आज हम कहाँ? और आरएसएस कहाँ? — ‘The Brotherhood in Saffron’ की एक आलोचनात्मक समीक्षा
RSS's century-long journey: Assessing organisational strength and strategy through 'The Brotherhood in Saffron'. डॉ सुरेश खैरनार वॉल्टर के. एंडरसन और श्रीधर डी. डामले द्वारा लिखित पुस्तक The Brotherhood in Saffron की हिंदी में समीक्षा कर रहे हैं। यह विश्लेषण न केवल आरएसएस की संगठनात्मक शक्ति को उजागर करता है, बल्कि यह भी बताता है कि आज हम कहाँ खड़े हैं, और क्यों 'संघमुक्त भारत' की कल्पना समय की माँग बन चुकी है।

आरएसएस की सदी भर की यात्रा: 'The Brotherhood in Saffron' के माध्यम से संगठनात्मक शक्ति और रणनीति का मूल्यांकन
इस लेख में डॉ सुरेश खैरनार वॉल्टर के. एंडरसन और श्रीधर डी. डामले द्वारा लिखित पुस्तक The Brotherhood in Saffron की हिंदी में समीक्षा कर रहे हैं। यह विश्लेषण न केवल आरएसएस की संगठनात्मक शक्ति को उजागर करता है, बल्कि यह भी बताता है कि आज हम कहाँ खड़े हैं, और क्यों 'संघमुक्त भारत' की कल्पना समय की माँग बन चुकी है।
आज हम कहाँ ? और आरएसएस कहाँ ?
WALTER K. ANDERSEN amd SRIDHAR D. DAMLE की पुस्तक The Brotherhood in Saffron: The Rashtriya Swayamsevak Sangh and Hindu Revivalism की हिंदी में समीक्षा
साथियों यह टिप्पणी मैं, किसी को भी नीचा या ऊंचा दिखाने के लिए नहीं लिख रहा हूँ. मैं उम्र के बारहवें साल का था तबसे राष्ट्र सेवा दल का सैनिक हूँ. और गिनकर उम्र के बीसवें साल का था, तब (1973-1976 आपातकाल के समय, जेल में जाने के कारण इस्तीफा देना पड़ा. ) तब से राष्ट्र सेवा दल का पूर्णसमय कार्यकर्ताओं की भूमिका में रहा हूँ.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना - (1925) के बाद से ही, सौ साल से सिर्फ और सिर्फ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास कर रहा है. और इसलिए मैं चालीस साल के अंतराल के बाद, ( 2017 - 2019) तक, दो साल के लिए, सर्वसम्मति से राष्ट्र सेवा दल का अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हुआ था. और मैंने अध्यक्ष के पद ग्रहण करने के बाद के पहले ही संबोधन में, सभी प्रतिनिधियों को कहा था, "कि मैं सिर्फ और सिर्फ संघमुक्त भारत बनाने के लिए ही, चालीस साल के अंतराल के बाद, राष्ट्र सेवा दल का अध्यक्ष बना हूँ. जब मैं तीस साल का था, तभी से अध्यक्ष होने का आग्रह किया जा रहा था, लेकिन हमारे बच्चे छोटे थे, और मॅडम खैरनार सरकारी नौकरी में ( केंद्रीय विद्यालय में ) होने की वजह से, मैं खुद ही घरेलू जिम्मेदारियों को निभाने के लिए, अपना पूरा समय हाऊस हसबैंड के रूप में देने की जिम्मेदारी में था, व्यस्त था. इस कारण मैंने अध्यक्ष बनने के लिये नहीं कहा था. और जब देश की हालत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से गंभीर अवस्था में चली गई. तो उम्र के साठ साल पार करने के बावजूद, मैं राष्ट्र सेवा दल का अध्यक्ष बनने के लिये तैयार हुआ था.
