वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-भारतीयों की खुशी को लगा भोगवाद का ग्रहण
वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-भारतीयों की खुशी को लगा भोगवाद का ग्रहण

वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक : भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश
Global Happiness Index: India is the country with the most depressed people in the world
वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में भारत की स्थिति : भारतीयों की खुशी को लगा भोगवाद का ग्रहण
हम भारतीयों का जीवन दर्शन (life philosophy of indians) रहा है- 'संतोषी सदा सुखी।' हालात के मुताबिक खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। दुनिया में भारत ही संभवतः एकमात्र ऐसा देश है, जहां आए दिन कोई न कोई तीज-त्योहार-व्रत और धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव मनते रहते हैं, जिनमें मगन रहते हुए गरीब से गरीब से व्यक्ति भी अपने सारे अभाव और दुख-दर्द को अपना प्रारब्ध मानकर खुश रहने की कोशिश करता है।
इसी भारत भूमि से वर्धमान महावीर ने अपरिग्रह का संदेश दिया है और इसी धरती पर बाबा कबीर भी हुए हैं, जिन्होंने इतना ही चाहा है जिससे कि उनकी और उनके परिवार की दैनिक जरूरतें पूरी हो जाए और दरवाजे पर आने वाला कोई साधु-फकीर भी भूखा न रह सके। लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदलाव आया है। अब लोगों की खुशी और आत्म-संतोष के स्तर में लगातार गिरावट आती जा रही है। इस बदलाव की पुष्टि हाल ही में जारी वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक से भी होती है, जिसमें दुनिया के 158 देशों में भारत को 117वें स्थान पर रखा गया है।
किसी भी देश की तरक्की को मापने का पैमाना क्या है ?
यह 'प्रसन्नता सूचकांक' संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके जारी करता है।
ख़ुशहाली के मामले में भारत से कैसे आगे पाकिस्तान?
हैरान करने वाली बात यह है कि इस सूचकांक में पाकिस्तान, बांग्लादेश, यूक्रेन और इराक जैसे देश प्रसन्नता के मामले में भारत से ऊपर हैं। यानी इन देशों के नागरिक भारतीयों के मुकाबले ज्यादा खुश हैं।
कितनी प्रासंगिक है जीडीपी की अवधारणा?
वैसे किसी भी देश की तरक्की को मापने का सबसे प्रचलित पैमाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर है। लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठते रहे हैं। एक तो यह कि यह किसी देश की कुल अर्थव्यवस्था की गति को तो सूचित करता है, पर इससे यह पता नहीं चलता कि आम लोगों तक उसका लाभ पहुंच रहा है या नहीं। दूसरे, जीडीपी का पैमाना केवल उत्पादन-वृद्धि के लिहाज से किसी देश की तस्वीर पेश करता है। नागरिकों के स्वास्थ्य, रोजगार और उनकी सुरक्षा आदि की कसौटियों पर कोई देश किस मुकाम पर खड़ा है, इसका पता विकास दर के आंकड़ों से नहीं चल सकता। इसलिए जीडीपी के बजाय दूसरे मानक अपनाने के आग्रह शुरू हुए।
'सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक' की अवधारणा किसने पेश की?
