दो ध्रुवीय सियासत की चुनौतियाँ और डीएनए का सच
पटना, 18 अगस्त, 2015। शिक्षाविद एवं भूमि अधिकार आन्दोलन से जुड़े अनिल चौधरी ने कहा है कि ‘पूंजी’ के लिए ‘प्रजातंत्र’ ‘‘इस्तेमाल करो और फेंको’’ वाली वस्तु रहा है।
श्री चौधरी प्रफुल्ल बिदवई की याद में दो ध्रुवीय सियासत की चुनौतियाँ और डीएनए का सच विषय पर आईएमए हॉल, गाँधी मैदान, पटना में आयोजित एक परिचर्चा में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से भारतीय संसदीय प्रजातंत्र (राजनैतिक तंत्र) को दोध्रुवीय शक्ल दिये जाने की मुहिम लगातार तेज होती जा रही है। ऐसा लगता है कि समूचे पूंजीतंत्र ने मानो अपने सब संस्थान (सीबीआई, फिक्की और मीडिया गिरोह) इस मुहिम में झोंक दिये हैं। आखिर समस्त पूंजीतंत्र के राजनैतिक परिदृश्य को दोध्रुवीय शक्ल देने के पीछे मंशा क्या है? सतही तौर पर लग सकता है कि जिस ‘‘अमरीकी स्वप्न’’ पर सवार होकर नव-उदारवाद की बयार का आनन्द अपना पूंजीतंत्र उठा रहा है, दो ध्रुवीय संसदीय प्रजातंत्र भी उसी का एक हिस्सा है। इसलिए उसके इस उपक्रम को उसकी स्वाभाविक परिणति मात्र मान लेना चाहिए। लेकिन इस कपट-कुटिल पूंजीतंत्र का ऐसा भोलापन आसानी से हज़म नहीं होता।
श्री चौधरी ने कहा कि पूंजी, पूंजीवाद और प्रजातंत्र के बीच ऐतिहासिक रूप से एक जैविक रिश्ता रहा है और प्रजातंत्र को अपनी ज़रूरतों के अनुरूप ढालने की महारत पूंजीवाद ने जाहिर रूप से हासिल कर रखी है। साथ ही संकट की विकट परिस्थितियों से निपटने के लिये पूंजीवाद द्वारा ‘प्रजातंत्र’ को कुर्बान कर तानाशाही और फासिस्ट निज़ामों का सहारा लेने की नज़ीरों से भी इतिहास पटा पड़ा है। कुल मिलाकर इतिहास की इबारत साफ़ बताती है कि पूंजीवाद और जंनतंत्र के लम्बे रिश्ते में पूंजी को अपनी बरक्क़त के लिए प्रजातंत्र की पीठ पर सवार होने का हुनर बखूबी हासिल रहा है। लेकिन कभी ‘‘पूंजी’’ ने प्रजातंत्र को अपने ऊपर सवार होने दिया हो, उसकी मिसाल नहीं मिलती।
बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में ही यह स्पष्ट हो चुका था कि संसदीय प्रजातंत्र पूंजी के फलने-फूलने का अभेद्य कवच है। अपने उद्भव और प्रारंभिक विकास के दौर में पूंजीतंत्र ने प्रजातंत्र के कवच का भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन जल्द ही ‘वैश्विक मंदी’ के शिकंजे में आये पूंजीतंत्र ने इस ‘‘कवच’’ को उतार फेंकने और अपने पुनरोत्थान के लिये ‘‘फासिज़्म’’ का रास्ता चुनने से परहेज नहीं किया।
दूसरे विश्व युद्ध और उसके बाद के उत्तर-औपनिवेशिक युग में एक बार फिर से पूंजी के अश्वमेध का घोड़ा ‘‘प्रजातंत्र’’ का परचम लहरा कर निकला।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
ऐतिहासिक तौर पर देखा जा सकता है कि ‘पूंजी’ के लिए ‘प्रजातंत्र’ ‘‘इस्तेमाल करो और फेंको’’ वाली वस्तु रहा है। जब तक उपयोगी हो उसको बरतो, ज़रूरत पड़े तो ठोंक-बजा कर दुरुस्त करो और तब भी काम न बने तो सैन्य व शस्त्र बल से उसे ठिकाने लगा दो। प्रजातंत्र को ठिकाने लगाने की ज्यादातर मिसालें संकटों (जो उसकी संरचना में निहित है) से निपटने के ज़रिए के तौर पर ही सामने आई हैं।
दूसरे विश्व युद्ध और फासिस्ट ताकतों की पराजय के बाद ‘‘प्रजातंत्र’’ की लहर पर लगाम लगाना आसान न था। पूंजीतंत्र को बदले हुए हालात में अपने विस्तार के लिए नए तरीकों की दरकार तो थी ही, साथ में पूंजीवाद के विकल्प के रूप में उभरते एक ‘‘समाजवादी ब्लॉक’’ से प्रतिस्पर्धा की नई चुनौती का सामना भी करना था। संभवतः ‘‘कल्याणकारी प्रजातंत्र’’ की अवधारणा का विकास इन्हीं परिस्थितियों की देन था और पूंजी के फलने-फूलने के अभेद्य कवच ‘‘प्रजातंत्र’’ की पुनः प्राण प्रतिष्ठा के लिये यह आवश्यक भी था।