और मेरी "संघ मुक्त भारत" की घोषणा से, इस सभा में एक भी सदस्य अगर असहमति व्यक्त करते हैं, तो मैं अपने पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हूँ. क्योंकि मेरे हिसाब से आज की तारीख में भारत की सबसे बड़ी समस्या, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संपूर्ण देश में कोने - कोने में हुए फैलाव को रोकने के लिए राष्ट्र सेवा दल ही एकमात्र ऐसा संगठन हैं, जो उसका पर्याय बनने का माद्दा रखता हो. इसलिए मैंने अध्यक्ष बनने का निर्णय लिया है. और आज संघ मुक्त भारत की घोषणा कर रहा हूँ. "
और खुशी की बात है, कि एक भी प्रतिनिधि ने, मेरे संघमुक्त घोषणा को विरोध नहीं किया. इसलिए मैंने अपने अध्यक्षता के चयन को दो साल तक निभाया.
और उस हिसाब से मैंने तुरंत बंगाल, बिहार, झारखंड का संयुक्त शिबिर मधुपूर और बंगाल के तिलुतिया में, फिर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू - कश्मीर, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, आसाम तथा उत्तर पूर्व, ओरिसा, छत्तीसगड तथा आंध्र - तेलंगण और तमिलनाडु गोवा, गुजरात,केरल, दिल्ली, हरियाणा मतलब देश के सभी राज्यों में, राष्ट्र सेवा दल के गतिविधियों को फैलाने के संभावना - शक्यताओ की तलाश करने का प्रयास किया. और जहाँ अनुकूल स्थिति दिखाई दी, वहां के पांच - छ बार चक्कर लगाने का काम किया. उसी दरम्यान कुछ जगहों पर शिबिर, सम्मेलन हुए. दो साल बाद (2019) अध्यक्षता से मुक्त हो गया. लेकिन राष्ट्र सेवा दल का सैनिक मरते दम तक रहने वाला हूँ.
'THE RSS A VIEW TO THE INSIDE' नाम की दो लेखकों की मिलकर लिखि हुई (Walter K. Andersen & Shridhar D. Damle) आरएसएस की सौ साल की यात्रा में संगठनात्मक ताकत क्या है ? तो उसके साथ मुकाबला करने के लिए तैयारी किस तरह कर सकते हैं. अन्यथा हवाई बातें करने से क्या होगा ?
Left Word ने भी A. G. NOORANI की 547 पन्ने की 'The RSS' शीर्षक की किताब एक साल बाद 2019 में छापा है. और देशराज गोयल, जो खुद ही काफी समय से आरएसएस से संबंधित रहे हैं, उनकी भी 'आरएसएस' से हिंदी अंग्रेजी में किताब उपलब्ध है. और भंवर मेघवंशी तथा प्रोफेसर शमशुल इस्लाम, डॉ. राम पुनीयानी, प्रोफेसर जयदेव डोळे, तथा प्रोफेसर रावसाहेब कसबे, डॉ. बाबआढाव, देवानूर महादेवन तथा मधु वाणि, हमारे जैसे कार्यकर्ताओं के हजारों की संख्या में लेख वीडियो सामग्री उपलब्ध है. लेकिन इस किताब में दोनों लेखकों ने अकादमिक तरीके से कोई भी टीका - टिप्पणी न करते हुए तटस्थ भाव से 405 पन्ने की इस किताब को लिखा है, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान संगठनात्मक ताकत 1990 के बाद विश्व का सबसे बड़ा संगठन के रूप में जिसकी दो करोड़ रोज की गतिविधियों में भाग लेने वाले लोगों से लेकर, दैनिक 57000 शाखाओं, तथा 14000 साप्ताहिक शाखाएं, 7000 मासिक शाखाओं, का विस्तार 36,293 देश के विभिन्न क्षेत्रों में यह 2016 के आंकड़े हैं 2015 से 16 के दौरान 51,332 से 57000 की संख्या में शाखाओं की वृध्दि हुई है 6000 प्रचारकों के सहयोग से हिंदू राष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार करने के लिए लामबंद है.
