10 घंटे के भीतर कर्ज माफी के एलान का मतलब.... कॉरपोरेट के बुरे दिन और ग्रामीण भारत के अच्छे दिन आने वाले हैं …

न्ई दिल्ली, 19 दिसंबर। चर्चित एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने तीन राज्यों में कांग्रेस सरकार के गठन के बाद चंद घंटों में किसानों के कर्ज माफी की समीक्षा करते हुए संभावना जताई है कि अब कॉरपोरेट के बुरे दिन और ग्रामीण भारत के अच्छे दिन आने वाले हैं …

श्री वाजपेयी (punya prasun bajpai) ने अपने ब्लॉग में लिखा है क्या राजनीति ने इकोनॉमी को हड़प लिया है या फिर राजनीतिक अर्थशास्त्र ही भारत का सच हो चला है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर जो लिखा है, उसके संपादित अंश हम यहाँ साभार दे रहे हैं -

पुण्य प्रसून वाजपेयी

ना मंत्रियों का शपथ ग्रहण ना कैबिनेट की बैठक। सत्ता बदली और मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही किसानों की कर्ज माफी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए

क्या राजनीति ने इकोनॉमी को हड़प लिया

Is politics grabbed the economy

ये वाकई पहली बार है कि राजनीति ने इकोनॉमी को हड़प लिया या फिर राजनीतिक अर्थशास्त्र ही भारत का सच हो चला है। और राजनीतिक सत्ता के लिए देश की इकोनॉमी से जो खिलावाड़ बीते चार बरस में किया गया उसने विपक्ष को नये संकेत यही दे दिए कि इकोनॉमी संभलती रहेगी पहले सत्ता पाने और फिर संभालने के हालात पैदा करना जरूरी हैं। हुआ भी यही, कर्ज में डूबे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ की सत्ता पन्द्रह बरस बाद कांग्रेस को मिली तो बिना लाग लपेट दस दिनों में कर्ज माफी के एलान को दस घंटे के भीतर कर दिखाया और वह सारे पारंपरिक सवाल हवा हवाई हो गए कि राज्य का बजट इसकी इजाजत देता है कि नहीं।

DEmonetization was not economic but political decision.

दरअसल, मोदी सत्ता ने जिस तरह सरकार चलाई है, उसमें कोई सामान्यजन भी आंखे बंद कर कह सकता है कि नोटबंदी आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक फैसला था। जीएसटी जिस तरह लागू किया गया वह आर्थिक नहीं राजनीतिक फैसला है। रिजर्व बैक में जमा तीन लाख करोड रुपया बाजार में लगाने के लिए माँग करना भी आर्थिक नहीं राजनीतिक जरूरत है।

पहले दो फैसलों ने देश की आर्थिक कमर को तोड़ा तो रिजर्व बैक के फैसले ने ढहते इकोनॉमी को खुला इजहार किया। फिर बकायदा नोटबंदी और जीएसटी के वक्त मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रमण्यम ने जब पद छोडा तो बकायदा किताब < आफ काउसंल, द चैलेज आफ मोदी-जेटली इकोनॉमी> लिखकर दुनिया को बताया कि नोटबंदी का फैसला आर्थिक विकास के लिए कितना घातक था। और जीएसटी ने इकोनॉमी को कैसे उलझा दिया। तो दूसरी तरफ कांग्रेस के करीबी माने जाने वाले रिजर्व बैक के पूर्व गर्वनर रधुराम राजन का मानना है कि किसानों की कर्ज माफी से किसानों के संकट दूर नहीं होंगे। और संयोग से जिस दिन रधुराम राजन ये कह रहे थे उसी दिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ तो छत्तीसगढ में भूपेश बधेल सीएम पद की शपथ लेते ही कर्ज माफी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर रहे थे।

तो सवाल तीन हैं।

पहला, क्या राजनीति और इकोनॉमी की लकीर मिट चुकी है।

दूसरा, क्या 1991 की लिबरल इकोनॉमी की उम्र अब पूरी हो चुकी है।

तीसरा, क्या ग्रामीण भारत के मुश्किल हालात अब मुख्यधारा की राजनीति को चलाने की स्थिति में आ गए हैं।

ये तीनों सवाल ही 2019 की राजनीतिक बिसात कुछ इस तरह बिछा रहे हैं जिसमें देश अब पीछे मुड़कर देखने की स्थिति में नहीं है। और इस बिसात पर सिर्फ 1991 के आर्थिक सुधार ही नहीं बल्कि मंडल-कंमडल से निकले क्षत्रपों की राजनीति भी सिमट रही है।

पर कैसे राजनीति और अर्थव्यवस्था की लकीर मिटी है और वैकल्पिक राजनीतिक अर्थसास्त्र कीा दिशा में भारत बढ रहा है, ये कांग्रेस के जरिये बाखूबी समझा जा सकता है।

