लोकतंत्र की रक्षा के वास्ते अपराधियों को संसद और विधानमंडलों से बाहर रखना होगा
लोकतंत्र की रक्षा के वास्ते अपराधियों को संसद और विधानमंडलों से बाहर रखना होगा
शेष नारायण सिंह
आजकल राजनीति में भले आदमियों के साथ साथ अपराधी भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं। लोकसभा और विधान सभाओं में इनकी संख्या खासी है। पहली बार 1980 में बड़ी संख्या में विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के तत्कालीन युवराज संजय गांधी ने अपराधियों या आपराधिक चावी वाले दबंगों को टिकट बांटी थी। उसके बाद तो सभी पार्टियों में अपराधियों को टिकट देने का फैशन हो गया। एक से एक अपराधी और बाहुबली लोग लोकतंत्र के इन पवित्र केन्द्रों में पहुंचने लगे। दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी बड़ी तादाद अपराधियों की है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश दिया कि किसी भी विधान मंडल का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि का रिकार्ड हलफनामे की शक्ल में जमा करना पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय को उम्मीद थी कि जब जनता को मालूम हो जाएगा कि आपराधिक छवि के लोग उम्मीदवार हैं तो वह उनको वोट नहीं देगी। अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में विद्वान् राजनीतिक विश्लेषक सर्वमित्रा सुरजन ने लिख दिया था कि परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो आपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं दें, परंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है। 'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनल' ने अपनी रिपोर्ट में संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत को स्थान 72वां प्रदान किया है।
स्वतंत्रता के बाद पिछले 60 वर्ष में अपने देश में लोकतंत्र मजबूत तो हुआ है, लेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा है, जिससे चुनावों के साफ-सुथरे होने पर संदेह के बादल गहराने लगे हैं। दिनों-दिन यह मुद्दा लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से अहम होता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपराधी तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है अब तो बाकायदा उनकों टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है। भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें किसी न किसी प्रकार के अपराधी न हो।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में यदि अपराधियों का रिकॉर्ड देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया था कि यदि कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह हलफनामा देगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह अनुमान था कि जब वोटरों को किसी व्यक्ति का आपराधिक रिकॉर्ड मालूम होगा तो वह उसे किसी हालत में वोट नहीं देगा। परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो अपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं दें, परंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है।
'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनल' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत का स्थान 72वां है। यहां तक कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लगभग एक तिहाई सांसद हैं, जिन पर कुल 413 मामले लंबित हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या तब और ज़्यादा बढ़ गई जब एक पार्टी के बदले कई पार्टियों की मिलीजुली सरकार बनने लगी, खासकर क्षेत्रीय पार्टियों में इतने अपराधी भर पड़े हैं कि उनकी कोई गणना भी नहीं कर सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपराध साबित नहीं हो जाता है तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। पिछले अनेक वर्षों से तमाम संगठन अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। फिर भी विधानसभाओं तथा संसद में अपराधियों की संख्या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कोई भी यह नहीं बताता है कि जनता आखिर अपराधियों को क्यों चुन कर भेजती है। यह तो तय है कि उनके गले पर अपराधियों की बन्दूकें नहीं लगी होतीं। और तो और अब तो बात यहाँ तक आ चुकी है कि जो जितना बड़ा अपराधी होगा उसके जीतने की उम्मीद भी अधिक होगी।
जब तक इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा जाएगा कि आम जनता ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले नेताओं को छोड़कर अपराधियों को ही वोट क्यों देती है, तब तक अपराधियों को निर्वाचित होने से नहीं रोका जा सकता है। यह तय है कि अपराधियों को निर्वाचित होने से रोकने के लिये बनाए जाने वाले कानून एक दिन स्वयं लोकतंत्र का ही गला घोंट देंगे। एक और चौंकाने वाली बात है कि स्विस सरकार के नवीन घोषणा के अनुसार यदि भारत सरकार उनसे मांगे तो वह यह बता सकते हैं कि उनके बैंकों में किन भारतीयों के कितने पैसे जमा है। हालत बहुत ही चिंताजनक हैं लेकिन इसी में से कहीं उम्मीद भी नज़र आने लगी है।
केंद्र सरकार के विधि आयोग ने अपनी 244वीं रिपोर्ट दाखिल कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान विधि आयोग को आदेश दिया था कि चुनाव जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में सुधार के लिए सुझाव तैयार किये जाएँ। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना बहुत ज़रूरी है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं। सरकार ने अब इस रिपोर्ट को सर्वोच्च न्यायालय के सामने पेश कर दिया है। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए पी शाह की अध्यक्षता वाले इस आयोग की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं वे अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। आयोग की रिपोर्ट में सख्त प्रावधान तो हैं लेकिन ऐसे सुझाव भी हैं जिनको लागू किये जाने पर कानून का दुरुपयोग रोक जा सकेगा। रिपोर्ट का नाम ही "चुनावी अयोग्यताएं" बताया गया है। इसमें एक महत्वपूर्ण प्रावधान तो यही है कि गलत हलफनामा देने वाले को जेल की सज़ा बढ़ा दी जानी चाहिए। अभी तक का प्रावधान यह है कि जब तक मुक़दमे का फैसला न हो जाए तब तक किसी को चुनाव लड़ने से रोक नहीं जा सकता। मौजूदा रिपोर्ट में लिखा है कि जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय हो जाएँ उसके बाद से उसे चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने से रोक दिया जाए। हालांकि जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि एफ आई आर लिखे जाने के बाद ही अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए लेकिन विधि आयोग का मानना है कि यह उचित नहीं है। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने से किसी नेता को चुनाव रोकने से रोकना संभव होने लगेगा तो पुलिस की मनमानी बढ़ जायेगी। इसलिए जब तक किसी स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया से न गुज़र जाए तब तक किसी भी जांच को प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए। अभी नियम यह है कि किसी भी अदालत से सज़ा पाने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। आयोग का कहना है कि अगर नियम का दुरुपयोग रोकने की सही व्यवस्था की जा सके तो अपराध तय होने के बाद ऐसे अभियुक्तों को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जिनके अपराध में कम से कम पांच साल की सज़ा का प्रावधान हो। अभी तक देखा गया है कि सज़ा हो जाने के बाद अपराधी को रोकने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं है। भारतीय न्याय व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि मुक़दमों के अंतिम निर्णय में बहुत समय लगता है। बहुत सारे मामले ऐसे हैं जहां सबको मालूम रहता है कि अपराधी कौन है लेकिन वह अदालत से बरी हो जाता है। हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना भी कम नहीं है लेकिन लेकिन आयोग का कहना है की इसमें ऐसे नियम बनाए जा सकते हैं जिससे कानून का दुरुपयोग न हों। एक सुझाव यह भी है कि सांसद और विधायक के खिलाफ दाखिल मुक़दमों में साल भर के अन्दर फैसला आ जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस एक सुझाव को मान लिया है और इस सन्दर्भ में फैसला भी दे दिया है।
विधि आयोग की मौजूदा सिफारिशों को मान लेने से अपराधियों को बाहर रखने में ज़रूरी मदद मिलेगी। यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर फौरन कार्रवाई न हुयी तो बहुत देर हो जायेगी। इस चुनाव में भी साफ़ नज़र आ रहा है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जो पूरी तरह से अपराधी हैं और संसद की गरिमा को निश्चित रूप से गिरायेगें। ऐसे लोगों पर लगाम लगाए जाने की ज़रूरत है।