इसके अलावा 1980 के बाद आखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिंदू परिषद, के अलावा, जिवन के हर क्षेत्र के लिए अलग- अलग इकाइयों का गठन किया है. जिसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, अखिल भारतीय ग्राहक संस्था, वरिष्ठ नागरिक मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, विज्ञान भारती, ज्ञान प्रबोधिनी जैसे महत्वपूर्ण संस्था है. इसके अलावा दीनदयाल शोध संस्थान, रामभाऊ म्हाळगी अकादमी, जैसे संस्थानों का निर्माण किया गया है.
वैसे ही देवरस के संघ प्रमुख बनने के समय वह पहले संघ प्रमुख थे. जिन्होंने पहचाना कि, भारत जैसे बहुजातीय देश में संघ का ब्राह्मणी स्वरूप बदलने की आवश्यकता है. और उन्होंने उसे बदलने की, ऐतिहासिक शुरूआत की. और इस कारण से उन्होंने आदिवासियों अपने काम को बढ़ावा देने के लिए, वनवासी कल्याण आश्रम, की स्थापना करके के, आरोग्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में और मुख्यतः आदिवासियों के क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों में कल्याणकारी कार्यक्रम के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा उनके कार्यकाल में 5000 प्रोजेक्ट से, 1989 में दस गुना वृद्धि करने के कारण 1998 में 1,40,000, और 2012 में 1,65, 000 प्रोजेक्टों की संख्या बढ़ी है.
देवरस ने महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्रों के दौरे के बाद, पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि "45-48 विभागीय (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत की संघीय व्यवस्था को नहीं मानता है. इसलिए उन्होंने अपनी भाषा में, और अपनी सुविधा से देश के विभाग निर्माण किए हैं.) कार्यकर्ताओं को शुद्ध रूप से सेवा के क्षेत्र में काम करने के लिए विशेष रूप लामबंद होने की जरूरत है. सबसे अहं बात बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ, जनयोजनाओं को लेकर एक गोष्ठी को आयोजित करने के बाद, दोनों के बीच संवाद बढ़ाने की शुरुआत की.
और नीतिगत योजनाओं को लेकर जनता के साथ उसे उजागर करने की शुरुआत की. और इस तरह भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक मामलों में, एक दूसरे के साथ आदान- प्रदान व सहयोग को मजबूत बनाने के लिए महत्वपूर्ण शुरुआत भी की है.
गोलवलकर और हेडगेवार की तुलना में जो कि प्रथम और द्वितीय प्रमुख थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल के सफर में लगभग 48 साल उस पद पर रहे हैं. और अगर देवरस के 21 साल मिला दें तो 69 साल का कार्यकाल, पहले तीन संघ प्रमुखों का ही होता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ साल की उम्र में कम-से-कम तीन चौथाई हिस्सा आता है.
आज का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसकी मेहनत और कल्पना से ही है. बहुत लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 'एकचालकानुवर्त' जैसे आरोप करते हैं. लेकिन आज उसके देश भर के काम के फैलाव को देखते हुए लगता है, कि उन्होंने बहुत ही जमीनी स्तर पर सोच विचार करने के बाद ही इस तरह के संगठनात्मक हिस्से को बनाया, ताकि उसे स्थाई रूप दे सकें.
इसके उल्टा अन्य संगठनों ने जनतंत्र की नकल करने के चक्कर में अपने संगठनों में चुनाव की नकल कर के वर्तमान चुनाव पद्धति की सभी विकृतियों के साथ संगठन के बोगस सदस्यों को बनाकर, अपने जेबों से पैसे भरकर, वह चुनाव का खेल खेलने के लिए, नकली सभासदों से लेकर, वर्तमान चुनाव पद्धति की सभी धांधलियों के सहारे जनतंत्र का इस्तेमाल करते हैं. और अपने मनमर्जी के लोगों को उस जगह पर बैठाने के लिए अब तो ऑनलाइन चुनाव का पाखंड शुरू किया जा रहा है. संपूर्ण ऊर्जा सिर्फ और सिर्फ चुनाव के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है. और ऐसे लोगों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठित संगठन का मुकाबला कैसे होगा ? और इसी लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना में देश के सभी संगठनों की हैसियत नहीं के बराबर है. और इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चैलेंज करने की क्षमता वाला, आज की तारीख में 140 करोड़ की आबादी में एक भी संगठन नहीं है. और इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिन गुना रात चौगुनी प्रगति कर रहा है.
