बनारस में तोते की जान दांव पर है और कालाधन गंगाजल की तरह पवित्र
बनारस में तोते की जान दांव पर है और कालाधन गंगाजल की तरह पवित्र
पलाश विश्वास
लोकतंत्र के इतिहास में यह अभूतपूर्व है कि कोई प्रधानमंत्री और उसका समूचे मंत्रिमंडल ने किसी एक शहर की घेराबंदी कर दी है। बनारस में पिछले कई दिनों से सामान्य जनजीवन चुनावी हुड़दंग में थमा हुआ है तो बाकी देश भी बनारस में सिमट गया है। कल आधी रात के करीब मैंने इसलिए फेसबुक लाइव पर यह सवाल दागा है कि क्या बनारस पूरा भारत है?
मीडिया की मानें तो भाजपा ने चुनाव जीत लिया है और बाकी राजनीतिक दल मैदान में कहीं हैं ही नहीं है। मायावती इस चुनाव में कोई दावा भी पेश कर रही है, मीडिया ने अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है।
शिवजी की हजारों साल के हिंदुत्व के इतिहास में ऐसी दुर्गति किसी अवतार या अपदेवता ने नहीं की है, भोले बाबा का वरदान पाने के बाद खुद किसी ने भोले बाबा को उनकी जगह से बेदखल करने की कोशिश नहीं की है चाहे स्वर्ग मर्त्य पाताल में कितना ही हड़कंप मचा हो, जैसा कि उनकी अपनी नगरी मां अर्णपूर्णा की काशी में ही हर हर महादेव हर हर मोदी में बदल गया है।
रोज वहां शिवजी के भूतों प्रेतों की बारात निकल रही है। पता नहीं, उमा फिर ब्याह के लिए तैयार है भी या नहीं।
भक्त मंडली उछल-उछल कर दावे कर रही है कि भाजपा को कुल चार सौ सीटें मिलने जा रही है।
मीडिया खुलकर ऐसा लिख बता नहीं पा रहा है, लेकिन उसका बस चले तो वह जनादेश का ऐसा एकतरफा नजारा पेश करने के लिए बेताब है।
जब इतनी भारी जीत तय है तो कोई प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल बनारस में चालीसेक सीटों को हर कीमत पर जीतने के लिए सारे संसाधन झोंकने में क्यों लगा है, यह एक अबूझ पहेली है, जो 11 मार्च से पहले सुलझने वाली नहीं है।
नोटबंदी के नस्ली नरसंहार कार्यक्रम को जायज ठहराने का दांव उलटा पड़ने लगा है। निजी क्षेत्र में नौकरी कर रहे अफसरों, कर्मचारियों की जान आफत में है क्योंकि उनके लिए टार्गेट न सिर्फ बढ़ा दिया गया है, बल्कि ज्यादातर कंपनियों में एमडी लेवेल से मैनडेट जारी हो गया है कि हर हाल में टार्गेट को पूरा किया जाये।
मतलब यह है कि फर्जी विकास के फर्जी आंकड़े के सुनहले दिन में अंधियारे के सिवाय बाजार को कुछ हासिल नहीं हुआ है और मंदी मुंह बांए खड़ी है।
अर्थशास्त्री तो रामराज्य में होते नहीं हैं। कुल जमा कुछ झोला छाप विशेषज्ञ और आंकड़ों की बाजीगरी और परिभाषाओं, पैमानों के सृजनशील कलाकार हैं।
मुश्किल यह है कि बहुसंख्य आम जनता को क्रय क्षमता से वंचित करके नकदी संकट खड़ा करके ग्रामीण क्षेत्रों के बाजार को ठप करके सिर्फ शहरी आबादी की डिजिटल दक्षता और चुनिंदा तबके के पास मौजूद सदाबहार प्लास्टिक मनी के भरोसे उपभोक्ता में बने रहना ज्यादातर कंपनी और मार्केटिंग प्रबंधकों के लिए सरदर्द का सबक है और उन्हें यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि कारोबार और उत्पादन ठप होने के बवजूद आंकड़े दुरुस्त करने की मेधा झोल छाप प्रजाति की तरह उनकी क्यों नहीं है। वे तो हिसाब जोड़ने में तबाह हैं।
