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नोट बदलने का खेल एक शुद्ध राजनैतिक छलावा !

 काला धन, काला धन, काला धन।.. ये संकल्पना ही सिरे से गलत है।

दरअसल राजनैतिक पैतरे बाज़ी का यही कमाल है और बाबू किस्म के जीव इस पैतरे बाज़ी में अपना करियर चुनते हैं, जिसे प्रोफेशन कहते हैं और उन बाबुओं को प्रोफेशनल।

साफ़ और सच बात ये है कि पैसा घोषित होता है या अघोषित होता है.. काला या सफेद नहीं होता। लेकिन सारे के सारे जनता को काले पैसे के नाम पर गुमराह कर रहे हैं और बहुमत वाली सरकार उस काले धन को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध और देश भक्त है।

बाकी सब इस बहुमत वाली सरकार की नज़र में क्या है? ये अब कहने की जरूरत नहीं।..

दरअसल बहुमत वाली सरकार की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वो “कुछ” करते हुए दिखना चाहती है, पर असल में “कुछ” करना नहीं चाहती और ऊपर से उद्घोषणा का ग्रांड स्टाइल व्यक्तिवादी तरीका।..जैसे गोया एक तानाशाह की सरकार हो। ना मंत्रिमंडल। ना सलाहकार ना कोई मन्त्रणा। बस एक सनक की, उठे और त्यौहार में विलुत्प होती अपनी चर्चा को धमाके से सुर्ख़ियों में लाना।.. और ऐलान करना देखो मैं हूँ और।.. अब से मेरे हिसाब से चलो। सुबह लाइन लगाना.. दूध ..सब्जी ..दवाई.. आटा यानी रोज़मर्रा की सारी चीज़ें खरीदते हुए मेरे नाम की माला जपना।

ऐलान में कहा गया किसी को पता नहीं है कि ये निर्णय लिया जा रहा है। पर पूंजीपतियों ने तो पहले ही 30 दिसम्बर तक का ऐलान कर रखा है अपने मोबाइल और इन्टरनेट नेटवर्क का जिसकी पब्लिसिटी स्वयं “उद्घोषक” कर रहे हैं।

दावा “काला धन” खत्म।

बहुमत वाली सरकार के मुखिया ने कहा “बहनों, भाइयो।

बोरों में पैसे भरके रखें  हैं।

बात सही है..ख़बरों में..बोल चाल में.. सामान्य व्यवहार में ये देखने, सुनने में आता है कि राजनेताओं और  सरकारी बाबुओं के घर में... “बोरों और बक्सों में नोट मिलते हैं”।

अब इन बक्सों में नोट रखने वाले चंद लोगों के लिए 125 करोड़ जनता की फजीहत। क्योंकि गुड गवर्नेंस, आयकर विभाग, एमनेस्टी स्कीम सब टांय-टांय फिस्स !

जरा विश्लेषण करें कि ये बक्सों में नोट भरकर रखने वाले... इतने नोट लाते कहाँ से हैं। उनके पास वो कौन से तरीके हैं जिससे इतना धन उनके पास आता है ? क्या सरकर ने उन तरीकों को बंद किया ? मात्र नोट बदलने से क्या इन बक्सों वालों को फर्क पड़ेगा। जिन लोगों ने पहले वाले नोट दिए थे वही लोग इनको बड़े आराम से नये ‘वाले नोट” पुराने नोटों के बदले दे देंगें।

इन अकूत नोट रखने वालों को जल्दबाजी तो है नहीं। रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए तो उन्होंने ये ‘अकूत’ नोट रखे नहीं हैं। और जैसे ही ‘नोट’ बदलने की घोषणा हुई। इन ‘अकूत’ नोट रखने वालों ने तुरंत ‘सोना’ खरीद लिया।

रातों रात सोने की और गहनों की दुकान खुली रहीं। बड़े आराम से ‘अकूत’ नोट सोने में बदल गया और बीमार व्यक्ति के लिए दवाई लेने वाली महिला दुकानदार से रात भर झगड़ती रही।
सरे आम दलालों के वारे न्यारे।

बस्तियों में, स्टेशन पर.. टोल नाकों पर 500 रुपये के पुराने नोट के बदले ब्लैक में 400 रूपये देने का काम खुल्लम खुल्ला चला और जिनके पास खाते नहीं है उनके साथ चल रहा है। ये आम लोग फिर ठगे गये।..

बहुमत सरकार के गृह राज्य में सरे आम 1500 ( तीन पुराने 500 के नोट)  रूपये के बदले 1000 ( सौ रूपये के 10 नोट) देने का कारबार चला।.. दलालों की चांदी ही चांदी...

