भीषणतम आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से मिली लोकतंत्र को चुनौती
भीषणतम आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से मिली लोकतंत्र को चुनौती
लोकसभा चुनाव-2014 में क्या हो बहुजन बुद्धिजीवियों की रणनीति!
एच एल दुसाध
सोलहवीं लोकसभा का चुनाव एक ऐसे समय में होने जा रहा है जब देश में व्याप्त भीषणतम विषमता के कारण हमारे लोकतंत्र पर गहरा संकट मंडरा रहा है। विषमता का आलम यह है कि परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न और और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहाँ शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार , सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है, वहीं परम्परागत रूप से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका,जिसकी आबादी 85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है। ऐसी गैर-बराबरी विश्व में कहीं और नहीं है। किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक– सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है। इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है। चमकते अतुल्य भारत में जहाँ तेज़ी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढती जा रही है,वहीँ जो 84 करोड़ लोग 20 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं, वे मुख्यतः बहुजन भारत के लोग हैं। उद्योग-व्यापार, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत बहुजनों के लिए रोजगार के नाम पर अवसर मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में है,जहाँ न प्राविडेंट फंड,वार्षिक छुट्टी व चिकित्सा की सुविधा है और न ही रोजगार की सुरक्षा।
भीषणतम आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से मिली- लोकतंत्र को चुनौती
अवसरों के असमान बंटवारे से उपजी आर्थिक और सामाजिक विषमता का जो स्वाभाविक परिणाम सामने आना चाहिए, वह सामने आ रहा है। देश के लगभग 200 जिले माओवाद की चपेट में आ चुके हैं। लाल गलियारा बढ़ता जा रहा है और दांतेवाड़ा जैसे कांड राष्ट्र को डराने लगे हैं। इस बीच माओवादियों ने एलान का दिया है कि वे 2050 तक बन्दूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा जमा लेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विषमता की खाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो कल आदिवासियों की भांति ही अवसरों से वंचित दूसरे तबके भी माओवाद की धारा से जुड़ जायेंगे, फिर तो माओवादी अपने मंसूबों को पूरा करने में जरुर सफल हो जायेंगे और यदि यह अप्रिय सत्य सामने आता है तो हमारे लोकतंत्र का जनाजा ही निकल जायेगा। ऐसी स्थित सामने न आये ,इसके लिए डॉ.आंबेडकर ने संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर,1949 को राष्ट्र को सतर्क करते हुए एक अतिमूल्यवान सुझाव दिया था।
बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर की चेतावनी
उन्होंने कहा था- ’26 जनवरी 1950 को हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी असमानता। राजनीति के क्षेत्र में हमलोग एक नागरिक को एक वोट एवं प्रत्येक वोट के लिए एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं। हम लोगों को निकटतम समय के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा,अन्यथा यह असंगति कायम रही तो विषमता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है। ’
हमारे महान राजनेता-लोकतंत्र-प्रेमी या लोकतंत्र-विरोधी !
ऐसी चेतावनी देने वाले बाबा साहेब ने भी शायद कल्पना नही किया होगा कि भारतीय लोकतंत्र की उम्र छह दशक पूरी होते-होते विषमता से पीड़ित लोगों का एक तबका उसे विस्फोटित करने पर आमादा हो जायेगा। लेकिन यह स्थिति सामने आ रही तो इसलिए कि आजाद भारत के हमारे शासकों ने संविधान निर्माता की सावधानवाणी की पूरी तरह अनदेखी कर दिया। वे स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी थे। अगर लोकतंत्र प्रेमी होते तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में काबिज हर सरकारों की कर्मसूचियाँ मुख्यतः आर्थिक और सामजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित होतीं। तब आर्थिक और सामाजिक विषमता का वह भयावह मंजर कतई हमारे सामने नहीं होता जिसके कारण हमारा लोकतंत्र विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है। इस लिहाज से पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, जय प्रकाश नारायण, ज्योति बसु जैसे महानायकों की भूमिका का आकलन करने पर निराशा और निराशा के सिवाय और कुछ नहीं मिलता। अगर इन्होंने डॉ.आंबेडकर की चेतावनी को ध्यान में रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के त्वरित गति से ख़त्म होने लायक नीतियाँ अख्तियार की होतीं, क्या 10-15 प्रतिशत परम्परागत सुवुधाभोगी वर्ग का शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, शैक्षणिक–सांस्कृतिक क्षेत्रों पर 80-85 प्रतिशत वर्चस्व स्थापित होता और क्या देश अतुल्य और बहुजन भारत में विभाजित होता?