बालासाहब देवरस ने, (1973-94) इक्कीस साल तक संघप्रमुख रहने के कार्यकाल में संघ के ब्राम्हणी और शहर केंद्रित स्वरूप को बदलकर ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर दलित और आदिवासियों के बीच कल्याण कारी कामों के लिए, सैकड़ों युवा लोगों को भेजने का निर्णय लिया था. जिसका परिणाम आज उत्तर पूर्वी प्रदेश से लेकर देश के आदिवासियों क्षेत्रों में और ग्रामीण क्षेत्रों में भी संघ की पैठ बनाने के लिए देवरस के समय काफी बड़ा काम हुआ है.
उसी तरह इक्कीसवीं शताब्दी का सज्ञान लेते हुए, उन्होंने अपनी नीतिगत निर्णयों और सदस्यों के बदलाव के लिए विशेष रूप से प्रयास किया है. 1990 राष्ट्रीय आर्थिक विकास 400 % बढ़ने के कारण, विश्व बैंक हवाले से शहरी करण 1960 की तुलना में 2015 में डबल हो गया. जो 1960 में 18 % था. 1990 में 26 % और 2015 में 33 %. किन्से इन्स्टिटय़ूट के अनुसार मध्य वर्ग बढने की गति 14 % से 2005 में, 29 %, 2015 में और उनके अंदाज से 2025 में 44 % जिसके परिणामस्वरूप मोबाईल फोन इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि उसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
और इन्हें अपनी गिरफ्त में लेने के लिए नरेंद्र मोदी भारत के पहले राजनेता हैं, जिन्होंने 2007 में गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए, पहली बार थायलैंड की एक कंपनी को पैसे दे कर मोबाइल धारकों के साथ अपने विचारों को लेकर प्रचार- प्रसार करने के लिए, ट्रोलिंग की शुरुआत की. जो ट्रोल शुरू में कुछ हजारों में थे. अब लाखों की संख्या में हैं. जिसे मैंने 'सेफ्रोन डिजिटल आर्मी की उपमा दी है. और यह लोग बारह महीनों चौबीसों घंटे अपने प्रचार और दूसरे विचारों के लोगों के खिलाफ बदनामी की मुहिम लगातार करते रहते हैं. जिसके लिए फेक न्यूज उनमें फेक जानकारियां यहां तक कि गाजा, बंगला देश, पाकिस्तान, अफगाणिस्तान, सिरिया, इराक की घटनाओं को मॉर्फ करते हुए, भारत में हुई है. ऐसा पेश करते हैं. उसी तरह महात्मा गाँधी तथा जवाहरलाल नेहरू की छवि को धूमिल करने का काम लगातार कर रहे हैं.
ऐसा ही मेनस्ट्रीम मीडिया संस्थाओं की मदद से करवा ले रहे हैं. उदाहरण के लिए गुजरात के विधानसभा चुनाव के दौरान ही कोलकाता के मोमिनपूर में हिंदुओं के साथ, मुस्लिम समुदाय कैसे - कैसे जुल्म करता है ? ऐसा पांच - दस मिनट का क्लिप आज तक जैसे चैनल द्वारा लगातार दिखाया जा रहा था. और सेफ्रोन डिजिटल आर्मी, उसे व्हॉटसएप युनिवर्सिटी द्वारा फैलाने का काम कर रही थी. उसी तरह मुर्शिदाबाद के हिंसक वारदातों को लेकर भी अफवाहों को फैलाने का काम किया, इसलिए आरएसएस को रयूमर्स स्प्रेडिंग सोसायटी के नाम से भी जाना जाता है.
