डॉ. बिनायक सेन, नारायण सान्याल और पीयूष गुहा को छत्तीसगढ़ के ज़िला न्यायालय में जिन आधारों पर राजद्रोही करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई, उनको देश के अधिकांश प्रगतिशील नागरिकों ने बेबुनियाद बताते हुए आंदोलन छेड़ रखा है. पहली बार इतने मुखर रूप से न्यायालय के फ़ैसले का मुखालफ़त हो रहा है. न्यायालय खुद इस बार कटघरे में है. देश में सैकड़ों जगहों पर प्रदर्शन हुए हैं और लगातार हो रहे हैं. फ़ैसले में न्याय और क़ानून की न्यूनतम वस्तुनिष्ठता (Minimum objective of justice and law) भी जाहिर नहीं हुई. ’आईएसआई’ और ’दास कैपिटल’ जैसे हास्यास्पद प्रसंगों से भरे इस फ़ैसले में कई लचड़पन हैं. मसलन कई अलोकतांत्रिक क़ानूनों के साथ जिस ’छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून’ (Chhattisgarh Special Public Security Act) के तहत मामला सिद्ध बताया गया है उसमें एक ही धारा के दो ऐसी उपधाराओं को एक साथ बिनायक सेन पर आरोपित किया गया, जिसमें एक प्रतिबंधित दल के सदस्यों के लिए है और दूसरी ग़ैर-सदस्यों के लिए.
इस फ़ैसले में जज साहब द्वारा अधिकाधिक धारा लगा देने की इतनी अकुलाहट झलक रही है कि वे मामूली सतर्कता बरतना भी भूल गए कि एक व्यक्ति एक साथ किसी पार्टी का सदस्य और ग़ैर-सदस्य कैसे हो सकता है?
डॉ. बिनायक सेन पर लगाए गए आरोपों (Charges against Dr Binayak Sen) के मद्देनज़र क़ानूनी लचड़पन पर अनेक सवाल उठे हैं और साथ ही इस बात को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं कि राजद्रोह की परिभाषा क्या ब्रिटिश औपनिवेशिक जमाने का ही देश में अब भी चलता रहेगा?
देश में पिछले कुछ वर्षों में राजद्रोह के आरोप जिन लोगों पर लगाए गए हैं उनकी मामूली पड़ताल ही इस बात को साबित कर देती है कि देश में लोकतंत्र का स्पेस कितना बचा है और राजद्रोह जैसे जुमले का इस्तेमाल किस तरह हो रहा है?
जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय और सैयद अली शाह गिलानी
राजद्रोह के आरोप लगाने के पक्ष में बयान देने वाले तमाम ’बुद्धिजीवियों’ और उन्मादी लोगों की जमात उनके तथ्यों का जवाब देने के बजाए फिर से यही रट लगाए रखे कि राजद्रोह तो उन पर लगना ही चाहिए!
अरुंधति राय के मामले में जो संवैधानिक अधिकार दांव पर था, वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित हैं. देश में बोलने-लिखने पर राजद्रोही क़रार देने के मामले ख़तरनाक हद तक बढ़ते जा रहे हैं.
बिनायक सेन की रिहाई को लेकर जब महाराष्ट्र के वर्धा में जिस दिन प्रदर्शन आयोजित होना था उससे एक दिन पहले वर्धा रेलवे स्टेशन से एक पत्रकार सुधीर धवले को राजद्रोही बताते हुए गिरफ़्तार किया गया.
सुधीर मुंबई से ’विद्रोही’ नामक पत्रिका निकालते थे और स्वतंत्र पत्रकारिता करते थे. दलित, आदिवासी मसलों पर उन्होंने कई ऐसे असुविधाजनक मामले उजागर किए थे जो सत्ता के लिए परेशानी पैदा करने वाले थे. वर्धा में भी वो दलित विषय पर केंद्रित एक संगोष्ठी में हिस्सा लेने आए थे.
यूएपीए एक अमोघ हथियार है, किसी पर भी दाग देने वाला. सुधीर धावले इसी के शिकार हुए. इस अलोकतांत्रिक क़ानून का इस्तेमाल बढता जा रहा है. राज्य एक तरफ़ उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक होने का दावा कर रहा है (जिसमें बलाघात इस पर दिया जा रहा है कि चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में बोलने की इतनी आज़ादी भी नहीं है जितनी भारत सरकार हमें-आपको दे रही है), दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों में यूएपीए के इस्तेमाल की बारंबारता भी बढ़ती जा रही है. इस विरोधाभास पर शब्द खरचना अपने को खर्चीला साबित करना होगा!