लेकिन यह मंत्र भी पूंजीवाद की नैया को बहुत दूर तक खेने में कामयाब न था। ‘बाज़ार का संकट’ जो पूंजीवाद का एक निहित चारित्रिक गुण है उसकी आवृत्ति लगातार घटती जा रही थी। जो संकट दस-पांच साल में आया करता था वह धीरे-धीरे 24 X 7 (चौबीसों घंटे, सातों दिन) का बनता जा रहा था। इसी अंदेशे में ‘पूंजीतंत्र’ के पूर्णकालिक विचारकों ने उस अवधारणा का विकास प्रारंभ किया जिसे हम आज नव-उदारवाद या भूमण्डलीकरण के नाम से जानते हैं। इसके विकास के लिये ‘लातिन अमरीका’ को प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल किया गया। पिछली शताब्दी के सातवें दशक में नव-उदारवादी तिकड़मों का प्रयोग करने के लिए ‘‘सत्ता परिवर्तन’’ (रिजीम चेंज) की रणनीति का प्रयोग किया गया। इसके बाद इसी रणनीति का प्रयोग तमाम और देशों में किया गया।
नव-उदारवादी धारा के लातिन अमरीकी परीक्षण के साथ-साथ जिन देशों में इन नीतियों को अमली जामा पहनाया गया, वे रीगन की अध्यक्षता में अमरीका और थेचर के नेतृत्व में ब्रिटेन थे। यह दोनों देश ‘पूंजी’ के अभेद्य कवच- ‘जनतंत्र’ के आधिकारिक मुखौटे और दोध्रुवीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था के सुपर मॉडल भी हैं।
इस तरह बीसवीं सदी की महामंदी के दौर में ‘फासीवाद’ का सहारा लेने वाले पूंजीतंत्र के सामने इस सदी के चिर-स्थायी संकट से निपटने के लिए खुलेआम ‘फासीवादी तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल राजनैतिक और पूंजी की दीर्घकालीन ज़रूरतों के हिसाब से फायदे का सौदा नहीं दिखाई दिया। इसलिए जनतांत्रिक और ख़ास तौर पर संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्थाओं के पर कतरना और उन्हें दोध्रुवीय शक्ल देना ही नायाब रास्ता सुझाई दिया।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
दोधु्रवीय राजनैतिक व्यवस्था का विकास धीरे-धीरे ऐसी दो पूंजीपरस्त पार्टियों की हवा बना कर होता है जिनकी वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक यात्रा अमूमन अलग होती है। वे एक दूसरे पर लगातार प्रचारात्मक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो चलाये रखते हैं लेकिन ‘‘नव-उदारवादी’’ प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की मूल व्यवस्थाओं पर साथ खड़े होने से गुरेज़ नहीं करते। उनके बीच का फ़र्क पेप्सी और कोका कोला के बीच के फ़र्क जैसा होता है और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा और झगड़े भी उन दोनों कंपनियों की प्रतिस्पर्धा की तर्ज पर ही होते हैं और नतीजे भी एक जैसे ही निकलते हैं। यानी कि किसी भी तीसरे प्रतिद्वंद्वी का सफाया और भोजन-पानी व्यापार पर दो अमरीकी कंपनियों का वर्चस्व, जिसके शायद तमाम निवेशकों का पैसा दोनों ही कंपनियों में लगा होगा। जिन लोगों ने पेप्सी और कोक दोनों का सेवन किया होगा वे बता पायेंगे कि दोनों के स्वाद में दस फीसद से ज़्यादा का फ़र्क न होगा। ठीक इसी तरह दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में भी दो मुख्य पार्टियों के बीच का फ़र्क भी शायद दस फीसद से ज़्यादा का नहीं रहता और वह भी विचारधारा और कार्यक्रम के आधार पर न आधारित होकर कार्यपद्धति पर अधिक आधारित होता है। साथ ही किसी तीसरे प्रतिद्वंद्वी या नव-उदारवाद विरोधी दलों के लिए संसदीय प्रक्रिया में कोई जगह नहीं बचती और मतदाता अपने को असहाय पाता है।