वृद्धि दर सात फीसद का ऐलान करने के बावजूद आंकड़ें पूरी तरह दुरुस्त नहीं किये जा सके हैं तो छोला छाप बिरादरी की ताजा बाजीगरी यह है कि सरकार नये आधार वर्ष 2011-12 के साथ दो वृहत आर्थिक संकेतक ... औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और थोक मूल्य सूचकांक...अप्रैल अंत तक जारी कर सकती है।
सरकारी तौर पर इसका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि वृद्धि के आंकड़ों के साथ दोनों सूचकांक मेल खायें। लेकिन आधार वर्ष में तब्दीली करके पैमाना बदलकर मर्जी मुताबिक आंकड़े बनाने और दिखाने की यह डिजिटल कैशलैस तकनीक झोलाछाप बिरादरी का अर्थशास्त्रीय विशेषज्ञता है, जिसका मुकाबला न अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री कर सकते हैं और कारपोरेट जगत के अपने आर्थिक कारिंदे।
आईआईपी और डब्ल्यूपीआई के लिये आधार वर्ष फिलहाल 2004-05 है। सीधे सात साल की छलांग लगाकर जो आंकड़े बनाये जाएंगे, उनकी प्रामाणिकता पर भले आम जनता को ऐतराज न हो लेकिन उद्योग कारोबार जगत को हिसाब किताब के इस फर्जीवाड़े से अरबों का चूना लगेगा।
फिरभी झोलाछाप दावा है कि नये आधार वर्ष से आर्थिक गतिविधियों के स्तर को अधिक कुशल तरीके से मापा जा सकेगा और राष्ट्रीय लेखा जैसे अन्य आंकड़ों का बेहतर तरीके से आकलन किया जा सकेगा।
गौरतलब है कि केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) पहले ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और सकल मूल्य वर्द्धन (जीवीए) के पैमाने और आधार वर्ष बदल दिये हैं जिसका नतीजा सात फीसद विकास दर की लहलहाती फसल है। निवेश और लागत के मुकाबले मुनाफा कितना है और घाटा कितना है, यह जोर घटाव निजी कंपनियों और असंगठित क्षेत्र में करोड़ों ठेके के कर्मचारियों के सर पर लटकती धारदार तलवार है तो कंपनियों के सामने जिंदा रहने की चुनौतियां हैं।
मेकिंग इन की स्टार्ट अप दुनिया में तहलका मचा हुआ है।
अब कारोबार उद्योग जगत में सबसे ज्यादा सरदर्द का सबब यह है कि सात फीसद विकास दर के बावजूद मंदी का यह आलम है तो सुनहले दिनों के लिेए विकास दर कितनी काफी होगी कि निवेश का पैसा डूबने का खतरा न हो और कारोबार समेटकर लाड़ली कंपनियों में समाहित हो जाने की नौबत न आये।
दो दो तेल युद्ध के आत्मध्वंसी दौर में आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी युद्ध में खपी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ऐसी ही सुनहली तस्वीरें पेश की जाती रही हैं और अमेरिका नियंत्रित वैश्विक आर्थिक एजंसियां , अर्थशास्त्री, मीडिया और रेटिंग एजंसियों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को विश्व व्यवस्था की धुरी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
फिर 2008 में नतीजा महामंदी बतौर समाने आया तो बराक ओबामा अपने दो दो कार्यकाल में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं ला सके। आर्थिक संकट का हल यूं निकला कि राजपाट धनकुबेर डान डोनाल्ड के हवाले करके विदा होना पड़ा।
