पलाश विश्वास

अभी तक किसी विद्वतजन ने पलटकर प्रधान स्वयंसेवक से यह सवाल लेकिन पूछा नहीं है कि इस तीन साल के सात हजार सुधारों के बावजूद संविधान कितना बचा है, लोकतंत्र कितना बचा है और कानून का राज कितना बचा है।

सुधारों की दौड़ में फेल हो जाने की वजह से मनमोहन सिंह अमेरिकी नजरिये से नीतिगत विकलांगकता का शिकार हो गये थे। शायद इसके मद्देनजर व्हाइट हाउस के महाबलि को यह हिसाब लगाने के लिए छोड़ दिया गया है कि तीन साल में सात हजार सुधारों के हिसाब से सुधारों की कुल विकास दर कितनी है। क्रिकेट मैचों के स्कोरर साथ ले जाते तो शायद यह भी मालूम हो जाता कि इन धुंआधार सुधारों से कितने विश्वरिकार्ड बने हैं और टूटे हैं।

मुक्त बाजार के लिए तीन साल में इतने सुधारों के मुकाबले बाकी देश कहां है और सुधारों की रैंकिंग में भारत अब कितने नंबर पर है?

सुधारों में 1160 कानून खत्म करने की संसदीय सहमति और गिलोटिन की भी शायद बड़ी भूमिका होगी।

सबसे बड़ी सुधार क्रांति नोटबंदी की हुई है तो उससे भी बड़ी क्रांति गोरक्षा क्रांति अभी शुरू ही हुई है, जो दुनियाभर की क्रांतियों के मुकाबले ज्यादा क्रांतिकारी है क्योंकि इससे भारत में मनुस्मृति विधान लागू होगा जिससे सहिष्णुता, विविधता, बहुलता, लोकतंत्र, मनुष्यता, सभ्यता, प्रकृति पर्यावरण सबकुछ गेरुआ रंग में समाहित हो जायेगा और जाति वर्ण रंंगभेदी नस्ली निरंकुश सत्ता से विदेशी पूंजीपतियों और कंपनियों के लिए भारत आखेटगाह बन जायेगा।

आधार क्रांति तो लाजबवाब है जैसा दुनियाभर में कहीं हुआ ही नहीं कि निजता, गोपनीयता, स्वतंत्रता को पल पल नागरिक बुनियादी जरुरतों और सेवाओं के लिए तिलांजलि दे दें।

भारत में मनुष्य आधार नंबर है वरना उसका कोई वजूद नहीं है। हाथों में हथकड़ी, पांवों में बेड़ियां अलग से डालने की जरुरत नहीं है। देश का चप्पा चप्पा कैदगाह है, कत्लगाह है। कातिलों और दहशतगर्दों को खुली छूट, आम माफी है। यही हिंदूराष्ट्र है।

मुश्किल यह है कि आधार नंबर से कानूनी खानापूरी होगी, लेकिन उससे जान माल की हिफाजत नहीं होगी। वहीं होगा जो कातिलों की मर्जी है। आधार हो न हो, फर्क नहीं पड़ता।

न कानून का राज है और न सात हजार सुधारों के बाद संविधान है। दलित राष्ट्रपति फिर हालांकि मिलना तय है।

आगे जीएसटी सबसे खतरनाक मोड़ है। फिर कत्लेआम बेलगाम जश्न है। खेती का काम तमाम है तो कारोबार भी मौत का सबब है। गजब है।

भारत के संघीय ढांचा् को तोड़कर एक देश एक कर के नाम राज्यों के राजस्व आय की खुली डकैती करके उन्हें गुलाम कालोनियों में तब्दील किया जा रहा है।

केंद्र के पैकेज, सीबीआई, ईडी जैसी एजंसियों जैसी मेहरबानी पर क्षत्रपों की आत्मरति अब लोकतंत्र है। बाकी वोटबैंक है।

सारा तंत्र एकाधिकार कारपोरेट कंपनियों के लिए है जिसके तहत डिजिटल इंडिया में किसानों, मेहनतकशों और कर्मचारियों, छात्रों, युवाओं और स्त्रियों-बच्चों के साथ साथ खुदरा, छोटा और मंझौला कारोबारियों और वैसे ही उद्योगों का सफाया हो जाना है।

यह चूंचूं का मुरब्बा जीएसटी क्या बला है, कर छूट के गुब्बारों के फूटने के बाद ही पता चलेगा।

फिलहाल सहमति और विरोध का पाखंड संसदीय लोकतंत्र है।

भारत के सुधारों में सबसे बड़ा सुधार शायद राजनीतिक दलों की कारपोरेट फंडिग है।

सारी राजनीति कारपोरेट फंडिंग से होती है तो कारपोरेट हितों के मुताबिक ही राजनीति चलेगी चाहे वोटबैंक समीकरण के लिए किसी दलित को राष्ट्रपति चुनने की मजबूरी हो और आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, स्त्रियों और मुसलमानों को भी सत्ता में हिस्सेदारी का अहसास दिलाना जरुरी हो।

होगा वहीं जो कारपोरेट हित में हो। यही संसदीय सहमति है।

इसी के मुताबिक न्याय पालिका और मीडिया की भूमिका तय हो गयी है। दुनिया भर के सभ्य देशों में नागरिकों के लिए नागरिक और मानवाधिकार की रक्षा करने के माध्यम मीडिया और न्यायपालिका है, जिन पर कानून का राज बहाल रखने के साथ साथ समानता और न्याय की जिम्मेदारी है, जिन्हें पीडितों की सुनवाई करनी है। इसका उलट सबकुछ हो रहा है।

मीडिया पूरी तरह कारपोरेट हैं और न्यायपालिका भी पूरीतरह सत्ता के साथ है।

नागरिक का उसके आधार नंबर के सिवाय कोई वजूद ही नहीं है। गुलामी से बदतर यह आजादी की खुशफहमी और सुनहले ख्वाबों का तिलिस्म है। हम सिर्फ किस्मत के हवाले हैंं। बाकी कत्ल हो जाने का इंतजार।