इसे कुछेक उदाहरणों से ही प्रमाणित किया जा सकता है. मसलन, कश्मीर विश्वविद्यालय के एक सहायक प्रोफ़ेसर नूर मोहम्मद भट्ट को सिर्फ़ इस बिनाह पर राजद्रोह के आरोप के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया कि उसने कश्मीर में चल रहे मौजूदा प्रदर्शनों पर प्रश्न-पत्र तैयार किया है. प्रश्न-पत्र के जिस बिंदु पर पुलिस ने ज़ोर दिया कि इसमें ’पत्थर फेंकने वाले समूहों’ पर टिप्पणी करने को मांगा गया था कि वे देशभक्त हैं अथवा नहीं, वह एक मत आधारित प्रश्न था.
राजद्रोह के समर्थन वाले लोग देशभक्ति की दुहाई देते हैं. क्या हमारी देशभक्ति इतनी कमज़ोर है कि एक प्रश्न से यह ढह जाएगी?
देशभक्ति निर्मित करने का तरीका क्या यह है कि नागरिकों पर प्रतिमत जाहिर करने के लिए भयारोहण किया जाए?
देशभक्ति के भाव ऐसे नहीं पनपते, यह कोई थोपने वाली चीज़ नहीं है. भट्ट को बाद में छोड़ दिया गया. राजद्रोह टाय-टाय-फ़िस्स हो गया. पुलिस का मकसद ही सिर्फ़ यह था कि लोगों के मन में एक डर घर करे. राज्य इसमें सफ़ल रहा. एक सप्ताह टिकाऊ राजद्रोह, दो सप्ताह टिकाऊ राजद्रोह के दिलचस्प मामले देश में नमूदार हो रहे हैं. पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता पहले से निशाने पर थे, अब शिक्षकों को शामिल करने का नया चलन शुरू हुआ है.
भट्ट के साथ-साथ कश्मीर विश्वविद्यालय के ही एक प्रोफ़ेसर प्रो. शाद रमज़ान को गिरफ़्तार (राजद्रोह नहीं लगाया गया; राजद्रोह बनता ही नहीं था) किया गया. प्रोफ़ेसर की ग़लती यह बतायी गई कि उन्होंने विद्यार्थियों को परीक्षा में अंग्रेज़ी से उर्दू में एक ऐसा परिच्छेद अनुवाद करने को दिया जिसमें महिलाओं के स्तन का ज़िक्र था.
इस परिच्छेद में जीववैज्ञानिक तरीके से महिला स्तन का ज़िक्र किया गया था और इस तरह के विवरण छात्र-छात्राएं अपने स्कूल के दिनों में ही पढ़ चुके होते हैं.
अब पुलिस यह तय करने लगी है कि विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर किस तरह के प्रश्न पूछेंगे? इस मामले में डीआईजी अब्दुल गनी मीर की चिंता का दायरा यह था कि इसे (प्रश्न पत्र बनाने की प्रक्रिया) अकेले प्रो. शाद रमज़ान नहीं कर सकते तथा इस घटना में कुछ और लोग भी शामिल रहे होंगे और उन शामिल लोगों को भी नहीं छोड़ा जाएगा.
पुलिस चाहे तो वह सबको पकड़ सकती है. उसको हासिल कुछ ऐसी शक्तियों के प्रतिफ़लन में ये वाक्य निकलते हैं जिसके तहत अपराधी साबित करना चना खाने जितना आसान है. आफ़्सपा, यूएपीए, छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून........ये कुछ बानगियां है.
दरअसल मामला यहीं तक सीमित नहीं है कि पुलिस किसे गिरफ़्तार कर रही है और किसे छोड़ रही है. मामला इससे आगे है. पुलिस खुद गिरफ़्तार नहीं करेगी, मां दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमानी मंच आपको धमकी देगी तो आप किनके शरण में जाएंगे? छत्तीसगढ़ के तीन पत्रकारों अनिल मिश्रा, यशवंत यादव और एनआर पिल्लई को सबक सिखाने की धमकी देने वाले पर्चे, जिसे मां दंतेश्वरी सुरक्षा समिति ने जारी किया था, के आलोक में पुलिस का प्रथम दृष्टया कहना था कि यह तो उनके ही लोग हैं. बाद में मामला अधिक उछलने पर पुलिस अब इन्कार करती फिर रही है कि वह किसी मां दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमानी मंच को नहीं जानती.