आम जनता की तकलीफें, उनकी गरीबी, हां, अमेरिकी आम जनता की गरीबी, बेरोजगारी का आलम यह है कि अमेरिकी सरकार कारपोरेट कंपनी की दक्षता के साथ चलाने के लिए अराजनीतिक असामाजिक स्त्री विरोधी लोकतंत्र विरोधी अश्वेतविरोधी, आप्रवास विरोधी धुर नस्ली दक्षिणपंथी डोनाल्ट ट्रंप को अमेरिकी जनता ने चुन लिया। हमें फिर अपने जनादेश पर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है।
बल्कि हम इससे सबक लें तो बेहतर।
अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखें तो छब्बीस साल के मुक्त बाजार में हिंदुत्व के कारपोरेट एजंडे की वजह से भारत में इन दिनों नरसंहारी धुर दक्षिणपंथी साप्रदायिक नस्ली राजनीतिक लंपट पूंजी सुनामी को समझना आसान होगा।
जाहिर है कि 1991 से मुक्त बाजार की आत्मघाती व्यवस्था में समाहित होते जाने से आम जनता की तकलीफों के राजनीतिक समाधान या राजनीतिक विकल्प न होने की वजह से हिंदुत्व का यह पुनरूत्थान संभव हुआ क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी, सिख संहार, गुजरात और असम के कत्लेआम से लेकर राम जन्मभूमि आंदोलन की भावनात्मक सुनामी के बावजूद मुक्त बाजार के संकट गहराने से पहले हिंदुत्व का पुनरूत्थान मुकम्मल मनुस्मृति राज में तब्दील नहीं हो सका था।
इस पर जरा गौर करें कि मोदी की ताजपोशी से पहले दस साल तक कांग्रेस का राजकाज रहा है, जिसमें पांच साल तक वामपंथी काग्रेस से नत्थी भी रहे हैं।
आर्थिक सुधारों के बावजूद जो अर्थव्यवस्था चरमराती रही और विकास की अंधी दौड़ में आम जनता की रेजमर्रे की जिंदगी जैसे नर्क हो गयी, उससे बाहर निकलने का कोई दूसरा राजनीतिक विकल्प न होने के अलावा संकट में फंसी कारपोरेट दुनिया के समरथन मनमोहन से गुजरात माडल के मुताबिक मोदी में स्थानांतरित हो जाने की वजह से हिंदुत्व सुनामी का गहरा निम्न दबाव क्षेत्र में तब्दील हो गया यह महादेश।
इस यथार्थ का सामना किये बिना सोशल मीडिया की हवा हवाई क्रांति से इस हिंदुत्व सुनामी का मुकाबला असंभव है और दुनिया में सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र महाबलि अमेरिका के जनादेश से इस सच को समझना आसान है।
बहरहाल संकट जस का तस बना हुआ है।
भारत में विकास कृषि विकास के बिना असंभव है और पिछले छब्बीस साल में उत्पादन प्रमाली तहस नहस है जिस वजह से उत्पादन संबंध सिरे से खत्म होने पर सांप्रदायिक, क्षेत्रीय, धार्मिक, जाति , नस्ली अस्मिता के वर्चस्व के तहत आर्थिक संकट सुलझाने के लिए यह महाभारत है, जो जाहिर है कि संकट को लगातार और घना घनघोर बना रहे हैं और अमन चैन, विविधता, बहुलता, लोकतंत्र , संविधान, नागरिक और मानवाधिकारों का यह अभूतपूर्व संकट है।
हमारी दुनिया तेजी से ब्लैकहोल बन रही है।
नोटबंदी से कालाधन पर अंकुश लगाने का दावा बनारस में चुनावी महारण में युद्धक बेलगाम खर्च से झूठा साबित हो गया है।
त्रिकोणमिति या रेखागणित की तरह नहीं, सीधे अंकगणित के हिसाब से साफ है कि अगर बनारस बाकी देश है तो समझ लेना चाहिए कि दिल्ली में सबकुछ समाहित कर देने की सत्तावर्ग की खोशिशों का जो नतीजा बाकी देश भुगत रहा है। बनारस में अस्थाई तौर पर ठहरे राजकाज का नतीजा उससे कुछ अलग होने वाला नहीं है।
मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी इस चुनाव के बाद कितने दिनों तक पद पर बने रहेंगे कहना मुश्किल है। लेकिन उन्होंने साफ दो टूक शब्दों में कह दिया है कि नोटबंदी से वोट महोत्सव में कालाधन का वर्चस्व खत्म हुआ नही है। बांग्ला दैनिक आनंद बाजार में उनके दावे के बारे में आज पहले पन्ने पर खबर छपी है।
जाहिर सी बात है कि बाकी देश को नकदी के लिए वंचित रखकर जिस तरह यूपी में केसरिया वाहिनी को कालाधन से लैस करके यूपी जीतने के काम में लगाया गया, जैसे नोटवर्षा हुई, उससे साफ जाहिर है कि नोटबंदी का मकसद कालाधन रोकने या लोकतंत्रिक पारदर्शिता कतई नहीं रहा है।
जैसे डिजिटल कैशलैस इंडिया में चुनिंदा कंपनियों और घरानों का एकाधिकार कारपोरेट वर्चस्व कायम रखने का चाकचौबंद इंतजाम है वैसे ही नोटबंदी का पूरा खुल्ला खेल फर्रूखाबाद राजनीति पर केसरिया वर्चस्व कायम रखने के लिए है।
अब यह केसरिया वर्चस्व का कालाधन नमामि गंगे की अविराम गंगा आरती के बावजूद बनारस की गंदी नालियों से प्रदूषित गंगा के जहरीले पवित्र जल की तरह पूरे बनारस और बाकी देश में बहने लगा है, जिसकी तमाम चमकीली गुलाबी तस्वीरें पेड पेट मीडिया के जरिये दिखायी जा रही हैं।
गौरतलब है कि नोटबंदी का निर्णय पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ऐन पहले करने के बाद रिजर्व बैंक को बंधुआ बनाकर रातोंरात लागू किया था खुद प्रधानमंत्री ने तो इसके अच्छे बुरे नतीजे के जिम्मेदार भी वे ही हैं।
इसी सिलसिले में मुख्य चुनाव आयुक्त का यह कहना बेहद गौरतलब है कि नोटबंदी के बाद हुए चुनावों में यूपी और दूसरे राज्यों मे पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले बहुत ज्यादा कालाधन बरामद हुआ है। जबकि प्रधानमंत्री का दावा था कि कालाधन पर नोटबंदी से अंकुश लग जायेगा।
वैश्विक इशारे इतने खतरनाक हैं कि हिंदुत्व की चालू सुनामी से बाराक ओबामा के लंगोटिया यार के लिए अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना असंभव है। अमेरिका पहले है, डोनाल्ड ट्रंप की इस नीति से हिंदुओं के लिए कोई खास रियायत नहीं मिलने वाली है।
मुसलमानों के खिलाफ धर्मयुद्ध में अमेरिका में निशाने पर हिंदू और सिख हैं।
गौरतलब है कि अमेरिका, कनाडा, यूरोप और आस्ट्रेलिया में बड़ी संख्या में सिख और पंजाबी हैं जो वहां व्यापक पैमाने पर खेती बाड़ी कर रहे हैं एकदम अपने पंजाब की तरह तो कारोबार में भी वे विदेश में दूसरे भारतीय मूल के लोगों से बेहद आगे हैं। दूसरी तरह, नौकरी चाकरी के मामले में भारत में शिक्षा दीक्षा में मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के मिलने वाले मौके और उनके हिस्से के संसाधनों के मद्देनजर कहना ही होगा कि अमेरिका और बाकी दुनिया में बड़ी नौकरियों में सवर्ण हिंदी ही सबसे ज्यादा है।
जाहिर सी बात है कि न्स्ली श्वेत वर्चस्व के आलम में मुसलमानों के बजाय सिखों और सवर्ण हिंदुओं पर ही श्वेत रंगभेदी हमले बढ़ते जाने की आशंका है। ऐसे में ग्लोबल हिंदुत्व का क्या बनेगा, यह किसी देव मंडल को भी मालूम नहीं है।
