रणधीर सिंह सुमन

सुप्रसिद्ध पत्रकार, स्तंभकार, 97 वर्षीय ख़ुशवंत सिंह ने अपने कालम "बुरा मानो या भला" में बड़ी मासूमियत से लिखा है कि भगत सिंह वा उनके साथी संसद में चल रही बहस के दरमियाँ उनके पिता शोभा सिंह दर्शक दीर्घा में बैठे थे. बहस बहुत उबोउ थी इसलिए मेरे पिता ने दर्शक दीघा ने अख़बार निकाला और उसे पढ़ने लगे अचानक पिस्टल चलने वा बम के धमाके की आवाज़ सुनी वहाँ बैठे हुए लोग भाग गये. रह गये मेरे पिता और दो क्रांतिकारी जब पुलिस उन्हे गिरफ्तार करने आई तो दोनो क्रांतिकारियों ने कोई विरोध नही किया मेरे पिता ने जुर्म इतना किया था की उन्होने कोर्ट में दोनो की पहचान की थी दरअसल मेरे पिता ने सिर्फ़ सच कहा था सच के सिवा कुछ भी नही फिर भी मीडिया ने शहीदों की फाँसी से उन्हे जोड़ दिया सच मुच उनका क्रांतिकारियों की फाँसी से कोई लेना-देना नही था. वह एक ऐसे आदमी पर कीचड़ उच्छालना है जो अपना बचाव करने के लिए दुनिया में नही है.

शोभा सिंह ने न्यायालय में सच कहा यही लोग बम फेंकने वाले थे जबकि ख़ुशवंत जी के अनुसार वह अख़बार पढ़ रहे थे और अपने बगल में बैठे दोनो कार्तिकारियों को पिस्टल चलते हुए या बम फेंकते हुए नही देखा था जबकि वास्तविकता यह है कि सादीलाल वा शोभा सिंह की चश्मदीद गवाही के आधार पर ही भगत सिंह वा उनके साथियों को सज़ा हुई थी फाँसी की सज़ा के साथ ठेकेदार शोभा सिंह सर शोभा सिंह हो गये और सादीलाल भी सर सादीलाल हो गये और करोड़ो रुपये की परिसंपत्तियाँ अंग्रेज़ो से प्राप्त की ठेकेदार कभी सच के सिवा कुछ ग़लत बोलता ही नही है.