लोकतंत्र कहां बसता है? लोकतंत्र की पहचान क्या है ?

नई दिल्ली, 27 जनवरी, 2019। क्या छोटे राज्यों के साथ-साथ अब देश में सांसदों की तादाद भी बढ़ाने की जरूरत है। यह यक्ष प्रश्न उठाया है चर्चित एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी ने। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने प्रतिप्रश्न भी किया है कि क्या इससे चोरों और अपराधियों की टोली ज्यादा बड़ी हो जाएगी। मसलन अभी 545 सासंदो में से 182 ऐसे दागी हैं जो भ्रष्टाचार और कानून को ताक पर रख अपना हित साधने के आरोपी हैं। तो फिर जनता के लिए कितना मायने रखता है लोकतंत्र का मंदिर।

पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।

श्री बाजपेयी ने अपने ब्लॉग में जो लिखा है उसके संपादित अंश हम यहां साभार दे रहे हैं। पुण्य प्रसून बाजपेयी

रोशन है लोकतंत्र....क्योंकि जगमग है रायसीना हिल्स की इमारतें !

तो 70वें गणतंत्र दिवस को भी देश ने मना लिया। और 26 जनवरी की पूर्व संध्या पर भारत को तीन “भारत रत्न“ भी मिल गए। फिर राजपथ से लेकर जनपथ और देश भर के राज्यों में राज्यपालों के तिरंगा फहराने के सिलसिले तले देश के विकास और सत्ता की चकाचौंध को बिखराने के अलावे कुछ हुआ नहीं तो गणतंत्र दिवस भी सत्ता के उन्हीं सरमायदारों में सिमट गया जिनकी ताकत के आगे लोकतंत्र भी नतमस्तक हो चुका है। संविधान लागू हुआ तो 1952 में आम चुनाव संपन्न हुआ। तब चुनाव आयोग का कुल दस करोड़ रुपया खर्च हुआ। और गणतंत्र बनने के 70वें बरस जब देश चुनाव की दिशा में बढ़ चुका है तो हर उम्मीदवार अपनी ही सफेद-काली अंटी को टटोल रहा है कि चुनाव लड़ने के लिए उसके पास कितने सौ करोड़ रुपये हैं। पर आज इस बात को दोहराने का कोई मतलब नहीं है लोकतंत्र कहलाने के लिए देश का चुनावी तंत्र पूंजी तले दब चुका है। जहां वोटों की कीमत लगा दी जाती है। और हर नुमाइन्दे के जूते तले आम लोगों की न्यूनतम जरूरतें रेंगती दिखाई देती हैं। और जब नुमाइन्दे समूह में आ जाएं तो पार्टी बन कर देश की न्यूनतम जरूरतों को भी सत्ता अपनी अंटी में दबा लेती है। यानी रोजगार हो या फसल की कीमत। शिक्षा अच्छी मिल जाए या हेल्थ सर्विस ठीक ठाक हो जाए। पुलिस ठीक तरह काम करे या संवैधानिक संस्थान भी अपना काम सही तरीके से करें। पर ऐसा तभी संभव है जब सत्ता माने। सत्ताधारी समझे। और नुमाइन्दों का जीत का गणित ठीक बैठता हो।

यानी देश किस तरह नुमाइन्दों की गुलामी अपनी ही जरूरतों को लेकर करता है ये किसी से छुपा नहीं है। हां, इसके लिए लोकतंत्र के मंदिर का डंका बार-बार पीटा जाता है। कभी संसद भवन में तो कभी विधानसभाओं में। और नुमाइन्दों की ताकत का एहसास इससे भी हो सकता है कि मेहुल चोकसी देश को अरबों का चूना लगाकर जिस तरह एंटीगुआ के नागरिक बन बैठे, वैसे बाईस एंटीगुआ का मालिक भारत में एक सासंद बन जाता है। यानी संसद में तीन सौ पार सासंदों की यारी या ठेंगा दिखाकर माल्या, चौकसी या नीरव मोदी समेत दो दर्जन से ज्यादा रईस भाग चुके हैं और संसद इसलिए बेफिक्र है क्योंकि अपने अपने दायरे में हर सांसद कई माल्या और कई चौकसी को पालता है और अपने तहत आने वाले 22 लाख से ज्यादा वोटरों का रहनुमा बनकर संविधान की आड में रईसी करता है।

जी, एंटिगुआ की कुल जनसंख्या एक लाख है और भारत में एक सांसद के तहत आने वाले वोटरों की तादाद 22 लाख।

सच यही है कि दुनिया में भारत नंबर एक का देश है जहां सबसे ज्यादा वोटर एक नुमाइन्दे के तहत रहता है। 545 सासंदों वाली लोकसभा में हर एक सासंद के अधीन औसतन बाईस लाख बीस हजार 538 जनता आती है। और चीन जहां की जनसंख्या भारत से ज्यादा वहां नुमाइन्दों की तादाद भारत से करीब छह गुना ज्यादा है। यानी चीन के एक सांसद के तहत 4 लाख 48 हजार 518 जनसंख्या आती है, क्योंकि वहां सांसदों की तादाद 2987 है। और अमेरिका में एक सांसद के ऊपर 7 लाख 22 हजार 636 जनसंख्या का भार होता है तो रूस में तीन लाख 18 हजार जनसंख्या एक नुमाइन्दे के अधीन होती है।