राजनीति के हमारे महानायकों ने ‘गरीबी-हटाओ’, ’लोकतंत्र बचाओ’, ’भ्रष्टाचार हटाओ’, ’राम मंदिर बनाओ’ इत्यादि जैसे आकर्षक नारे देकर महज शानदार तरीके से सत्ता दखल किया किन्तु उस राज-सत्ता का इस्तेमाल लोकतंत्र की सलामती की दिशा में बुनियादी काम करने में नहीं किया। इनके आभामंडल के सामने भारत में मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या-आर्थिक और सामजिक विषमता-पूरी तरह उपेक्षित रही। इस देश की वर्णवादी मीडिया और बुद्धिजीवियों को इनकी बड़ी-बड़ी जीतों में लोकतंत्र की जीत दिखाई पड़ी। दरअसल इस देश के बुद्धिजीवियों के लिए इतना ही काफी रहा है कि पड़ोस के देशों की भांति भारत में सत्ता परिवर्तन बुलेट, नहीं बैलेट से होता रहा है। सिर्फ इसी बिला पर भारत के लोकतंत्र पर गर्व करनेवालों बुद्धिजीवियों की कमी नहीं रही। अतः महज वोट के रास्ते सत्ता परिवर्तन से संतुष्ट बुद्धिजीवियों ने प्रकारांतर में लोकतंत्र के विस्फोटित होने लायक सामान स्तूपीकृत कर रहे राजनेताओं को डॉ.आंबेडकर की सतर्कतावाणी याद दिलाने की जहमत ही नहीं उठाया। मजे की बात यह है कि आजाद भारत की राजनीति के कथित महानायक आज भी लोगों के ह्रदय सिंहासन पर विराजमान हैं; आज भी उनके अनुसरणकारी उनके नाम पर वोटरों को रिझाने का प्रयास कर रहे हैं। बहरहाल हमारे राष्ट्र नायकों से कहां चूक हो गयी जिससे विश्व में सर्वाधिक विषमता का साम्राज्य भारत में व्याप्त हुआ और जिसके कारण ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज विस्फोटित होने की और अग्रसर है?
आर्थिक-सामाजिक विषमता की उत्पत्ति के पीछे- शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता की अनदेखी
एक तो ऐसा हो सकता है कि गांधीवादी-राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े हमारे तमाम राष्ट्र नायक ही समग्र वर्ग की चेतना से समृद्ध न होने के कारण ऐसी नीतियां ही बनाये जिससे परम्परागत सुविधासंपन्न तबके का वर्चस्व अटूट रहे। दूसरी यह कि उन्होंने आर्थिक और सामाजिक –विषमता की उत्पत्ति के कारणों को ठीक से जाना नहीं, इसलिए निवारण का सम्यक उपाय न कर सके। प्रबल सम्भावना यही दिखती है कि उन्होंने ठीक से उपलब्धि ही नहीं किया कि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी,जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है,की सृष्टि शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) में सामाजिक(social) और लैंगिक(gender) विविधता (diversity)के असमान प्रतिबिम्बन के कारण होती रही है। अर्थात लोगों के विभन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक-शक्ति का असमान बंटवारा कराकर ही सारी दुनिया के शासक विषमता की स्थित पैदा करते रहे हैं। इसकी सत्योपलब्धि कर ही अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देश ने अपने-अपने देशों में शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-टीवी-मीडिया इत्यादि हर क्षेत्र ही सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की नीति पर काम किया और मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाया। किन्तु उपरोक्त देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नोलॉजी इत्यादी सब कुछ ही उधार लेने वाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता नीति से पूरी तरह परहेज़ किया। किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि आजाद भारत के शासकों से भी विदेशियों की तरह ‘डाइवर्सिटी नीति’ अख्तियार करने की प्रत्याशा थी,ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है।
आजाद भारत को अपने शासकों से विविधता के सम्मान की प्रत्याशा थी
ऐसे इतिहासकारों के अनुसार – ‘1947 में देश ने अपने आर्थिक पिछड़ेपन, भयंकर गरीबी, करीब-करीब निरक्षरता, व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी। 15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था:शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था, स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था। भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना, राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था। यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए। इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय,भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं। भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न भागों और लोगों के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था। ’
भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतीकात्मक प्रतिबिम्बन
इतिहासकारों की उपरोक्त टिपण्णी बताती है कि हमारे शासकों को इस बात का इल्म जरुर था कि राजसत्ता का इस्तेमाल हर क्षेत्र में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन में करना है । यही कारण है उन्होंने किया भी,मगर प्रतीकात्मक। जैसे हाल के वर्षो में हमने लोकतंत्र के मंदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री,महिला राष्ट्रपति,मुसलमान उप-राष्ट्रपति, दलित लोकसभा स्पीकर,आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप सामाजिक और लैंगिक विवधता का शानदार नमूना देखा। मगर यह नमूना सत्ता की सभी संस्थाओं,सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग-परिवहन,मिडिया –फिल्म-टीवी,शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश-अध्यापन,पौरोहित्य इत्यादि में पेश नहीं किया गया।
