ऐपको नाम की जनसंपर्क एजेंसी का भंडाफोड़ हो चुका है। दिल्ली में किस एजेंसी को भाजपा ने यह रैली आयोजित करने के लिये नियुक्त किया, यह नहीं पता। देर-सवेर पता चल ही जायेगा। मेरी चिंता हालांकि यह बिल्कुल नहीं है। मैं इस बात से चिंतित हूँ कि मोदी जैसा कद्दावर शख्स दिल्ली में बोल गया और दिल्लीवाले नहीं आये। वजह क्या है? कहीं तुग़लक जैसी कोई समस्या तो इसके पीछे नहीं छुपी है? मोदी दिल्लीवालों को न समझें न सही, क्या विजय गोयल आदि आयोजकों से भी कोई चूक हो गयी? ठीक है, कि टीवी चैनलों के हवा में लटकते पचास फुटा कैमरों ने टीवी देख रहे लोगों को काम भर का भरमाया होगा, जैसा कि उसने अन्ना हज़ारे की गिरफ्तारी के समय किया था। अन्ना से याद आया- वह भी तो रोहिणी जेल का ही मामला था जहाँ दो-चार हज़ार लोगों को कैमरों ने एकाध लाख में बदल दिया था। इत्तेफाक कहें या बदकिस्मती, कि रोहिणी में ही इतिहास ने खुद को दुहराया है। मोदी चाहें तो किसी ज्योतिषी से रोहिणी पर शौक़ से शोध करवा सकते हैं। वैसे रोहिणी तो एक बहाना है, असल मामला दिल्ली के मिजाज़ का है जिसे भाजपा (प्रवृत्ति और विचार के स्तर पर इसे अन्ना आंदोलन भी पढ़ सकते हैं) समझ नहीं सकी है।
भाजपा और संघ के पैरोकार वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने आज तक एक ही बात ऐसी लिखी है जो याद रखने योग्य है। उन्होंने कभी लिखा था कि इस देश का दक्षिणपंथ जनता की चेतना से बहुत पीछे की भाषा बोलता है और इस देश का वामपंथ जनता की चेतना से बहुत आगे की भाषा बोलता है। इसीलिये इस देश में दोनों नाकाम हैं। कहीं मोदी समेत भाजपा की दिक्कत यही तो नहीं? कहीं वे भी तो शायर मीर की तरह "लगाने" और "बनाने" का फर्क नहीं समझते? मुझे वास्तव में लगने लगा है कि किसी को जाकर नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात गंभीरता से समझानी चाहिए कि 29 सितंबर, 2013 को दिल्ली के जापानी पार्क में उनकी "बनी" नहीं, "लग" गयी है। ग़ालिब तो शेर कह के निकल लिये, इस "भारत मां के शेर" का संकट उनसे कहीं बड़ा है। दिल्लीवालों ने आज संडे को टीवी देखकर मोदी और भाजपा की आबरू का सरे दिल्ली में जनाज़ा ही निकाल दिया है।