अब आप समझ गए। आज सुबह बैंक का कर्मचारी अपने ग्राहक से कह रहा था, साहब ये सब चोर चोर मौसेरे भाई हैं। नोट भी बदल गए और उनकी कीमत भी ‘सोने’ से और बढ़ गयी। और आप लोग भीड़ में एक दूसरे पर लाल – पीले हो रहे हो !

ये ‘अकूत’ नोट वाले ‘मेढक’ की तरह है यानी विषम परिस्थतियों में हाइबरनेशन में चले जाते हैं। ये नई सरकार आने तक या इसी सरकार की नीति बदलने तक पुराने नोटों को दबा के रख सकते हैं।

मज़े की बात ये है कि... बात नोट बदलने की थी तो उसके लिए ‘आपात कालीन’ घोषणा करने की क्या ज़रूरत थी? ये काम तो पहले भी होता रहा है और बैंक करते रहे हैं !

‘अकूत नोट वालों के पास बेनामी या नामी कारें, बंगलों, फ्लैट, आदि सम्पति होती है उसका क्या? जब नोट बंद करने हैं तो 500 और 2000 के नोट पुनः जारी करने की क्या ज़रूरत है। क्योंकि ऐलान में तर्क दिया गया कि आज 500 और 1000 के नोट का उपयोग 85 प्रतिशत लेन- देन में हो रहा है।
अरे भाई जान लेना मंहगाई में जहाँ 500 रूपये में दाल और दूध नहीं आता,.वहां 100 रूपये के नोट की क्या औकात ?

और दो महीने के बाद 2000 के नोट रखने में ‘बक्से’ कम लगेंगे !

सरकार को जब 500 और 1000 के नोट बंद करने थे तो हमेशा के लिए करने थे। नए नोट ज़ारी करने की क्या ज़रूरत।

अपने ही तर्क को अपने आप सरकार ने खारिज कर दिया है नए 500 और 2000 के नोट जारी कर !
दरअसल ‘कुछ” लोग अर्थ व्यवस्था को ‘आयकर नियमों’ के आईने में समझ रहे हैं। वो ये भूल गए हैं कि ‘अर्थ व्यवस्था’ के व्यापक आयाम हैं और उसमें मनोविज्ञान एवम सामाजिक संरचना भी अहम है।

असल बात ये है कि बहुमत वाली सरकार के मुखिया ‘अल्प ज्ञान, सतही समझ, गैर समझ, आधी अधूरी समझ और जनता में फैले कनफूजन को बड़ी कुशलता से अपने राजनैतिक फायदे के लिए उपयोग करने में माहिर है। उसने देश भक्ति के नाम पर यही किया है।

जैसे जनता में ये आम समझ है कि जो पैसा बैंक में है वो सफेद और जो हाथ में है वो काला। अब सारे आम नागरिकों ने अपने 500 और 1000 रुपये के नोटों को बाकायदा धक्का-मुक्की करके, पसीना बहाकर, घंटों लाइन में खड़े होकर बैंक से ‘सफेद’ कर लिया।

देश वासियों ने बड़ा त्याग किया और बहुमत वाली सरकार के मुखिया ने छलावा !

बहुत जल्द यूपी की चुनाव सभा में ये कहा जाएगा  “ भाइयो, बहनों। हमने काले धन को बदल दिया। आप सब ने साथ दिया। आप सब खुद शामिल हुए।.. वगैरह वगैरह” जबकि हकीक़त में बदला ‘कुछ’ नहीं ! ये है जुमले बाज़ी !

अब थोड़ा बात करें कि पैसा काला या सफेद नहीं होता। वो घोषित या अघोषित होता है।
और जनता ये भी समझ ले कि नकद पैसा भी सफेद है और बैंक में रखा भी।.. क्योंकि एक योग को हथियाए बाबा ‘स्विस बैंक’ में जमा काले धन को लाने की बात कर रहे थे, पिछले लोकसभा चुनाव में। बैंक में भी होता है काला धन यानी सरकार के नियमों के अनुसार अघोषित पैसा। चाहे वो बैंक में हो या नकद हाथ में।

अब इस नव उदारवाद काल में जब स्वयं ‘विश्व बैंक” एक लुटेरे की तरह काम कर रहा हो। हमारे अपने बैंक घाटे में चल रहे हों।

बैंकों से अरबो रूपये का क़र्ज़ लेकर पूंजीपति सरकार के सामने विदेशों में फ़रार हो रहे हों तो क्या जनता को बैंकों पर विश्वास करना चाहिए ? क्या ‘जनता’ को ये बात नहीं समझनी चाहिए की ये सिर्फ राजनैतिक चालबाज़ी है और उसको परेशान करने का एक सरकारी मुखिया का आदेश !

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