डॉ. आंबेडकर, भारतीय संविधान और समाजवाद-सेकुलरिज्म पर बहस: एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण
क्या भारतीय संविधान में ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ शब्दों की आज भी जरूरत है? डॉ. आंबेडकर के विचारों के आलोक में पढ़ें एक विस्तृत विश्लेषण

डॉ. आंबेडकर और भारतीय संविधान की मूल भावना
- क्या डॉ. आंबेडकर समाजवाद के पक्षधर थे?
- ‘सेकुलर’ शब्द की व्याख्या और भारतीय संदर्भ
- समाजवाद बनाम लोकतंत्र: आंबेडकर का दृष्टिकोण
- विपक्ष की भूमिका और वैचारिक बहस की दिशा
क्या संविधान से 'समाजवाद' और 'सेकुलर' हटाए जा सकते हैं?
क्या भारतीय संविधान में ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ शब्दों की आज भी जरूरत है? डॉ. आंबेडकर के विचारों के आलोक में पढ़ें एक विस्तृत विश्लेषण — समाजवाद बनाम लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संविधान संशोधन की बहस।
संविधान, समाजवाद, सेकुलर और डॉ. आंबेडकर
डॉ. संजीव कुमार झा
(पी.डी.एफ़, जे.एन.यू)
“ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो संसदीय शासन नहीं चाहते। साम्यवादी रूसी प्रकार का शासन चाहते हैं। समाजवादी भी वर्तमान भारत के संविधान के खिलाफ हैं, वे इसके खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। उन्होंने घोषणा कर दी है कि यदि वे सत्ता में आए तो वे इसमें बदलाव लायेंगे।”
यह कथन है हमारे संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर का। उन्होंने यह वक्तव्य 28 अक्टूबर, 1951 को जलंधर के स्कूल में दिया था। (बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड-37) वर्तमान में संविधान प र बहस की जा रही है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दत्तात्रेय होसबोले ने संविधान पर अपने भाषण में कहा कि इसमें ‘समाजवादी’ और ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द की समीक्षा होनी चाहिए। इस कथन पर पिछले कुछ दिनों से मीडिया और अन्य संस्थानों में काफी हंगामा मचा हुआ है। प्रश्न यह उठता है कि चर्चा-परिचर्चा के बजाय हंगामा क्यों हो रहा है? जब तक हम इस समस्या पर विचार नहीं करते हैं, तब तक इसकी जड़ तक पहुंचना मुश्किल है।
यहाँ दो बातें हैं – पहली यह कि क्या संविधान पर बात करना संवैधानिक रूप से किसी दंड संहिता के अंतर्गत आता है या फिर दूसरी समस्या यह कि आर.एस.एस. वाले संविधान पर क्यों बोल रहे हैं? पहली बात का तो कोई आधार संविधान में नहीं मिलता है, इसका अर्थ यह हुआ कि समस्या दूसरी है और इसका सीधा संबंध ज्ञान के क्षेत्र में ‘एलीट’ भाव-बोध का है। विचार-विमर्श की प्रक्रिया को विध्वंसकारी नीति मानकर उसकी व्याख्या करना दरअसल ‘पॉलिटिकल जजमेंटल’ होना है। विपक्ष हो, पत्रकार हो या सामान्य व्याख्याकार हो सभी को यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उनकी राजनैतिक या सामाजिक महत्वकांक्षा चाहे जिस स्तर की हो लेकिन एक पक्षीय विचार के माध्यम से सामाजिक-राजनैतिक धारा को संचालित करना सदैव ऐतिहासिक भूल की पुनरावृति की पृष्ठभूमि को पैदा करता है। डॉ. आंबेडकर के संपूर्ण विचारों का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि इस तरह की गलतियां कांग्रेस पहले भी कर चुकी है। जिन दो शब्दावलियों पर हंगामा मचा हुआ है और यदि यह हंगामा जायज है तो फिर स्वयं आंबेडकर ऐसा क्यों कह रहे थे?