वोट खरीदने के लिए राहत और भीखनुमा घोषणाओं पर निर्भर-हमारे राजनीतिक दल
हमारे स्वाधीन भारत के शासक स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर या आर्थिक-सामाजिक विषमता की सृष्टि के कारणों से अनभिज्ञ रहने के कारण शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य बंटवारे की सम्यक नीति न ग्रहण कर सके। उन्होंने आर्थिक-सामाजिक विषमता के लिए भागीदारीमूलक योजनाओं की जगह ‘गरीबी-उन्मूलन’को प्राथमिकता देते हुए राहत और भीखनुमा योजनाओं पर काम किया जिसकी 80-85 प्रतिशत राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही। शासक दलों की शक्ति के स्रोतों के बंटवारा-विरोधी नीति के फलस्वरूप बहुसंख्यक समाज इतना अशक्त हुआ कि वह शक्ति के स्रोतों में अपनी हिस्सेदारी की बात भूलकर विषमता बढानेवाली राहत भीखनुमा घोषणाओं के पीछे अपना कीमती वोट लुटाने लगा। राजनीतिक दलों ने भी उसकी लाचारी को भांपते हुए लोकलुभावन घोषणायें करने में एक दूसरे से होड़ लगाना शुरू कर दिया।
भीखनुमा घोषणाओं के चलते मुद्दाविहीन रहा 15 वीं लोकसभा चुनाव
इस बीच कई बार जिस तरह शासक दलों ने भीषण विषमता तथा अवसरों के असम बंटवारे को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की,उससे लगा अब आने वाले दिनों में राहत की जगह भागीदारीमूलक घोषणाओं के आधार पर वोट लेने का दौर शुरू होगा। किन्तु,पार्टियों द्वारा विषमता को लेकर गहरी चिंता व्यक्त किये जाने के बावजूद कोई फर्क नहीं पड़ा। मसलन 2009 में आयोजित 15 वीं लोकसभा चुनाव को लिया जाय। उक्त चुनाव से पहले भूमंडलीकरण के दौर में भारत का तेज़ विकास चर्चा का विषय बन गया था। तेज़ विकास को देखते हुए दुनिया के ढेरों अर्थशास्त्री भारत के विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने के दावे करने लगे थे। लेकिन इस तेज़ विकास के साथ चर्चा विकास के असमान बंटवारे की भी कम नहीं थी। उन दिनों नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने बार-बार कहा था ,’गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है। । । मैं उनसे सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है। ’उनसे भी आगे बढ़कर कई मौकों पर राष्ट्र को चेताते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था –‘जिस तेज़ी से विकास हो रहा है,उसके हिसाब से गरीबी कम नहीं हो रही है। अनुसूचित जाति,जनजाति और अल्पसंख्यकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है। देश में जो विकास हुआ है उस पर नज़र डालने पर साफ दिखाई देता है कि गैर-बराबरी काफी बढ़ी है। ’यही नहीं गैर-बराबरी से चिंतित प्रधान मंत्री ने अर्थशास्त्रियों से सृजनशील सोच की मांग भी की थी ताकि आर्थिक-विषमता की चुनौती से जूझा जा सके। उन्ही दिनों रष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने विषमता की समस्या से चिंतित होकर बदलाव की एक नई क्रांति का आह्वान किया था। अतः प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति द्वारा विगत वर्षों में आर्थिक विषमता की समस्या पर एकाधिक बार चिंता व्यक्त किये जाने के बाद उम्मीद थी कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के घोषणापत्र में आर्थिक गैर-बराबरी के खात्मे को अधिक से अधिक स्पेस तथा अनुसूचित जाति,जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए विकास में भागीदारी का सटीक सूत्र देखने को मिलेगा। पर,वैसा कुछ न कर कांग्रेस ने रिश्वत टाइप के लोकलुभावन वादे कर 15 वीं लोकसभा चुनाव को मुद्दाविहीन बना दिया,जिसका अनुसरण दूसरे दलों ने भी किया।
इस प्रक्रिया में भाजपा ने कांग्रेस के तीन रूपये के मुकाबले दो रुपया किलो के हिसाब से 35 किलो चावल देने का वादा का डाला। फिल्म एक्टर चिरंजीवी की ‘प्रजा राज्यम’पार्टी ने आन्ध्र प्रदेश के डेढ़ करोड़ गरीबों को मुफ्त चावल,तेल,और कुकिंग गैस देने की घोषणा कर डाला था। तेलगु देशम का वादा था कि चुनाव जीतने पर वह गरीबों के खाते में कुछ नगद जमा; करा देगी। उसने हर निर्धन की पत्नी को मासिक दो हज़ार ,फिर पन्द्रह सौ और सामान्य गरीब को एक हज़ार नकद देने का वादा किया था। दूसरे दल भी इस किस्म की घोषणायें करने में पीछे नहीं रहे। मतलब साफ़ है कि 15 वीं लोकसभा चुनाव में हमारे राजनैतिक दलों ने अपने घोषणापत्रों में सरकारी खजाने से अरबों रुपये वोटरों को रिश्वत के रूप में देने का एलान कर डाला था। चुनाव बाद जिस तरह कांग्रेस ने मनरेगा को अपनी जीत का कारण बताया,उससे लोकलुभावन घोषणाओं का चलन और बढ़ा।
16वीं लोकसभा चुनाव पूर्व खतरनाक हालात
बहरहाल 2014 के पूर्वार्द्ध में अनुष्ठित होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्र की सत्ता दखल का सेमी-फाइनल माने-जाने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाओं में जिस तरह राहत और भीखनुमा घोषणाओं की होंड मची उसे देखते हुए दावे के साथ क


