विकास की विसंगति और विश्व भाषाएँ
विकास की विसंगति और विश्व भाषाएँ

भाषाओं के उजड़ने का इतिहास
ऐतिहासिक युगों के दौरान बोलने वालों के उजड़ने के साथ-साथ उनकी संस्कृतियाँ और भाषाएँ भी उजड़ती रही हैं पर बोलने वाले पनपें और समृद्धि की ओर अग्रसर हों पर उनकी भाषाएँ उजड़ती जायें, यह विसंगति औद्योगिक क्रान्ति के बाद विकसित शहरीकरण, व्यापार के विस्तार, राष्ट्र-राज्यों के उदय और राज्य द्वारा अंगीकृत भाषाओं के माध्यम से सार्वभौम शिक्षा के प्रसार की वह परिणाम है जिसके कारण विश्व की अनेक भाषाएँ या तो विलुप्त हो चुकी हैं अथवा अगले कुछ वर्षों में विलुप्त हो जायेंगी।
वैश्वीकरण और संचार क्रान्ति का भाषाओं के अस्तित्व पर प्रभाव
हाल के कुछ दशकों में तो वैश्वीकरण और संचार क्रान्ति के कारण भाषाओं के चलन से बाहर होने की गति बढ़ गयी है और अंग्रेजी, स्पेनी, चीनी जैसी प्रबल भाषाएँ उत्तरोत्तर उनका स्थान लेती जा रही हैं। इनमें भी अंग्रेजी का प्रकोप सबसे अधिक है।
भाषाओं की विलुप्ति में यूरोपीय उपनिवेशवाद की आपराधिक भूमिका
प्राकृतिक आपदाओं के कारण विलुप्त होती मानव प्रजातियों के अलावा भाषाओं की विलुप्ति में यूरोपीय उपनिवेशवाद की भी बहुत बड़ी और एक प्रकार से आपराधिक भूमिका रही है।
पिछली दो-तीन शताब्दियों में अफ्रीका, मध्य और दक्षिणी प्रशान्त महासागरीय द्वीप समूहों, और आस्ट्रेलिया का लगभग शत-प्रतिशत भाग, आधा एशिया, और अमरीकी महाद्वीपों का चौथाई भाग यूरोपीय उपनिवेशों के अधीन रहा है। इन क्षेत्रों में उपनिवेशों की स्थापना करने वाले यूरोपीय आक्रान्ताओं ने स्थानीय प्रतिरोध को समाप्त करने के लिए न केवल वहाँ के लाखों निवासियों की हत्या कर दी, अपितु उनका हर प्रकार से आर्थिक शोषण करने, भूमि से बेदखल करने, गुलाम बनाकर बेचने तथा सस्ते मजदूरों के रूप में दूर देशों में निर्वासित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस पर भी जो लोग अपनी भूमि पर ही बचे रह गये उनके रीति-रिवाजों और भाषाओं के व्यवहार पर भी प्रतिबंध लगा दिया। विश्व में यही वे क्षेत्र हैं जिनमें न केवल अल्पसंख्यक भाषाएँ विलुप्त होती रही हैं अपितु बहुसंख्यक भाषाएँ भी मरणासन्न स्थिति में पहुँच रही हैं।
विश्व में बहुत सी ऐसी भाषाएँ हैं जिनको बोलने वालों की संख्या कही सौ तो कहीं हजार से भी कम रह गयी है।
इस शताब्दी के अन्त तक आज से बहुत कम होगी संसार में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या
एक सर्वेक्षण के अनुसार में वर्तमान में संसार की ज्ञात छः हजार पाँच सौ बयालीस भाषाओं में इक्यावन भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वाला मात्र एक व्यक्ति शेष रह गया है। इनमें से अट्ठाईस भाषाएँ आस्ट्रेलिया में हैं। पाँच सौ भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वाले सौ से भी कम रह गये हैं। एक हजार पाँच सौ भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या एक हजार से भी कम और तीन हजार भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या दस हजार से भी कम है।
इस स्थिति को देखते हुए अधिकतर भाषा वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि इस शताब्दी के अन्त तक संसार में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या आज से बहुत कम होगी पर यह कितनी कम होगी इस बात पर मतभेद है। जो आशावादी हैं उन्हें लगता है कि भाषाओं को बचाने का प्रयास करने पर यह संख्या तीन हजार के लगभग रह जायेगी और जो निराशावादी हैं, उनके विचार से वर्तमान भाषाओं में से नब्बे प्रतिशत काल-कवलित हो जायेंगी और अगली एक-दो शताब्दियों में भले ही औपचारिक रूप से यह संख्या दो सौ के आसपास दिखायी दे, पर वास्तविक व्यवहार में कुछ ही भाषाएँ प्रचलन में रह जायेंगी।