अनिल मिश्रा और यशवंत यादव को इससे पहले भी पुलिस धमकियों का सामना करना पड़ा है.
एक लंबा सिलसिला है, पत्रकारों की गिरफ़्तारी का. साल-दर-साल आंकड़ें बढ़ते जा रहे हैं. (देश में अघोषित आपातकाल पिछले कुछ सालों में गहन होता जा रहा है. पत्रकारों के लिए यह बेहद मुश्किल घड़ी है. ख़ासकर पत्रकारों और मोटे तौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी पर यह लेख डेढ़ साल पहले लिखा गया था, जिसमें दो बार थोड़ा-थोड़ा संशोधन किया गया. संशोधन मासिक पत्रिका ’सबलोग’ के लिए था, यहां से लगभग वही सामग्री पेश की जा रही है...)
’दस्तक’ पत्रिका की संपादक सीमा आज़ाद को पूर्व छात्र नेता विश्वविजय और सामाजिक कार्यकर्ता आशा के साथ इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से पुलिस ने बीते साल बिना कोई कारण बताए उस समय उठा लिया था जब वे दिल्ली विश्व पुस्तक मेला से लौट रही थीं.
सीमा की गिरफ़्तारी जनसरोकार की पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों, जिनको पिछले कुछ वर्षों में नियोजित तरीके से आरोप मढ़ कर गिरफ़्तार किया गया हैं, की महज एक अगली कड़ी है.
सीमा आजाद की पृष्ठभूमि जानने के बाद कोई भी सजग व्यक्ति यह आसानी से कयास लगा सकता था कि पुलिस उस पर किस तरह के आरोप लगाने वाली है? पीयूसीएल- जिसकी उत्तर प्रदेश इकाई की वे संगठन मंत्री हैं- ने उनकी गिरफ़्तारी के ठीक पहले के दिनों में इलाहाबाद और कौशाम्बी के कछारी इलाकों के बालू मज़दूरों पर पुलिस-बाहुबलियों के दमन के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठाया. इस पूरी प्रक्रिया में सीमा आज़ाद की सक्रिय भूमिका रही.
इस दौरान कौशाम्बी के नंद का पुरा गांव में पुलिस और पीएसी के जवानों ने ग्रामीणों पर दो बार बर्बर तरीके से लाठीचार्ज किया, जिसमें सैकड़ों मज़दूर घायल हो गए. इसी गांव में पुलिस ने भाकपा (माले)-न्यू डेमोक्रेसी के स्थानीय कार्यालय में आग लगा दी. उनके नेताओं को कई दिनों तक जेल में बंद कर रखा गया.
सीमा आज़ाद ने मानवाधिकार दमन के इस मसले पर एक रिपोर्ट जारी की. अचानक इस घटना के कुछ दिनों बाद उन्हें 7 फ़रवरी 2010 को गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर आरोप लगाया गया कि वे इस पट्टी में नक्सलियों के लिए आधार तैयार कर रही थीं और उसके पास से बड़े पैमाने पर नक्सली साहित्य बरामद हुए हैं. ये दोनों आरोप बहुत ही अमूर्त किस्म के हैं, जिसके तहत आसानी से किसी को गिरफ़्तार किया जा सकता है.
पत्रकार संगठन जेयूसीएस ने पुलिस से मांग की कि पुलिस नक्सली साहित्य के तहत आने वाले ’टेक्स्ट’ को सार्वजनिक करे. यह लोगों के सामने स्पष्ट हो कि पुलिस किन-किन किताबों को नक्सली साहित्य के दायरे में मानती है.
कहना न होगा कि यह महत्वपूर्ण मांग है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में गिरफ़्तार किए गए ज़्यादातर पत्रकारों पर मढ़े गए आरोपों के साथ इस आरोप को भी नत्थी कर दिया जाता है कि उनके पास से प्रतिबंधित नक्सली साहित्य बरामद हुए हैं.