अमरीका की दोधु्रवीय राजनैतिक व्यवस्था में अभी हाल में हुए चुनावों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। युद्ध-विरोधी जन-आंदोलन रहे हों या ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का जन-उभार, चुनावों पर उनका कोई असर नहीं पड़ पाता। सत्ता हमेशा रिपब्लिकन से डेमोक्रेट और डेमोक्रेट रिपब्लिकन के बीच झूलती रहती है और पूंजीतंत्र की सेवा करती है।
हमारे संसदीय प्रजातंत्र में भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है। पिछले तीन दशकों में धीरे-धीरे कुछ ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, जिसमें दो पूंजी परस्त पार्टियां- कांग्रेस और बीजेपी दो ध्रुवों के रूप में स्थापित की गईं। बीजेपी अपने पूर्वजन्म(जनसंघ) के जमाने से ‘मुक्त व्यापार’ की झण्डाबरदार रही और अमरीका तथा इज़रायल को भारत का स्वाभाविक मित्र मानने वाली पार्टी रही है। लेकिन पांच से अधिक साल तक सत्ता में रहने के बावजूद अपने इस वैचारिक एजेंडे को वह ज़्यादा मूर्त रूप नहीं दे सकी। आज कोई भी स्पष्ट देख सकता है कि ‘मुक्त व्यापार’ की नीतियों और उनका विस्तार करने का सेहरा कांग्रेस के ही सिर बंधा हुआ है। भारत की विेदेश नीति को अमरीकापरस्त और इज़रायल पक्षीय बना देने की कवायद भी कांग्रेस के नेतृत्व ने ही बखूबी अंजाम दी है। वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक भूमिकाओं की भिन्नता के बावजूद वर्तमान गवाह है कि ‘संघ परिवार’ के इन दोनों सपनों को कांग्रेस ने अपनी धरोहर को दरकिनार कर अंजाम दिया है। बीजेपी के भारत को एक ‘हार्डस्टेट’ (पुलिसिया राष्ट्र) के रूप में स्थापित करने के सपने को भी साकार करने में पिछले दस वर्षों का कांग्रेसी शासन बड़ी शिद्दत से लगा हुआ दिखाई देता है। दस फीसद का जो फ़र्क बताया जाता है, इन दोनों के बीच वह ‘‘साम्प्रदायिकता’’ के मामले को लेकर है। सन 2004 तक यह फ़र्क कुछ हद तक दिखता था लेकिन पिछले दस वर्षों के आचरण ने इसे भी धूमिल कर दिया है।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकारों का रिकार्ड ‘‘साम्प्रदायिकता’’ के मोर्चे पर अत्यंत निराशाजनक रहा है। पूर्व के जघन्य साम्प्रदायिक अपराधों/नरसंहारों पर कार्रवाई करने की मंशा या संकेत भी कांग्रेस सरकार ने नहीं दिये। इन वर्षों में हुए साम्प्रदायिक हमलों और घटनाओं में कांग्रेस शासन ने कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया। भविष्य में साम्प्रदायिकता को सीमित रखने के लिये कानून बनाने की चर्चा तो चली लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व ने इस मुद्दे पर वह तत्परता नहीं दर्शायी जो उसने ‘भारत-अमरीका परमाणु समझौते’ या ‘खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश’ के मुद्दे पर दिखाई।
फिर भी समूचा पूंजीतंत्र, उसके संस्थान और उसका मीडिया कांग्रेस और बीजेपी को संसदीय राजनीति के दो ध्रुवों के रूप में स्थापित करने और किसी तीसरे की संभावनाओं को जड़ से ख़ारिज करने में ओवरटाइम लगा हुआ है। पिछले दो दशकों में एनडीए और यूपीए, क्रमशः बीजेपी और कांग्रेस रूपी खंबों पर तने दो तम्बुओं की तरह स्थापित हुए हैं। संसदीय व्यवस्थाएं इस तरह से अनुकूलित हैं कि सत्ता के खेल में बने रहने के लिए अन्य पार्टियों के लिये इन दोनों तम्बुओं में से एक में घुसना अनिवार्य हो गया है। इसी के चलते पिछले दो दशकों से इन दोनों में से कोई भी पार्टी खुद से सरकार बनाने के लिए चुनाव में नहीं उतरती बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने के लिए चुनाव लड़ती है और सरकार बनाने का न्योता प्राप्त करना उसका उद्देश्य होता है। एक बार वह मिल जाने के बाद अन्य दलों का उसके तम्बू में शामिल होना स्वतः ही शुरू हो जाता है। इस तरह संसदीय राजनीति में दो-ध्रुवी प्रवृत्ति जड़ पकड़ती जा रही है।