उसी दौरान मुझे खादीग्राम बिहार जाने वाली गाड़ी कोलकाता से पकडनी थी. तो मैं 14 नवंबर को नागपुर से निकलने के बाद, सुबह कोलकाता पहुंचा. मेरी खादीग्राम की गाड़ी शाम को थी, तो मैं हावड़ा स्टेशन से सीधा मोमिनपूर आकर दो - तीन घंटे उस इलाके में घूमते हुए, और स्थानीय लोगों से बातचीत करते हुए, तथाकथित अफवाहों में से एक भी सही नहीं पाई. उनमें से एक अफवाह थी कि "मुस्लिम समुदाय ने हिंदुओं का जीना हराम कर दिया है." और दूसरी "हिंदू कई दिनों से घरों में ही बंद हैं." तो मैंने संपूर्ण मोमिनपूर के दो - तीन चक्कर लगाने के बाद देखा कि कहीं कोई वारदात नहीं. लोगों का व्यवहार रोजमर्रे के जैसा चल रहा है. और जलाने या तोड़फोड़ की एक भी घटना नहीं देखा. लेकिन 'आजतक' जैसा वैश्विक स्तर पर चलने वाले, सबसे ज्यादा दर्शक देखते हैं. ऐसा दावा आजतक लगातार करते रहता है. और स्थानीय लोगों ने कहा कि "कोई भी मीडिया के लोग हमारे मोहल्ले में आपके आने के पहले नहीं आये हैं. उल्टा बोल रहे थे "कि वह एक आप ही पहले हो जो यह तहकीकात कर रहे हो."
15 नवंबर 2022 के दिन मैं मोमिनपूर में था. दोपहर का भोजन भी वहीं किया और शाम को वहीं से हावड़ा स्टेशन खादीग्राम की गाड़ी पकडने के लिए गया था. मैंने अपने मोबाइल से कुछ फोटो लेने की कोशिश की है.
1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, और उनके साथ कुछ और महाराष्ट्रियन ब्राम्हणों ने मिलकर स्थापित करने के बाद पंद्रह वर्ष उन्होंने सरसंघचालक का पद संभालने के बाद, अपनी मृत्यु के पहले ही चार साल तक प्रचारक के रूप रहे श्री. गुरुजी ऊर्फ माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर 1940 में, डॉ. हेडगेवार की मृत्यु के बाद 1973 तक तैतीस साल संघ की कमान संभालने के कारण वर्तमान समय का संघ और उसकी एकचालकानूवर्त कार्यप्रणाली से लेकर हिंदुत्व की बौद्धिक बैठक बनाने का काम किया है. उनकी मृत्यु के बाद, महाराष्ट्र के ही हेडगेवार के शिष्यों में से एक मधुकर दत्तात्रय देवरस 1973 - 94 तक लगभग इक्कीस साल संघ प्रमुख रहे हैं. जन्म से ब्राम्हण रहने के बावजूद और संघ को बहुत लोग सिर्फ ब्राम्हणों का संगठन बोलने की गलती करते हैं. लेकिन देवरस ने अपने कार्यकाल में संघ में पिछड़े वर्ग के लोगों से लेकर दलित, मुस्लिम और ख्रिश्चन लोगों को भी प्रवेश देने की शुरुआत की है. नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ, विनय कटियार, उमा भारती जैसे पिछड़ी जातियों के लोग इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.
और बालासाहब देवरस ने नई आर्थिक नीति के दौरान, तथाकथित वैश्वीकरण के आपाधापी के दौर का फायदा उठाकर पहचान की राजनीति को उछालने के कारण ही बाबरी मस्जिद - राममंदिर आंदोलन, और "गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं." के स्टिकर हर दरवाजे पर लगाने के उदाहरण के लिए लिख रहा हूँ.