असहमतियों को नक्सलवाद से जोड़कर पुलिस बहुत सुरक्षित महसूस करती है. ’नक्सली’ को लेकर आम जनता में जो तस्वीर बनाई गई है, उस हिसाब से जनता का विश्वास जीतने के लिए यह आरोप बहुत कारगर सिद्ध होता है.
पत्रकारीय लेखन की स्थित यह है कि मज़दूरों के दमन के बारे में लिखना-पढ़ना किसी पत्रकार को “एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट” बना देता है. और सत्ता के लिए “एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट” परेशानी पैदा करने वाला होता है.
वर्तमान समय में ’एक्टिविस्ट’ के मायने में लगातार नकारात्मक ध्वनि भरने की कोशिश की जा रही है.
मालेगांव बम विस्फोट और मुंबई बम विस्फोट के एक आरोपी के केस लड़ रहे (वकील) शाहिद आज़मी की 12 फरवरी 2010 को मुंबई में हत्या कर दी गई थी. वे बाटला हाऊस कांड की जाँच के लिए गठित आठ सदस्यीय वकीलों के पैनल के एक सदस्य थे. आज़मी के बारे में दो बातों पर प्रमुखता से चर्चा की गई कि वे ज़्यादातर ’आतंकवादियों’ के केस लड़ते थे और उनको पहले ’टाडा’ के तहत गिरफ़्तार किया जा चुका है. दोनों बातें एक हद तक सच भी है. यह तथ्य है कि उन्हें ’टाडा’ के तहत गिरफ़्तार किया गया था. लेकिन उनकी (फ़र्जी) गिरफ़्तारी कानूनसम्मत नहीं होने के कारण पुलिस को उन्हें छोड़ना पड़ा था.
इसी घटना के बाद से शाहिद ने वकालत की पढ़ाई की और ऐसे लोगों –जिन्हें आतंकवादी बताकर फ़र्जी तरीके से पकड़ लिया जाता है- का केस लड़ने लगे.
शाहिद की व्याख्या कई लोग इस तरह करते थे मानों वे आतंकवादियों को दोषमुक्त करने के लिए ही वकालत कर रहे हों. देशद्रोह कर रहे हों. बेकसूर लोगों को गिरफ़्तार कर पहले आतंकवादी के तौर पर फिर उसके केस लड़ने वाले को आतंकवादियों के हमदर्द के तौर पर प्रचारित किया जाना और यहीं पर एक्टिविस्ट शब्द को जोड़कर इसके अर्थ को अपने अनुसार ढाल दिया जाना एक बारीक परन्तु नियोजित राजनीति के तहत हो रहा है. इसमें किसी पेशे के भीतर हासिल स्वतंत्रता पर हमले किए जा रहे हैं.
सीमा आज़ाद और शाहिद आज़मी के आस-पास ही 2 फरवरी 2010 को पीपुल्स मार्च के बांग्ला संस्करण के संपादक स्वपन दासगुप्ता की कलकत्ता के एसएसकेएम अस्पताल में मौत हो गई. वे इस दौरान पुलिस हिरासत में थे.
इस मुद्दे पर राज्य की तरफ़ से लगातार एक जिद भरी बातें की गई कि उनकी मौत के कारण को बीमारी माना जाए. विभिन्न जनसंगठनों ने इस मामले को हिरासत की मौत माना.
59 वर्षीय दासगुप्ता को 6 अक्टूबर 2009 को माओवादी से संबंध रखने के आरोप में यूएपीए-1967 की धारा 18, 20 और 39 (जिसमें षड़यंत्र, आतंकवादी कैंप स्थापित करने और आतंकवादी संगठन को मदद करने का उद्धरण है) और भारतीय दंड संहिता की धारा 121, 121(अ), 124(अ), के तहत गिरफ़्तार किया गया था.
पीपुल्स मार्च के किसी संपादक की गिरफ़्तारी का यह दूसरा मामला था. केरल में गोविंदन कुट्टी को इससे दो साल पहले लगभग इसी तरह के आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार किया गया था और बाद में आरोप सिद्ध नहीं होने पर उन्हें छोड़ना पड़ा था.