इस सिलसिले में सबसे पहले और सबसे ठोस पहल की भूटान ने। 1972 में भूटान के तत्कालीन राजा जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने पहली बार जीडीपी की जगह 'सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक' की अवधारण पेश करते हुए नागरिकों की खुशहाली को देश की तरक्की का पैमाना मानने की वकालत की और इस आधार पर सर्वे भी कराए।
भूटान स्टडीज सेंटर के मुखिया करमा उपा और कनाडियन डॉक्टर माइकल पेनॉक ने राष्ट्रीय प्रसन्नता नापने का एक फार्मूला इजाद किया जो संशोधित होते-होते अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन और फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के दफ्तरों तक जा पहुंचा। वैसे ब्रिटेन में तो टोनी ब्लेयर के जमाने से ही हैप्पीनेस पॉलिसी पर बहस हो रही है, लेकिन डेविड कैमरुन ने सन 2010 में अपने देश में नागरिकों की प्रसन्नता के आंकड़े जुटाने की शुरूआत की। उसके बाद यह अवधारणा जोर पकड़ गई कि सिर्फ आय नहीं, बल्कि कुछ खास आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ मापदंडों के आधार पर नागरिकों की अपनी और अपने समाज की स्थिति के आकलन और संतुष्टि के स्तर को जांचा जाए। इसी अवधारणा के आधार पर अब संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में हर साल वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक जारी किया जाता है। अर्थशास्त्रियों की एक टीम जिन मापदंडों के आधार पर यह सूचकांक तैयार करती है उनमें समाज में उदारता, सहिष्णुता और अपनी पसंद की जिंदगी जीने या अपने बारे में फैसले लेने की आजादी, सामाजिक सुरक्षा, लोगों में स्वस्थ और दीर्घ की जीवन की प्रत्याशा, भ्रष्टाचार आदि प्रमुख हैं।
संयुक्त राष्ट्र के ताजा वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में सबसे अव्वल स्विट्जरलैंड है। शीर्ष पांच में अन्य देश हैं- आईसलैंड, डेनमार्क, नार्वे और कनाडा। इन सभी देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज्यादा है। यानी भौतिक समृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और व्यक्ति की प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है। फिर इन देशों में भ्रष्टाचार भी कम है और सरकारों की ओर से सामाजिक सुरक्षा काफी है। परिवार का या आर्थिक सुरक्षा का दबाव कम है, इसलिए जीवन के फैसले करने की आजादी भी ज्यादा है। जबकि भारत की स्थिति इन सभी पैमानों पर बहुत अच्छी नहीं है, पर हम पाकिस्तान, बांग्लादेश या इराक से भी बदतर स्थिति में हैं, यह बात हैरान करने वाली है। लेकिन इस हकीकत की वजह शायद यह है कि भारत में विकल्प तो बहुतायत में हैं, लेकिन सभी लोगों की उन तक पहुंच नहीं है, जिसकी वजह से लोगों में असंतोष ज्यादा है। इस स्थिति के बरक्स कई देशों में जो सीमित विकल्प उपलब्ध है उनके बारे में भी लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है, इसलिए वे अपने सीमित दायरे में ही खुश और संतुष्ट हैं। फिर भारत में तो जितनी आर्थिक असमानता है, वह भी लोगों में असंतोष या मायूसी पैदा करती है। मसलन, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च ज्यादा होता है, पर स्वास्थ्य के मानकों के आधार पर पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
दरअसल किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। जबकि भारत और चीन का जोर आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया मे अव्वल रहने के बावजूद चीन वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक मे 84वें स्थान पर है।
हमारे देश में पिछले करीब दो दशक से यानी जब से नव उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू हुई हैं, तब से सरकारों की ओर से आए दिन आंकड़ों के सहारे देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है और आर्थिक विकास के ब़ड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे सर्वे भी बताते रहते हैं कि भारत तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है और देश में अरबपतियों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। इन सबके आधार पर तो तस्वीर यही बनती है कि भारत के लोग लगातार खुशहाली की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन हकीकत यह नहीं है।