सबसे पहले संविधान में ‘समाजवादी’ शब्द के उपयोग पर संक्षेप में विचार कर लेते हैं। कई ‘समाजवादी’ प्रवक्ता बोल रहे थे कि ‘जो समाजवाद है, वही तो लोकतंत्र है’, नहीं, यह लोकतंत्र की परिभाषा का सरलीकरण है। जो समाजवाद का दायरा है, वह लोकतंत्र के दायरे से बहुत छोटा और सीमित है। जनवरी 1952 के चुनाव के लिए डॉ. आंबेडकर ने अपनी पार्टी एस.सी.एफ़ का घोषणा-पत्र तैयार किया जिसमें समाजवाद का कोई उल्लेख नहीं था। जबकि उनके द्वारा दिए गए त्याग-पत्र से पूर्व उन्होंने समाजवाद पर अपना सकारात्मक पक्ष रखा था, लेकिन अब वे इसे भारतीय राजनैतिक दृष्टि से अपर्याप्त मानने लगे थे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि – “पार्टी की नीति साम्यवाद, समाजवाद, गांधीवाद जैसे किसी विशेष मतवाद या विचारधारा से बंधी हुई नहीं है...... जीवन के सन्दर्भ में इसका (पार्टी का) दृष्टिकोण पूरी तरह से विचारशील और आधुनिक होगा।” (खैरमोडे, 2000ए,10:153) साफ़ देखा जा सकता है कि समय-समय पर साम्यवादी और समाजवादी के साथ होते हुए भी अंततः आंबेडकर इस निकर्ष पर पहुँचते हैं कि ये दोनों सिद्धांत भारतीय राजनीति के लिए वाजिब नहीं हैं। वे इस सिद्धांत के दृष्टिकोण को न तो विचारशील मानते हैं और न आधुनिक। वर्तमान सन्दर्भ में देखें तो यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि समाजवाद सही है या नहीं? मुद्दा यह है कि क्या समाजवाद की आलोचना करने से डॉ. आंबेडकर साहब असामाजिक सिद्ध हो जाते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। इसलिए आज जो हंगामा है, दरअसल वह अस्वीकार की भावना है जो किसी वर्ग या समूह को चिन्हित कर एक खास किस्म की मानसिकता का निर्माण करती है।
अब इसे थोड़ा और अधिक स्पष्ट रूप में समझने की कोशिश करते हैं।
आंबेडकर कहते हैं कि ‘वे किसी भी वाद का अनुसरण नहीं करते हैं, अर्थात यथार्थवाद और तर्कवाद ही पार्टी के आधार थे।’ यहाँ देखें तो मुक्तिबोध की मशहूर पंक्ति ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’ के कुपाठ के आधार पर मार्क्सवादियों द्वारा निष्पक्षता को ख़ारिज करने की लंबी परंपरा स्वतः घुटने टेक देती है। आंबेडकर की जीवनी लिखने वाली मशहूर लेखिका गेल ओमवेट लिखती हैं कि – “ समाजवाद की अपेक्षा लोकतंत्र के प्रति उनका बढ़ता रुझान तब स्पष्ट हुआ जब 22 दिसंबर, 1952 को उन्होंने पुणे में डिस्ट्रिक्ट लॉ क्लब लाइब्रेरी के लिए संसदीय लोकतंत्र के संबंध में भाषण दिया था......इन सभी भाषणों, घोषणा-पत्रों और व्याख्याओं से पता चलता है कि वे ‘राज्य-समाजवाद’ के आर्थिक पैटर्न की अपनी पहले की दलीलों से स्पष्ट रूप से पीछे हट रहे थे। दूसरे शब्दों में वे सामाजिक लोकतंत्रवादी बन रहे थे।” (गेल ओमवेट, अंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर) यहाँ आगे बढ़ने से पहले एक महत्वपूर्ण संकेत आवश्यक है। प्रसिद्ध लेखक रावसाहेब कसबे (आंबेडकर और मार्क्स) से लेकर अरुंधति रॉय (द डॉक्टर एंड द सैंट) तक जिन विद्वानों ने आंबेडकर को मार्क्सवाद या समाजवाद के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की जिससे एक नया राजनैतिक गठजोड़ बन सके, वह क्यों विफल हुआ इसका अंदाजा इस इतिहास से आसानी से लगाया जा सकता है। जो विद्वान आंबेडकर के समग्र अध्ययन को जानते हैं, उनके लिए जे.एन.यू. की कन्हैयावादी क्रांति का नारा तब भी हास्यास्पद ही था जब एक साथ कहा जा रहा था कि – ‘लाल सलाम-नीला सलाम’। दरअसल अध्ययन-विहीनता से उपजा हुआ आत्म-विश्वास आरंभ में दूसरों के लिए खतरनाक और अंत में स्वयं के लिए हास्यास्पद हो जाता है।