भाषाओं की विलुप्ति में प्राकृतिक आपदाओं और बाहरी दबाव के साथ ही किसी भाषा-भाषी समूह के सम्पन्न और स्वभाव से ही सुविधा भोगी वर्ग की बहुत बड़ी भूमिका होती है। सुविधाएँ पाने, स्थानीय जन-समूहों पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने और अपनी सम्पदा तथा सामाजिक स्थिति को बचाये रखने के लिए विजेताओं की चाटुकारिता के लिए तत्पर यहसबसे लचीला और अवसरवादी वर्ग सत्ता पर आसीन लोगों से हर तरह का समझौता करने के लिए तैयार रहता है और अपने आकाओं की कृपा पाने के लिए अपनी सांस्कृतिक विरासत की उपेक्षा कर उनकी भाषा, परंपरा और रीति-रिवाजों को अपनाने लगता है। इस वर्ग की आर्थिक सामाजिक स्थिति की चमक-दमक से व्यामोहित अन्य वर्गों में भी उनकी देखा-देखी यह बीमारी फैलने लगती है। परिणाम अपनी भाषाओं और परंपराओं से अलगाव के रूप में सामने आता है।
यह एक और ऐतिहासिक सत्य है कि जो समूह सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न के कारण अपने धर्म और परंपराओं को छोड़ कर विजेता आगंतुकों के धर्म और परंपराओं को अपनाने के लिए विवश होते हैं, वे बाहरी तौर पर भले ही अपनी परंपराओं से विमुख दिखायी दें, वास्तव में पीढ़ियों तक अपने मूल संस्कारों और परंपराओं से जुड़े रहते हैं, ( कबीर आदि निर्गुणिये सन्त इसके प्रमाण हैं) पर सुविधाभोगी वर्ग बाहर से अपने धर्म और समाज से जुड़ा हुआ ही क्यों न दिखायी दे, अन्तस् से सत्ताधारी वर्ग की परंपराओं को अपनाने में पीछे नहीं रहता।
Thoughts on the current state of languages
भाषाओं की वर्तमान स्थितियों पर विचार किया जाय तो यह लगता है कि जो जन समूह स्वयं विलुप्ति के कगार पर हैं उनकी भाषाओं का अन्त तो होना ही है। अतः उनको और उनकी परंपराओं को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित करना सारे विश्व का दायित्व है, पर जो लोग संख्या और आर्थिक दृष्टि से उत्तरोत्तर विवर्द्धमान हैं, अपनी भाषा और परंपराओं की विरासत को बनाये रखना उनका अपना दायित्व है।
विसंगति यह है कि प्रकृति की मार झेल रहे जन-समूहों में अपनी परंपराओं और भाषाओं से अलगाव की उतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी अपने आप को सभ्य और सुशिक्षित कहने वाले अपेक्षाकृत सम्पन्न समाजों में है।
किन बातों पर निर्भर करता है किसी भाषा का भविष्य
वस्तुतः किसी भाषा का भविष्य बोलने वालों की संख्या, अगली पीढ़ी की ओर उसके संक्रमण और उस भाषा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण पर निर्भर करता है और यह दृष्टिकोण उस भाषा को अपनाने से मिलने वाले आर्थिक और सामाजिक अवसरों की संभावना पर निर्भर करता है। अतः जब भी दो भाषाओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा होती है तो जो भाषा सर्वाधिक आर्थिक और सामाजिक अवसर प्रदान करती है देर-सबेर वही भाषा प्रचलन में रहती है और जिन भाषाओं में यह सामर्थ्य नहीं होती वे प्रचलन से बाहर हो जाती हैं।
इस ऐतिहासिक सत्य को स्वीकार करने के बावजूद भाषाओं की विलुप्ति को एक सामान्य परिघटना मान कर, उन्हें बचाने का प्रयास न करना विश्व मानवता की सहस्राब्दियों के अंतराल में संचित सांस्कृतिक धरोहर के विनाश में हमारी सहभागिता के समान होगा, इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता।
दूसरों की भाषा का विरोध करना अपेक्षित नहीं हैं। अपेक्षा है अपनी भाषा को प्रश्रय देने की। इसके लिए न तो आन्दोलन करने की आवश्यकता है, न दूसरी भाषाओं में अंकित नामपट्टिकाओं पर कालिख पोतने की, या दूसरी भाषाओं का किसी प्रकार का तिरस्कार करने की। आवश्यकता है घर में अपने बच्चों से, अपने गाँव देहात और क्षेत्र के लोगों से अपनी भाषा में वार्तालाप करने की आदत डालने और इस आदत को बनाये रखने के लिए प्रेरित करने की।
आज परिस्थितियाँ और परिवेश हमें अपने आप बहुभाषी बना रहे हैं। बस अपनी भाषा और परंपराओं को हीन समझ कर तिलांजलि न दें, यही अपनी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में हमारा महान योगदान होगा।
O- तारा चंद्र त्रिपाठी