कोलकाता पुलिस ने पीपुल्स मार्च में प्रकाशित सामग्रियों को राजद्रोही करार देते हुए यूएपीए के तहत न्यायिक हिरासत में भेजने से पहले 28 दिनों तक स्वपन दासगुप्ता को भवानी भवन और लाल बाज़ार पुलिस थाने में रखा. इस दौरान उन्हें भीषण यातनाएँ दी गईं. उन्हें कँपकपाने वाले ठंड के महीनों में नंगे फर्श पर सोने को मज़बूर किया जाता रहा. उन्हें कई रातों तक सोने नहीं दिया गया.
उनके यह कहे जाने पर भी कि वे अस्थमा के मरीज है और उन्हें सोने के लिए रजाई और बिछावन की आवश्यकता है बात अनसुनी कर दी गई. बाद में गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर उन्हें 17 दिसंबर को एसएसकेएम अस्पताल ले जाया गया.
बंद मुक्ति कमेटी के सचिव छोटन दास का कहना था कि दासगुप्ता पुलिस यातना के कारण ही बीमार पड़े. बीमार पड़ने के बाद न तो पुलिस और न ही जेल अधिकारी उन्हें उचित मेडिकल सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे थे. गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर भी उन्हें जमानत नहीं दी गई. यह हिरासत में मौत का मामला है.
इन गिरफ़्तारियों ने हमारे सामने कई सवाल खड़े किए हैं. 20 सितंबर 2009 को उड़ीसा के गजपति ज़िले में एक उड़िया अख़बार ’संबाद’ के संवाददाता लक्ष्मण चौधरी पर राजद्रोह का आरोप (Accusation of treason) लगाते हुए उड़ीसा पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया. पुलिस ने लक्ष्मण के पास से माओवादियों की चिट्ठी (Letter of Maoists) बरामद होने का दावा किया है और इस आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120(ब) और 124(अ) के तहत उस पर मामला दर्ज कर दिया गया. तो क्या किसी के पते पर अगर कोई माओवादी चिट्ठी भेज दे तो पुलिस इस बिना पर उसे गिरफ़्तार कर सकती है? कैसे पता चलेगा कि चिट्ठी किसी माओवादी ने ही भेजी है? और अगर माओवादी ने चिट्ठी भेजा भी तो इससे यह प्रमाणित तो नहीं होता कि चिट्ठी पाने वाला भी माओवादी ही है.
एनडीटीवी उड़ीसा के ब्यूरो प्रमुख संपद महापात्र का कहना है कि लक्ष्मण के पास से वही चिट्ठी बरामद की गई है जो उनके सहित दर्जनों पत्रकारों को भी भेजी गई थी. माओवादी अपनी प्रेस विज्ञप्ति समय-समय पर पत्रकारों को भेजते रहते हैं.
यहाँ कई महत्वपूर्ण सवाल उठते है. मसलन, क्या राज्य से असहमति रखने वाले लोगों/विचारों/संगठनों को अपना पक्ष रखने की आज़ादी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में नहीं है?
अगर माओवादी इस शासन प्रणाली के विरोध में खड़े नज़र आते हैं तो क्या यह पर्याप्त कारण बनता है कि उसको अपना मत रखने या इस विरोध का कारण बताने का अवसर ही न दिया जाए? फिर लोकतंत्र में असहमति को व्यक्त कैसे किया जाए? असहमति अगर व्यक्त न हो और राज्य से असहमत होने पर भय का अनुभव हो तो लोकतंत्र के क्या मायने है?
राज्यसत्ता कैसे यह तय कर लेती है कि अमुक विचार अशांति पैदा करने वाला है, इसलिए इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत नहीं देखा जाना चाहिए? अशांति किसके लिए?
जून 1998 में तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की बैठक बुलाई थी तो उसमें केवल चार राज्य शामिल थे. 2006 में शिवराज पाटिल की इसी बैठक में राज्यों की संख्या 14 हो गई. पिछले साल चिदंबरम के समय संभावित राज्यों की संख्या 18 बताई गई. जम्मू कश्मीर और उत्तरपूर्व के राज्यों को इनमें शामिल नहीं किया गया था.
अब गणित के विद्यार्थी बताएं कि कितने राज्य बच गए जो बिल्कुल शांत हैं? अगर कोई विचारधारा अशांति फैलाने वाली है तो अशांति फैलाने वाले लोगों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती क्यों जा रही है? लेकिन यहाँ इस पक्ष पर चर्चा नहीं की जाएगी. यहाँ केवल इस तथ्य की ओर इशारा किया जाएगा कि राज्य अब न सिर्फ़ माओवादियों की राजनीतिक लड़ाई लड़ने वाले लोगों बल्कि ऐसे लोगों के संवैधानिक हक़ की बात करने वालों को भी चुप कराने में लगी है.