कांग्रेस, मोदी सत्ता के कारपोरेट प्रेम को राजनीतिक मुद्दा बनाती है। किसानों की कर्ज माफी और छोटे और मंझोले उद्योगों के लिए जमीन बढ़ाने और मजदूरों के हितों के सवाल को मनरेगा से आगे देखने का प्रयास कर रही है। जबकि इन आधारों का विरोध मनमोहनइक्नामिक्स ने किया। लेकिन अब कांग्रेस कृषि आर्थसास्त्र को समझ रही है, लेकिन उसके पोस्टर ब्याय और कोई नहीं मनमोहन सिंह ही है।

यानी तीन राज्यों में जीत के बाद करवट लेती राजनीति को एक साथ कई स्तर पर देश की राजनीति को नायाब प्रयोग करने की इजाजत दी है। या कहें, खुद को बदलने की सोच पैदा की है। पहले स्तर पर कांग्रेस रोजगार के साथ ग्रोथ को अपनाने की दिशा में बढ़ना चाह रही है। क्योंकि लिबरल इकोनॉमी के ढाँचे को मोदी सत्ता ने जिस तरह अपनाया उसमें 'ग्रोथ विदाउट जाब' वाले हालात बन गए। दूसरे स्तर पर विपक्ष की राजनीति के केन्द्र में कांग्रेस जिस तरह आ खड़ी हुई उसमें क्षत्रपों के सामने ये सवाल पैदा हो चुका है कि वह बीजेपी विरोध करते हुए भी बाजी जीत नहीं सकते। उन्हें कांग्रेस के साथ खडा होना ही होगा।

और तीसरे स्तर पर हालात ऐसे बने हैं कि तमाम अंतर्विरोध को समेटे एनडीए था जिसकी जरूरत सत्ता थी पर अब यूपीए बन रहा है जिसकी जरूरत सत्ता से ज्यादा खुद की राजनीतिक जमीन को बचाना है। और ये नजारा तीन राज्यों में कांग्रेस के शपथ ग्रहण के दौरान विपक्ष की एक बस में सवार होने से भी उभरा और मायावती, अखिलेश और ममता के ना आने से भी उभरा।

दरअसल, मोदी-शाह की बीजेपी ने क्षत्रपों की राजनीतिक जमीन को सत्ता की मलाई और जांच एंजेसियो की धमकी के जरिये तरह खत्म करना शुरू किया, तो क्षत्रपों के सामने संकट है कि वह बीजेपी के साथ जा नहीं सकते और कांग्रेस को अनदेखा कर नहीं सकते।

… लेकिन इस कडी में समझना ये भी होगा कि कांग्रेस का मोदी सत्ता या कहे बीजेपी विरोध पर ही तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत का जनादेश है। और इस जीत के भीतर मुस्लिम वोट बैंक का खामोश दर्द भी छुपा है। कर्ज माफी से ओबीसी व एससी-एसटी समुदाय की राजत भी छुपी है और राजस्थान में जाटों का पूर्ण रुप से कांग्रेस के साथ आना भी छुपा है। और इसी कैनवास को अगर 2019 की बिसात पर परखें तो क्षत्रपों के सामने ये संकट तो है कि वह कैसे कांग्रेस के साथ कांग्रेस की शर्ते पर नहीं जायेंगें। क्योंकि कांग्रेस जब मोदी सत्ता के विरोध को जनादेश में अपने अनुकूल बदलने में सफल हो रही है तो फिर क्षत्रपों के सामने ये चुनौती भी है कि अगर वह कांग्रेस के खिलाफ रहते हैं तो चाहे अनचाहे माना यही जायेगा कि वह बीजेपी के साथ हैं। उस हालात में मुस्लिम, दलित, जाट या कर्ज माफी से लाभ पाने वाला तबका क्षत्रपों का साथ क्यों देगा। यानी तमाम विपक्षी दलों की जनवरी में होने वाली अगली बैठक में ममता, माया और अखिलेश भी नजर आयेंगें। और अब बीजेपी के सामने चुनौती है कि वह कैसे अपने सहयोगियों को साथ रखे और कैसे लिबरल इकोनॉमी का रास्ता छोड वैकल्पिक आर्थिक माडल को लागू करने के लिए बढ़े। यानी 2019 का राजनीतिक अर्थशास्त्र अब इबारत पर साफ साफ लिखी जा रही है कि कारपोरेट को मिलने वाली सुविधा या रियायत अब ग्रामीण भारत की तरफ मुड़ेगी। यानी अब ये नहीं चलेगा कि उर्जित पटेल ने रिजर्व बैक के गवर्नर पद से इस्तीफा दिया तो शेयर बाजार सेंसेक्स को कारपोरेट ने राजनीतिक तौर पर शक्तिकांत दास के गवर्नर बनते ही संभाल लिया क्योंकि वह मोदी सत्ता के इशारे पर चल निकले। और देश को ये मैसेज दे दिया गया कि सरकार की इकोनॉमिक सोच पटरी ठीक है उर्जित पटेल ही पटरी पर नहीं थे।

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