तो पहला सवाल तो यही है कि क्या छोटे राज्यों के साथ-साथ अब देश में सांसदों की तादाद भी बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन जिन हालात में दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश की लूट में लोकतंत्र के प्रतीक बने नुमाइंदे ही शामिल हैं, उसमें तो लूट की भागीदारी ही बढ़ेगी। यानी चोरों और अपराधियों की टोली ज्यादा बड़ी हो जाएगी। मसलन अभी 545 सासंदो में से 182 ऐसे दागी हैं जो भ्रष्टाचार और कानून को ताक पर रख अपना हित साधने के आरोपी हैं। तो फिर जनता के लिए कितना मायने रखता है लोकतंत्र का मंदिर। और लोकतंत्र के मंदिर के सबसे बड़े मंहत की आवाज भी जब उनके अपने ही पंडे दरकिनार कर दें तो क्या माना जाए। मसलन, देश के प्रधान सेवक लाल किले की प्रचीर से आहवान करते हैं कि एक गांव हर सासंद को गोद ले ले। क्योंकि उसे हर बरस पांच करोड़ रुपये मिलते हैं तो भारत में औसतन एक गांव का सालाना बजट विकास के लिए सिर्फ 10 लाख का होता है तो कम से कम वह तो विकास की पटरी पर दौड़ने लगे। पहले बरस होड़ लग जाती है। लोकसभा-राज्यसभा के 796 सांसदों में से 703 गांव गोद भी ले लेते हैं। अगले बरस ये घटकर 461 पर आता है। 2017 में ये घटकर 150 पर पहुंच जाता है और 2018 में ये सौ के भी नीचे आ जाता है।

लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है कि गांव तक गोद लेने में सांसदों की रुचि नहीं रही। सवाल तो ये है कि 2015 में ही जिन 703 गांव को गोद लिया गया उसके 80 फीसदी गांव की हालत यानी करीब 550 गांव की हालात गोद लेने के बाद और ही जर्जर हो गई। ये सोच है पर देश के सामने तो लूट तले चलती गवर्नेस का सवाल ज्यादा बड़ा है। और इसके लिए रिजर्व बैक के आंकड़े देखने समझने के लिए काफी हैं। जहां जनता का पैसा कर्ज के तौर पर कोई कारपोरेट या उद्योगपति बैंक से लेता है। उसके बाद देश के हालात ऐसे बने हैं कि ना तो उद्योग पनप सके, ना ही कोई धंधा या कोई प्रोजेक्ट उड़ान भर सके। लेकिन इकॉनोमी का रास्ता लूट का है तो फिर बैकिंग सिस्टम को ही लूट में कैसे तब्दील किया जा सकता है ये भी आंकड़ों से देखना कम रोचक नहीं है। मसलन 2014-15 में कर्ज वसूली सिर्फ 4561 करोड़ की हुई और कर्ज माफी 49,018 करोड़ की हो गई। 2015-16 में 8,096 करोड़ रुपय कर्ज की वसूल की गई तो 57,585 करोड़ रुपये की कर्ज माफी हो गई।

इसी तरह 2016-17 में कर्ज वसूली सिर्फ 8,680 करोड़ रुपये की हुई तो 81,683 करोड़ की कर्ज माफी कर दी गई। और 2017-18 में बैको ने 7106 करोड़ रुपये की कर्ज वसूली की तो 84,272 करोड़ रुपये कर्ज माफी हो गए।

लोकतंत्र का तकाजा क्या है?

यानी एक तरफ अगर किसानों की कर्ज माफी को परखें तो सत्ता के पसीने छूट जाते हैं कर्ज माफी करने में। लेकिन दूसरी तरफ 2014 से 2018 के बीच बिना हंगामे के 2,72,558 करोड़ रुपये राइटिंग आफ कर दिये गए। यानी बैंकों के दस्तावेजों से उसे हटा दिया गया जिससे बैंक घाटे में ना दिखे। कमाल की लूट प्रणाली है। लेकिन लोकतंत्र का तकाजा यह है कि सत्ता ही संविधान है तो फिर गणतंत्र दिवस भी सत्ता के लिए। इसीलिए लोकतंत्र की पहरीदारी करने वाले सेवक, स्वयंसेवक, प्रधानसेवक सभी खुश हैं कि रायसीना हिल्स की तमाम इमारतें रोशनी में नहायी हुई हैं। तो लोकतंत्र इमारतों में बसता है और उसकी पहचान अब उसका काम या संविधान की रक्षा नहीं बल्कि एलईडी की चमक है

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