केंद्र में इसके उदाहरण देखने हों तो गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई सरकारों का रिकॉर्ड खंगालना चाहिए। 1950 से 1990 के बीच दो संक्षिप्त कार्यकालों को छोड़ कर लगातार इस देश में कांग्रेसी सरकारें बहुमत में रही हैं। कांग्रेस पहली बार सत्ता से 1977-1980 के बीच बाहर रही जब जनता पार्टी ने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर उभरे राष्ट्रव्यापी असंतोष का लाभ उठाते हुए सरकार बना ली थी। हालांकि यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और तीन साल में ही गिरा दी गई। इसके बाद 1989 में वाम दलों को साथ लेकर नता दल के नेतृत्व में बने नेशनल फ्रंट ने 1989 में अपनी सरकार बनाई जो गैर-कांग्रेसी गैर-भाजपाई थी, लेकिन यह भी सिर्फ दो साल ही टिक सकी। 1996 से 1998 के बीच का दौर गठबंधन राजनीति की उठापटक का रहा जब गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी, लेकिन यह भी अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। इससे यह साबित होता है कि दो बड़ी पार्टियां किसी भी कीमत पर तीसरी को या अपने विरोधियों को सत्ता में टिके नहीं रहने देती हैं।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
भारत में राज्यों के भीतर दोध्रुवीय राजनीति के कई उदाहरण अब स्थापित स्थिति में आ चुके हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी, तमिलनाडु में डीएमके और अन्नाद्रमुक और अब बिहार में आरजेडी और जेडीयू जैसे कई उदाहरण धीरे-धीरे राज्यों में भी दोध्रुवीय राजनीति को स्थापित कर रहे हैं।
आने वाले दिनों में संसदीय चलचित्र के इस पटकथा का ‘क्लाइमैक्स’ उभर कर सामने आने का पूर्वानुमान सहज ही लगाया जा सकता है। समूचा पूंजीतंत्र, उसके संस्थान और उसका मीडिया अगले एक साल तक पेप्सी-कोक छद्म युद्ध की तर्ज पर यूपीए-एनडीए ध्रुवीकरण की प्राणप्रतिष्ठा करते नज़र आयेगा और संसदीय राजनीति की शक्ल मुकम्मल करने की भरसक कोशिश करेगा।
अनिल चौधरी ने कहा श्राहुल-मोदी की ‘कॉमिक’ व रोमांचक पटकथा आगामी संसदीय चलचित्र की यूएसपी साबित होगी और उसका हैप्पी एंडिंग पूंजीतंत्र से नाभिनालबद्ध एक ऐसी संसद में होगी जिसमें नव-उदारवाद का अश्वमेध फॉर्मूला वन की तजऱ् पर दौड़ेगा। मुनाफ़ों और घोटालों की बगिया महकेगी। जल, जंगल, जमीन और समुदायों की अस्मिता खुल कर लुटेगी। संसद के नक्कारखाने में फिर तूती भी न बजेगी।‘
प्रो. डी एम् दिवाकर, निदेशक, ए एन सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान, पटना ने कहा कि दो ध्रुवीय सियासत से जूझने के लिए जन घोषणा पत्र बना कर अभियान शुरू करना चाहिए।
बिहारवाच के गोपाल कृष्ण ने Human DNA Profiling Bill, 2015 और आधार से जर्मनी में हुए नर संहार जैसी संभावना पर रौशनी डाली और इसके बहिष्कार करने की अनुशंसा की और बिहार सरकार से अवैज्ञानिक वयांबाज़ी के जवाब में ५०,०० हज़ार लोगो के डीएनए प्रधानमंत्री को भेजने के प्रयास पर रोक लगाने की गुजारिश की।
परिचर्चा की अध्यक्षता साहित्यकार खगेन्द्र ठाकुर ने किया। इस कार्यक्रम को राम बाबु कुमार, प्रबंध संपादक, जनशक्ति, रियाज़ अजीमाबादी, वरिष्ठ पत्रकार, इरफ़ान अहमद, महासचिव-आल इंडिया तंजीम.ए.इन्साफ और इसके अध्यक्षए गजनफर नवाब, अनिश अंकुर-नाटककार, तारकेश्वर ओझा, बिहारवाच के गोपाल कृष्ण ने संबोधित किया। परिचर्चा का आयोजन आल इंडिया तंजीम.ए.इन्साफ और बिहारवाच ने किया।