स्पष्ट है कि आंबेडकर समाजवाद की तुलना में लोकतंत्र के व्यापक तत्वों के पक्ष में अधिक होते हैं। लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं कि – “ लोकतंत्र संसदीय सरकार के साथ-साथ गणतंत्र से भी बिलकुल अलग चीज है। सरकार चाहे संसदीय हो या फिर कोई और, लोकतंत्र की जड़ें उसमें नहीं होती हैं। लोकतंत्र केवल सरकार का स्वरुप नहीं है। प्राथमिक रूप से वह सामुदायिक जीवन की एक पद्धति है। लोकतंत्र की जड़ें सामाजिक संबंधों में, समाज का निर्माण करने वाले लोगों के सामुदायिक जीवन के मायनों में तलाशी जानी चाहिए।” (बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड-37) इस तरह वे अपने विचारों से साफ़ कर देते हैं कि समाजवाद और लोकतंत्र की संरचना में बहुत बड़ा अंतर है।
लोकतंत्र के कई आयामों पर बात करते हुए वे एक और महत्वपूर्ण संकेत करते हैं जिसका संबंध वर्तमान राजनैतिक संरचना से जुड़ता है। वे संसदीय शासन के महत्व पर बात करते हुए कहते हैं कि – “ संसदीय शासन का अर्थ है – पैत्रिक शासन का निषेध। कोई भी आदमी आनुवांशिक राजा होने का दावा नहीं कर सकता।” (बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड-37) अब प्रश्न यह उठता है कि जो विद्वान आज अपने राजनैतिक संगठन को समाजवादी संगठन कहते हैं और साथ में आंबेडकर को भी साधने का प्रयास करते हैं, क्या वे पैत्रिक शासन का निषेध अपनी पार्टी में करते हैं? क्या राजद, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस आदि इन विचारों का पालन करती है? यदि नहीं तो संविधान संविधान चिल्लाकर, माहौल को एक-पक्षीय बताकर नागरिक को गुमराह क्यों करते हैं? क्या वे जनता को समाजवाद, लोकतंत्र, राजनैतिक संस्कृति आदि के आधार पर स्वयं के मूल्यांकन किए जाने के डर से एक ऐसी लड़ाई में फँसा देना चाहते हैं, जो वास्तविक में है ही नहीं? डॉ. आंबेडकर समाजवादी संरचना के इस कठोर सत्य से परिचित थे।
ध्यान रहे कि समाजवाद और अब समाजवादी पार्टियाँ दलीय व्यवस्था है, सिद्धांत के स्तर पर भी वह अन्य सिद्धांतों से भिन्न है, इसलिए संपूर्ण भारत का सत्य सिर्फ समाजवाद नहीं हो सकता है, लेकिन वह लोकतंत्र की छाया में सुरक्षित जरुर रह सकता है। इसलिए तर्क के आधार पर देखें तो इस शब्दावली की आवश्यकता किसी भी रूप में संविधान में जायज नहीं है। इसे हटाया जा सकता है।
दूसरी शब्दावली है – सेकुलरिज्म अर्थात धर्म-निरपेक्ष। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सेकुलर शब्द का हिंदी अनुवाद ‘धर्म-निरपेक्ष’ या ‘पंथ-निरपेक्ष’ कितना सही है? जो लोग ‘चर्च’ बनाम ‘राज्य’ के बीच के संघर्ष से परिचित हैं, वे भली-भांति जानते हैं कि यह अनुवाद विवादास्पद है। संक्षेप में कहें तो यह ‘राज्य’ से ‘धर्म’ के अलग होने की व्याख्या है। (बीच बहस में सेकुलरवाद, सीएसडीएस) गाँधी ने भी अपने बाद के विचारों में स्पष्ट कहा था कि ‘राजनीति’ और ‘धर्म’ को अलग होना चाहिए। फिर ऐसे विवादास्पद शब्द जिसका संबंध किसी भी रूप में भारतीय सामाजिक संरचना से मेल नहीं खाता है, उसे संविधान में जोड़ने के मायने क्या हैं?