पिछले 25 साल से तकनीकी शिक्षा और दक्षता पर जोर दिये जाने के बावजूद नई पीढ़ियों को प्राप्त रोजगार और स्थानीय रोजगार देने के लिए कोई इ्ंफ्रास्टक्चर तैयार नहीं किया गया है न ही उस पैमाने पर औद्योगीकरण हुआ है।
बल्कि औद्योगीकरण के नाम पर अंधाधुंध शहरीकरण और जल जंगल जमीन से अंधाधुंध बेदखली, दमन, उत्पीड़न और नरसंहार के जरिये बहुसंख्य जन गण, किसानों और मेहनतकशों के सफाये का इंतजाम होता रहा है।
पिछले छब्बीस साल से कल कारखाने लगातार बंद हो रहे हैं।
लगातार थोक भाव से किसान खुदकशी कर रहे हैं।
लगातार चायबागानों में मुत्यु जुलूस निकल रहे हैं।
लगातार निजीकरण और विनिवेश से स्थाई नौकरियां और आरक्षण दोनों खत्म हैं।
पढ़े लिखे युवाओं और स्त्रियों को रोजगार मिल नहीं रहा है।
बाजार और सर्विस सेक्टर में विदेशी और कारपोरेट पूंजी की वजह से कारोबार से आजीविका चलाने वाले लोग भी संकट में हैं।
धर्म, जाति, क्षेत्र, नस्ल की पहचान चाहे जितनी मजबूत हो, हिंदुत्व की सुनामी चाहे कितनी प्रलयंकर हो, रोजी रोटी के मसले हल नहीं हुए और भुखमरी, मंदी और बेरोजगारी बेलगाम होने, मुद्रास्फीति, मंहगाई और वित्तीय घाटे तेज होने, ईंधन संकट गहराने और उत्पादन सिरे से ठप हो जाने, युद्ध गृहयुद्ध सैन्य शासन और हथियारों की अंधी दौड़, परमाणु ऊर्जा में राष्ट्रीय राजस्व खप जाने और उपभोक्ता बाजार सर्वव्यापी होने के बावजूद कृत्रिम नकदी संकट गहराते जाने से डिजिटल कैशलैस इंडिया में आगे सुनहले दिन के बजाय अनंत अमावस्या है।
मोदी महाराज, उनके तमाम सिपाहसालार और करोड़ों की तादाद में भक्तजन, पालतू मीडिया हावर्ड और अर्थशास्त्रियों की कितनी ही खिल्ली उड़ा लें, औद्योगिक और कृषि संकट के साथ साथ बाजार में जो गहराते हुए मंदी का आलम है और जो खतरनाक वैश्विक इशारे हैं, हिंदुत्व के पुनरूत्थान, केसरिया सुनामी, केंद्र और राज्यों में सत्ता को कारपोरेट और बाजार का समर्थन लंबे दौर तक जारी रहना मुश्किल है, चाहे विधानसभा चुनावों के नतीजे कुछ भी हो।
गौरतलब है कि डा.मनमोहन सिंह को दस साल तक विश्व व्यवस्था, अमेरिका और कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों का पूरा समर्थन मिलता रहा है।
जिन संकटों और कारणों की वजह से मनमोहन का अवसान हुआ है, 2014 के बाद वे तेजी से लाइलाज मर्ज में तब्दील हैं।
मसलन विकास के फर्जी आंकडो़ं के फर्जी विकास के दावे से जनमत को बरगला कर जनादेश हासिल करना जितना सरल है, टूटते हुए बाजार और उद्योग कारोबार के संकट से निबटना उससे बेहद ज्यादा मुश्किल है।
कालाधन से वोट खरीदे जा सकते हैं लेकिन इससे न अर्थ व्यवस्था पटरी पर आती है और न उद्योग कारोबार के हित सधते हैं।
गौरतलब है कि मीडिया कारपोरेट सेक्टर और मुक्तबाजार में भूमिगत धधकते ज्वालामुखी की तस्वीरें नहीं दिखा रहा है लेकिन उद्योग कारोबार जगत हैरान है कि नकदी के बिना उपभोक्ता बाजार में विशुध पंतजलि के वर्चस्व के बावजूद जो मंदी है और बाजार और उद्योग कारोबार के जो संकट हैं, वे फर्जी आंकडो़ं से कैसे सुलझ