और संघ प्रमुख रहते हुए ही उन्होंने 1985-86 में शाहबानो को लेकर कठमुल्ला मुस्लिम समुदाय के लोगों की तरफ से उठाया गया विवाद के मामले ने और उसमें से निकला हुआ नारा "सवाल आस्था का है, कानून का नहीं" को हथियार बनाकर संपूर्ण देश में राम जन्मभूमि विवाद की आड़ में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्राओं का दौर शुरू कर दिया और उस कारण लोगों के रोजमर्रे के सवाल, हाशिये पर जाने की शुरूआत हुई. और इसी कारण नई आर्थिक नीतियों से लेकर, महंगाई, बेरोजगारी, विस्थापन, पर्यावरणीय जैसे महत्वपूर्ण सवालों पर आंदोलनों की जगह, जनलोकपाल जैसे अजीबोगरीब मुद्दे पर, आंदोलन आया भी और बीजेपी को सत्ता में चढ़ाकर ठंडा भी हो गया. मतलब इस आंदोलन के पर्दे के पीछे संघ के लोग थे. जो रोज सुबह पांच बजे आज दिन भर जंतर-मंतर पर क्या होगा, यह तय किया करते थे. यहां तक कि कौन से नारे लगाने हैं, और कौन से नहीं. और स्टेज पर कौन रहेगा और कौन नहीं. मतलब जनलोकपाल एक जोकपाल बन कर रहा है. अफसोसजनक बात है, कि उस समय अच्छे - अच्छे लोग उस हवा में बह गए थे, जिन्हें बाद में दूध में गिरी हुई मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया है.
दलितों से लेकर, पिछड़ी जातियों से लेकर, आदिवासियों तक पैठ बनाने के कारण इन सब वर्गों में कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, नक्सलियों से लेकर आंबेडकराइट तथा कई स्वयंसेवी संस्था, विभिन्न प्रकार के मज़दूरों के संगठन जो सेक्युलर थे, लेकिन उनके 75 साल पहले के कामों के बावजूद भले ही वह विस्थापन के होंगे या पर्यावरण संरक्षण के पहचान की राजनीति में सब के सब असंबद्ध होकर रह गए हैं.
और देखते - देखते हिंदुत्ववादियों के चंगुल में ज्यादातर लोग चले गए हैं, और भागलपुर से लेकर गुजरात तक के दंगों में हरावल दस्ते के रूप में काम किए हैं. और बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर, अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ मॉबलिंचिग जैसे, हमलों में आगे रहते हैं.
और समस्त उत्तर भारत की, सत्तर के दशक में शुरू हुआ अगड़ी - पिछड़ी जातियों की राजनीति में मंडल की जगह कमंडल की, राजनीति करने में सक्षम हैं. इसलिये ज्यादातर पिछड़ी जातियों के लोगों ने, 'मंदिर वहीं बनायेंगे' के आंदोलन में शामिल होना शुरु किया और उस कारण, उत्तर भारत की राजनीति में कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार जैसे लोगों को आगे बढ़ाना शुरू किया और बसपा तथा सपा तथा समता पार्टी मतलब किसी जमाने के समाजवादी, जॉर्ज फर्नाडिस, एन डी ए के अध्यक्ष बनने तक का सफर उनकी राजनीतिक आत्महत्या का सफर रहा है. और गुजरात दंगों के समर्थन में लोकसभा में बोलने से लेकर, ओडिशा के कंधमाल के, फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दोनों बच्चों को जलाने की घटना को क्लीनचिट देने के पतनशीलता तक चले गए थे. मैंने उनके इस पतनशील व्यवहार के बारे में 'मेरे किसी जमाने के हीरो आज जीरो 'शीर्षक से अलग से लिखा है.