यह प्रश्न बेहद गंभीर है कि धर्म से संबंधित किसी शब्द को संविधान में संशोधन के तहत जोड़ा क्यों गया? इस प्रश्न का संबंध पहले प्रश्न से भी जुड़ता है। इसे समझने के लिए 1920 से 1940 तक के भारतीय इतिहास को समझना होगा जिसकी धुरी उस समय के कांग्रेस की राजनीति और गाँधी तथा अन्य कांग्रेसियों की राजनैतिक मानसिकता पर टिकी हुई है। इस क्रम में सबसे अधिक जरुरी है, इनकी मानसिकता पर डॉ. आंबेडकर के विचार को सही ढंग से समझने की। इस काल-क्रम पर बेहद विस्तार से बात करते हुए अंत में वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वह है – तुष्टिकरण की नींव।
डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि –“ प्रश्न फिर भी यह उठता है कि क्या कांग्रेस का तरीका सही है। मुझे लगता है कि दो बातों को समझने में कांग्रेस से चूक हुई है । पहली बात जिसे कांग्रेस समझ नहीं सकी वह यह है कि तुष्टिकरण और समझौते में फर्क होता है और यह फर्क बुनियादी किस्म का होता है। तुष्टिकरण का अर्थ होता है, आक्रमणकारी के कारण लगायी गई आग, लूट, बलात्कार और हत्या से प्रभावित हुए निर्दोष लोगों पर किए गए अपराधों की अनदेखी करके, अपराधियों को समझौते के मार्ग पर लाना, जबकि समझौते का अर्थ होता है, लक्ष्मण रेखा का निर्धारण करना, जिसका दोनों में से कोई भी पक्ष उल्लंघन नहीं कर सकता। तुष्टिकरण से आक्रमणकारी की महत्वकांक्षाओं और मांगों पर अंकुश नहीं लगता किंतु समझौता अंकुश लगाता है।” (बाबा साहब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड-15)
डॉ. आंबेडकर के इन विचारों को ठीक से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस के इतिहास में मानसिकता के स्तर पर राजनीति में जो तुष्टिकरण की नीति थी उसे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने संवैधानिक मान्यता दे दी।
बाबा साहब एक और महत्वपूर्ण प्रसंग की ओर इशारा करते हैं। वे कहते हैं कि प्राचीन काल में भी भारत में संसदीय व्यवस्था थी। इस क्रम में वे ‘महापरिनिब्बान’ के सूक्तों का उदाहरण देते हुए स्पष्ट करते हैं कि – “ हमारे साहित्य में असंख्य इस बात को साबित करते हैं कि संसदीय शासन प्रणाली हमारे लिए अपरिचित नहीं है।” (वही, खंड-37) इस व्याख्या के अंत में वे यह भी कहते हैं कि ‘प्राचीन भारत विश्व-गुरु था’। यह भारत की, भारतीयों द्वारा अर्जित की हुई सांस्कृतिक विरासत थी जिसे किसी की भी तुलना में सबसे अधिक डॉ. आंबेडकर समझते हैं और कहते भी हैं।
समस्या यह है कि अधिकांशतः डॉ. आंबेडकर की चिंतन-परंपरा को ठीक से समझने की कोशिश ही नहीं की गई और सबसे अधिक आंबेडकरवादी विद्वान उनका सरलीकरण करते हुए उन्हें हिंदू-धर्म विरोधी के रूप में स्थापित करने की कोशिश में जुटे रहे। जबकि यह धारणा बिलकुल गलत और तथ्यहीन है। (इस संदर्भ में विस्तार से परिचर्चा की जा सकती है) यहाँ एक और प्रसंग महत्वपूर्ण है, वह है – विपक्ष की भूमिका।
दूसरी बड़ी समस्या है विपक्ष की भूमिका का एकांगी होना। वे किसी भी विषय के एक पक्ष को प्रदर्शित करते हैं और दूसरे पक्ष को गौण कर देते हैं। यह समस्या हमारे प्रगतिशील इतिहासकारों और विद्वानों में भी खूब है। डॉ. आंबेडकर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि –“संसदीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि सवाल के दो पक्ष हैं तो जनता को दूसरा पक्ष भी जानना चाहिए। इस प्रकार एक सक्रीय विपक्ष आवश्यक है। विपक्ष निष्पक्ष राजनीतिक जीवन की कुंजी है।” (वही, खंड-37)
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या विपक्ष जनता को दूसरे पक्ष से अवगत कराने का प्रयास करता है? और यदि वे डॉ. आंबेडकर के किसी भी विचार का अनुसरण नहीं करता है, फिर किस आधार पर ये सभी दल उन्हें अपना विचारक और नेता मानते हैं?
जो विद्वान भारतीय संस्कृति के अतीत और डॉ. आंबेडकर द्वारा उस अतीत की व्याख्या से भली-भांति परिचित हैं, वे जानते हैं कि ‘समाजवादी’ और ‘सेकुलर’ शब्द के समक्ष ‘हम भारत के लोग’ और ‘भारतीय लोकतंत्र’ की संस्कृति अति-व्यापक है और पर्याप्त भी। इसलिए इन दोनों शब्दों की समीक्षा पर हंगामा अंततः निरर्थक ही सिद्ध होता है।
लेखक डॉ. आंबेडकर साहित्य के स्कॉलर हैं।