चुप कराने का नायाब तरीका है अधिक से अधिक संख्या में गिरफ़्तारी. इन गिरफ़्तार लोगों में पत्रकार, समाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता या कोई भी ’सहानुभूति रखने वाला’ हो सकता है.
गिरफ़्तारी के लिए कारण तलाशने में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, किसी के माथे पर माओवादी होने का बिल्ला चस्पां भर कर देने से काम आसान हो जाता है. इस बिल्ले को चिपकाने का एक उद्देश्य यह भी होता है कि निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ़्तार कर मनमानी तरीके से पेश आया जाए.
मुठभेड़ (एनकाउंटर) को सही साबित करने के लिए पुलिस के पास दो ही किस्से होते हैं (आपको कोई और पता हो तो ज़रूर बताइए) कि फ़ायरिंग शुरू होने के बाद ’सेल्फ डिफेंस’ के लिए हमने गोली चलाई और सामने वाला मारा गया, या फिर ’आरोपी’ पुलिस की गिरफ़्त से भागने लगा तो मज़बूरन हमें गोली चलानी पड़ी.
पिछले साल 20 नवंबर को उड़ीसा के कोरापुट ज़िले में चासी मुलिया आदिवासी संघ (सीएमएएस) के दो नेताओं के. सिंगाना और एंड्र्यू नचिका को पुलिस ने उस समय गोली मार दी जब नरायणपत्तना ब्लॉक में आदिवासी ज़मीन को ग़ैर-आदिवासियों को आवंटित करने के और इस आवंटन के दौरान गांव में पुलिस द्वारा महिलाओं से छेड़खानी किए जाने के विरोघ में स्थानीय लोग शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. इस घटना की ख़बर तक नही बनी.
इससे दो महीने पहले लक्ष्मण चौधरी की गिरफ़्तारी का असर ख़बरों के चुनाव में स्पष्ट हो रहा था. उड़ीसा उस समय हॉट केक बना हुआ था.
एल्युमिनियम माइनिंग के लिए हज़ारों एकड़ ज़मीन को अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांता ने बॉक्साइट उत्खनन के लिए उसी समय खरीदी थी. (बाद के दिनों में पर्यावरण मंत्रालय ने काम को आगे बढ़ाने पर रोक लगा दी; हालांकि ताजा ख़बर यह है कि अनिल अग्रवाल ने वापस वह अधिकार हासिल करने के लिए जयराम रमेश से घंटे भर बातचीत की है) जिस जगह पर यह माइनिंग की जानी थी वहाँ कोंध आदिवासी लंबे समय से रह रहे हैं.
भारत के मानवशास्त्री इसका लेखा-जोखा ज़्यादा बेहतर तरीके से देंगे कि कोंध भारत की बहुत ही प्राचीन जनजातियों में से है. लेकिन अगर कोई मानवशास्त्री किसी आदिवासी के बारे में तत्कालीन राजनीति और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिहाज तक लिख-पढ़ रहा है तो राज्य के लिए उसकी सीमा निर्धारित करना बहुत ज़रूरी हो गया है. यह इसलिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि जिस आदिवासी के बारे में बताया जा रहा है, वह कहीं किसी कंपनी के हित के आड़े तो नहीं आ रहा, क्योंकि वह राज्य के खिलाफ़ कोई प्रदर्शन तो नहीं कर रहा, क्योंकि वह विकास के वर्तमान मॉडल के विरोध में तो नहीं खड़ा है, क्योंकि वह विस्थापन के बाद सही पुनर्वास के लिए ठोस तर्क तो नहीं जुटा रहा?
अगर इन तमाम सवालों का जवाब हाँ है तो राज्य के लिए यह एक ख़तरा है और उस मानवशास्त्री को लिखने के बाद सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि छत्तीसगढ़ में कोई तीन साल पहले 22 जनवरी 2008 को मानवशास्त्री और दैनिक भास्कर के पूर्व ब्यूरो प्रमुख प्रफुल्ल झा को गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर प्रतिबंधित नक्सली साहित्य रखने के साथ- साथ रायपुर पुलिस द्वारा पकड़े गए हथियार के एक जखीरे से संबंध रखने के भी आरोप लगाया गया है.