नरेंद्र मोदी जैसे आदमी को भारत का प्रधानमंत्री के पद संभालने के लिए चुना नहीं गया होता. सौ साल पहले के, नाजीवादी जर्मनी की स्थिति में आज भारत को ले जाने के लिए संघ परिवार के अथक प्रयासों का फल है. आज की नरेंद्र मोदी की दिल्ली में तीसरी बार सरकार. पहले दौर में नोटबंदी जैसा तुगलकी निर्णय से देश की आर्थिक स्थिति चरमराई, सामान्य लोगों के हाल बेहाल हो गए थे. दो करोड़ रोजगार की घोषणा करने वाले ने उल्टा उससे अधिक लोगों को बेरोजगारी की मार झेलने के लिए लगा दिया. और महंगाई आसमान को छूने लगी. सत्ताधारी बनने के पहले घरेलू गैस तीन सौ रुपये से कितना गुना बढ़ गया है ? और पेट्रोल - डीजल के दामों से लेकर दाल, सब्जी और घरेलू चीजों के दाम कितने बढ़े ? और किसानों के साथ कितनी नाइंसाफी चल रही है ? लेकिन उसके बावजूद 2024 में मोदी की तीसरी बार सत्ता में वापसी एक रहस्य है.
आरएसएस संगठन की रचना, उसके कार्यशैली, तथा उसने बनाये हुए अन्य क्षेत्रों में अपनी, शाखा- उपशाखा और संख्या के हिसाब से संघ के विस्तार के ग्राफ यहां तक कि अपनी राजनीतिक ईकाई बीजेपी की भी मतों के अनुपात से लेकर संख्यात्मक बढ़त को देखते हुए पता चलता है कि लगभग देश की आधी से भी अधिक आबादी को संघ ने अपने प्रभाव में ले लिया है. और शिक्षा के क्षेत्र में, आज भारत के सबसे ज्यादा विद्यार्थियों से लेकर, शिक्षक और वाइस चांसलरों की संख्या देखकर, लगता है कि आज की तारीख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बराबरी कर सकने की क्षमता और किसी भी संगठन की नहीं है.
मैं मेरे पचास साल से भी अधिक समय से, राष्ट्र सेवा दल के काम को देखते हुए मेरी समझ आई तबसे यह चिंता और चिंतन का विषय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रहा है. कि हमें भी इस चार जून को 84 साल होने जा रहे. और संघ की शताब्दी इसी वर्ष के दशहरे को होने जा रही है. हमारे और उनकी उम्र में सिर्फ सोलह साल का फर्क है. जबकि हमारे स्थापना के दूसरे ही साल हमारे मुंबई जैसे शहर में 125 शाखाओं का फैलाव था. और मुंबई मिलों के जैसे, तीन पालियों में, हमारी 125 शाखाओं की गतिविधियों का आयोजन होता था. यह बात मुझे मेरे अध्यक्ष रहते हुए. 2017 में पालघर के 90 साल से भी अधिक उम्र के नवनीत भाई शाह ने, अपनी मुलाकात के दौरान मुझे बताई है. वैसा ही 9 अगस्त 1942 भारत छोड़ो आंदोलन को 2017 में पचहत्तर साल पूरे होने के उपलक्ष्य में राष्ट्र सेवा दल की तरफ से आयोजित, यात्रा के दौरान मुझे महाराष्ट्र में पहली बार पता चला था कि अकेले राष्ट्र सेवा दल के एक हजार से अधिक शहीद जिसमें उम्र के तीस सालों से भी कम समय के हुए हैं.
वहीं गोवा मुक्ति की लड़ाई में गोवा, महाराष्ट्र और कर्नाटक के बेलगाव तथा अन्य सीमावर्ती इलाके के सैकड़ों राष्ट्र सेवा दल के सैनिकों ने, जिसमें बैरिस्टर नाथ पै से लेकर मधु लिमये, प्रोफेसर मधु दंडवते, नानासाहेब गोरे, महादेव जोशी, एडवोकेट राम आपटे, कॉम्रेड मेनसे, वासू देशपांडे से लेकर सैकड़ों लोगों ने गोवा की आजादी के लडाई में हिस्सा लिया है. वैसे ही हैदराबाद के निजाम के खिलाफ मराठवाडा राष्ट्र सेवा दल के प्रोफेसर नरहर कुरुंदकर से लेकर अनंतराव भालेराव, डॉ. बापु कालदाते, गंगाप्रसाद अग्रवाल, विनायकराव चारठानकर, गोविंद भाई श्रॉफ, जस्टिस नरेंद्र चपलगावकर जैसे सैकड़ों लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बिना भाग लिया है. मतलब स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर हैदराबाद मुक्ति आंदोलन तथा गोवा के मुक्ति मे अपनी जान की परवाह किए बगैर हजारों की संख्या में राष्ट्र सेवा दल के लोगों की सहभागिता रहने के बावजूद, आज यह विडंबना है कि इन सभी लडाईयो से नादारद रहने वाले संघी आज राष्ट्रीयता के और राष्ट्रभक्ति के सर्टिफिकेट बाट रहे हैं.