सूचकांक में बताई गई भारत की स्थिति चौंकाती भी है और चिंतित भी करती है।
अभाव में भी जीने और खुश रहने की कला जानने वाले इस देश में यदि खुशी का स्तर गिर रहा है तो इसकी वजहें सामाजिक मूल्यों मे बदलाव, भोगवादी जीवन शैली और सादगी के परित्याग से जुड़ी हैं।
आश्चर्य की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक खुशहाल दिखते हैं जो अभावग्रस्त हैं। हालांकि अब ऐसे लोगों की तादाद में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका यकीन 'साई इतना दीजिए...' के उदात्त कबीर दर्शन के बजाय 'ये दिल मांगे मोर' के वाचाल स्लोगन में हैं। यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो, कोई खास हर्ज नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने 'ऋणं कृत्वा, घृतम् पीवेत' की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछा कर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं। शान-ओ-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
कुल मिलाकर हर तरफ लालसा का तांडव ही ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। तृप्त हो चुकी लालसा से अतृप्त लालसा ज्यादा खतरनाक होती है। देश भर में बढ़ रहे अपराधों-खासकर यौन अपराधों की वजह यही है। यह अकारण नहीं है कि देश के उन्हीं इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे नीचे है, जिन्हें बाजारवाद ज्यादा स्पर्श नहीं कर पाया है। यह सब कहने का आशय विपन्नता का महिमा-मंडन करना नहीं है, बल्कि यह अनैतिक समृद्धि और उसके सह उत्पादों की रचनात्मक आलोचना है।
भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल 'पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है' के अमूर्त दर्शन पर आधारित नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण से प्रेरित बाजारवाद के आगमन के बाद समाज में बचपन से अच्छे नंबर लाने, करियर बनाने, पैसे कमाने और सुविधाएं-संसाधन जुटाने की एक होड़ सी शुरु हो गई है। इसमें जो पिछड़ता है वह निराशा और अवसाद का शिकार हो जाता है, लेकिन जो सफल होता है वह भी अपनी मानसिक शांति गंवा बैठता है। एकल परिवारों के चलन ने लोगों को बड़े-बुजुर्गों के सानिध्य की उस शीतल छाया से भी वंचित कर दिया है जो अपने अनुभव की रोशनी से यह बता सकती थी कि जिंदगी का मतलब सिर्फ सफल होना नहीं, बल्कि समभाव से उसे जीना है। जाहिर है, इसी का दुष्प्रभाव बढ़ती आत्महत्याओं, नशाखोरी, घरेलू कलह, रोडरेज और अन्य आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में दिख रहा है।
दरअसल, विकास और बाजारवाद की वैश्विक आंधी ने कई मान्यताओं और मिथकों को तोड़ा है। कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की आई एक अध्ययन रिपोर्ट में भी बताया गया था कि भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश है, जहां हर तीसरा-चौथा व्यक्ति अवसाद के रोग से पीड़ित है। यह तथ्य भी इस मिथक की कलई उतारता है कि विकास ही खुशहाली का वाहक है। अध्ययन में दुख, निराशा, अरूचि, अनिद्रा आदि अवसाद के जो मानक बनाए गए थे, उनके आधार पर हमारे देश को स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक अवसादग्रस्त कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे यहां व्यवस्था के जितने भी प्रमुख अंग हैं चाहे वह राजनीतिक नेतृत्व हो, कार्यपालिका हो, न्याय प्रणाली हो, पुलिस हो, सभी से आम आदमी को निराशा-हताशा ही हाथ लगी है। देश के प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों के कब्जे के चलते भी देश में आर्थिक और सामाजिक विषमता को बढ़ावा मिला है। लोकविमुख विकास की सरकारी नीतियों के चलते देश भर में व्यापक पैमाने पर लोगों का विस्थापन हुआ है। उनका यह विस्थापन महज अपने घर जमीन से ही नहीं, बल्कि अपनी सामाजिकता और संस्कृति से भी हुआ है जिसने उनमें दुख और नैराश्य भर दिया है। विपन्नता और बदहाली के महासागर में समृद्धि के चंद टापू खड़े हो जाने से पूरा महासागर समृद्ध नहीं हो जाता।
संयुक्त राष्ट्र का प्रसन्नता सूचकांक और विश्व स्वास्थ्य संगठन का भारत को सर्वाधिक अवसादग्रस्त देश बताने वाला सर्वे इसी हकीकत की ओर इशारा करता है।
अनिल जैन
अनिल जैन, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। नई दुनिया में वरिष्ठ एसोसिएट एडिटर हैं।