पीयूसीएल के अध्यक्ष राजेंद्र सायल, झा के बारे में बताते हैं कि वे एक ऐसे पत्रकार हैं जिनके विश्लेषण तमाम राष्ट्रीय समाचार चैनलों में अक्सर शामिल किए जाते हैं.
यहाँ वापस लक्ष्मण चौधरी के बारे में बात करते हैं. अगर हम लक्ष्मण चौधरी की पृष्ठभूमि को जाने तो अपने-आप यह बात साफ हो जाएगी कि उन पर लगे आरोपों में कितना दम है. कोई भी व्यक्ति अगर माओवाद के क़रीब अपने को पा रहा है तो जाहिर है कि वह (और अगर वैचारिक सामंजस्य है तो परिवार भी) घोर दक्षिणपंथी संस्थाओं से दूर रहेगा.
चौधरी की पत्नी सरस्वती शिशु मंदिर में प्राइमरी कक्षा की शिक्षिका हैं. सरस्वती शिशु मंदिर के इतिहास के बारे में ज़्यादा बताने की ज़रूरत नहीं है कि कैसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक पूरी पीढ़ी को अपने तरीके से शिक्षित करने के लिए इन स्कूलों की श्रृंखला देश भर में चलाई.
लक्ष्मण चौधरी के ही अख़बार ’संबाद’ में काम करने वाले साथी पत्रकार रुपेश साहू बताते हैं कि मोहना पुलिस स्टेशन से उनको लगातार धमकियाँ मिल रही थीं, क्योंकि उसने गांजा माफियाओं के साथ पुलिस की सांठ-गांठ की पोल खोलने सहित कई संस्थागत अपराधों के बारे में खुली रिपोर्टिंग की थी. किसी को दोषी बताने या ’अपराधी’ को गिरफ़्तार करने की ज़िम्मेदारी राज्य के जिस हिस्से (पुलिस) के पास है ज़ाहिर तौर पर वह हिस्सा अपने-आप को अपराधी कहे जाने पर चुप नहीं रहेगा.
इस तरह की रिपोर्टिंग के बाद पुलिस के धैर्य को समय-समय पर हम देख ही चुके हैं. 6 सितंबर 1995 को मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह कालड़ा को उस समय उठा लिया गया, जब उसने पुलिस द्वारा हज़ारों लोगों के सामूहिक दाह संस्कार का मामला उजागर किया था.
कालड़ा के बारे में तब से कोई जानकारी नहीं है. हम कल्पना कर सकते है कि उनका क्या हुआ होगा?
निवारक निरोध कानून (Preventive detention law) राज्य मशीनरी के लिए एक ऐसा अचूक हथियार है जिसका अपनी ज़रूरत के हिसाब से वह हर ज़रूरी मौकों पर इस्तेमाल करती रही है. यह ज़रूरत लगातार फैलती जा रही है. इसके अंतर्गत समय-समय पर पीडीए-1950, मिसा-1971, रासुका-1980, सीओएफईजीएसए-1974, टाडा-1985, पोटा-2002, यूएपीए-1967, आफ्सपा-1958, छतीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून 2005, आंध्रप्रदेश जनसुरक्षा कानून, मकोका, यूपीकोका जैसे कई कानून बने हैं जो लोगों के संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं. बावज़ूद इसके कई राज्य ऐसे कानून बनाने के प्रति अपनी रूचि प्रदर्शित कर रहे हैं.
17 दिसंबर 2007 को उत्तराखंड के पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत राही को उनके घर से गिरफ़्तार कर लिया गया। 48 वर्षीय श्री राही ’द स्टेट्समैन’ के चर्चित पत्रकार रह चुके हैं। उन पर भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत राजद्रोह के अतिरिक्त आधा दर्जन से अधिक धाराएं लगाई गईं। इसके अतिरिक्त् उन पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम की भी कई धाराएं लगाई गईं। पुलिस रिकार्ड में इनकी गिरफ़्तारी 22 दिसंबर 2007 को उत्तराखंड के हसपुर खट्टा के जंगलों से दिखाई गई. राही पर प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) समूह के जोनल कमांडर होने का आरोप है.