और आज हम कहाँ ? और आरएसएस कहाँ ? शायद हम लोग लाख आरएसएस को संकीर्णतावादी बोलते आ रहे हैं. लेकिन इस किताब के शुरू में ही आमुख में बहुत ही अच्छी तरह से देवरस के नेतृत्व में ( 1980 ) संघ ने पहचान की राजनीति को हवा देते हुए दलितों से लेकर, पिछड़े और आदिवासियों के बीच में अपने अनुयायियों को भेजकर जैसे उत्तर पूर्व के क्षेत्र में विवेकानंद केंद्र के माध्यम से एकनाथ रानडे तथा त्रिपुरा में सुनील देवधर ने आदिवासियों के भीतर जाकर, जिस तरह से पैठ बनाने की कोशिश की है. या झारखंड में अशोक भगत, गुजरात के आदिवासियों के साथ डांग में असीमानंद जैसे लोगों ने "कहा कि आप राम को झूठे बेर खिलाने वाले शबरी के वंशज हो."
पचास साल से भी अधिक समय से हमारे मित्र कॉमरेड शरद पाटिल, मेधा पाटकर, कुमार शिरालकर, किशोर ढमाले, वाहरू सोनवणे, अंबरसिह महाराज, प्रतिभा शिंदे ने आदिवासियों के विस्थापन या जमीन के पट्टे दिलाने के लिए अपने जीवन को लगा दिया. लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर पहचान की राजनीति में संघ के लोग उन पर हावी हो गए.
और 1990 के तथाकथित वैश्वीकरण के संक्रमण काल और बाबरी मस्जिद - राम मंदिर आंदोलन के कारण कई सारी आर्थिक समस्याओं के रहते हुए, लोगों के आर्थिक सवालों को लेकर आंदोलन होने चाहिए थे. उससे अधिक धार्मिक आधार पर रथयात्राओं से लेकर कारसेवा तक 'सवाल आस्था का है कानून का नहीं." इतिहास के क्रम में सबसे अधिक महंगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार के बावजूद सिर्फ धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर, अगडे - पिछड़ा सिद्धांत से लेकर सभी तरह के गणितीय हिसाब-किताब को मात देते हुए, सिर्फ 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं'. की आंधी पर चुनाव की नैया पार कर के ले जा रहे हैं. मतलब सौ साल पूरे होने के पहले ही अघोषित हिंदू राष्ट्र, बनाने में संघ को कामयाबियां हासिल हो रही हैं. यह वास्तव स्वीकार करने के बाद उससे निपटने के लिए पहल करने की आवश्यकता है.
WALTER K. ANDERSEN PROFESSOR OF SOUTH ASIA STUDIES, SCHOOL OF ADVANCED INTERNATIONAL STUDIES (SAIS) JOHNS HOPKINS UNIVERSITY, PRIOR TO JOINING THE SAIS, HE SERVED AS CHIEF OF THE US STATE DEPARTMENT's SOUTH ASIA DIVISION IN THE OFFICE OF ANALYSIS FOR THE NEAR EAST AND SOUTH ASIA. और सहलेखक महाराष्ट्रियन, लेकिन फिलहाल अमेरिकावासी SRIDHAR D. DAMLE IS A FREELANCE JOURNALIST AND SCHOLAR OF INDIAN POLITICS BASED IN THE US.
डॉ. सुरेश खैरनार,
नागपुर.