उनकी बेटी शिखा राही बताती हैं कि कैसे उनके पिता को देहरादून से गिरफ़्तार कर हरिद्वार लाया गया और उनकी गुदा में मिट्टी का तेल डालने की धमकी देने सहित यह भी कहा गया कि वे (पुलिस) अपने सामने शिखा का बलात्कार करने के लिए श्री राही को मज़बूर कर देंगे. अंतत: शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित करने के बाद 22 दिसंबर को उनकी गिरफ़्तारी दिखाई गई.
प्रशांत राही ने उत्तराखंड के पृथक राज्य बनने के आंदोलन में, टिहरी बांध के विस्थापन के विरोध में हुए आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाने सहित उत्तराखंड की अनेक जनसमस्याओं पर महत्त्वपूर्ण रपटें लिखी हैं. उनके मित्र और ’गढवाल पोस्ट’ के संपादक अशोक मिश्रा मानते हैं कि राही को सिर्फ़ उनकी राजनीतिक विचारधारा की वजह से परेशान किया जा रहा है. पुलिस ने इस समय उनको इसलिए गिरफ़्तार किया क्योंकि वे उधमसिंह नगर में ज़मीन, शराब और बिल्डिंग माफिया के ख़िलाफ़ लोगों को गोलबंद करने में लगे हुए थे.
खुशी की बात है कि पुलिस ने उनके साथ ए के-47 नहीं दिखाई या फिर उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार नहीं गिराया. प्रशांत राही, लक्ष्मण चौधरी और सीमा आज़ाद के बीच यह एक बड़ी समानता है कि माफिया के बारे में लिखना उनकी गिरफ़्तारी का तत्काल कारण बनी. और इन तीनों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए.
हर दौर में राज्य के पास एक ऐसा विषय होता है जिसके आगे तमाम दलीलें अंतत: बौनी नज़र आती हैं. फ़िलवक़्त नक्सलवाद ऐसा ही विषय है. नक्सलवाद नामक शब्द से अगर किसी का साबका हो जाए तो उसकी मुश्किलें वहीं से शुरू हो जाती हैं. किसी को गिरफ़्तार करने के लिए उसको या उसकी विचारधारा या फिर संगठन को माओवादी से मिला हुआ घोषित करने में पुलिस को चंद मिनट का ही वक़्त लगता है. ’तेलंगाना जर्नलिस्ट फोरम’ (टीजेएफ) का माओवादियों से संबंध होने के आरोप में 4 दिसंबर 2007 को मुसी टीवी के एडिटर और टीजेएफ के सह संयोजक पित्ताला श्रीशैलम को गिरफ़्तार कर लिया गया. उस पर माओवादियों के संदेशवाहक होने का आरोप लगाया गया. बाद में आरोप सिद्ध नहीं होने के कारण 13 दिसंबर को ही उनको छोड़ दिया गया.
श्रीशैलम की गिरफ़्तारी भी पुलिस रिकार्ड में एक दिन बाद अर्थात 5 दिसंबर को दर्शाई गई.
क्या पुलिस द्वारा आनन-फानन में गिरफ़्तारी करने के बाद आरोप गढ़ने, उसको सिद्ध करने के लिए (फर्जी) ’सबूत’ जुटाने और मनोनुकूल माहौल बनाने के लिए गिरफ़्तारी से पहले पर्याप्त वक़्त नहीं मिल पाता कि ज़्यादातर गिरफ़्तारियों में इस तरह के प्रचलन को बढावा दिया जा रहा है? या फिर यह इसलिए हो रहा है ताकि आरोपियों का इस बीच ’पुलिस कस्टडी’ में अनौपचारिक ’स्वागत’ किया जा सके?
गृहमंत्री पी. चिदंबरम के चुनाव क्षेत्र शिवगंगा में एक व्यक्ति को गणतंत्र दिवस के दिन आदिवासियों के बीच एक पर्चा बांटने के कारण राजद्रोह के आरोप के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया. इस पर्चे में यह सवाल उठाया गया था कि देश में गणतंत्र लागू होने के बाद साठ साल के सफर में आदिवासियों ने अब तक क्या पाया है, जिन आधारों पर उन्हें गणतंत्र दिवस मनाना चाहिए?
दिलीप ख़ान
(दखल की दुनिया से साभार)