खिलाफत आंदोलन क्या था? महात्मा गांधी, तिलक और संघ के झूठ का ऐतिहासिक विश्लेषण

  • खिलाफत आंदोलन: एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
  • तुर्की का खलीफा और भारतीय मुसलमानों की भावना
  • महात्मा गांधी और खिलाफत आंदोलन का समर्थन: ऐतिहासिक सच्चाई
  • लोकमान्य तिलक, जिन्ना और लखनऊ समझौता
  • संघ का प्रोपेगेंडा और महात्मा गांधी को मुस्लिमपस्त ठहराने की साजिश
  • आज का भारत और सौ साल पुराने मुद्दों की राजनीति
  • तुर्की में खिलाफत का अंत और भारत में उसका असर

गांधी का असहयोग आंदोलन: खिलाफत से उपजा राजनीतिक अस्त्र

खिलाफत आंदोलन क्या था? क्या गांधी मुस्लिमपस्त थे? जानिए तिलक, जिन्ना और गांधी की भूमिका और संघ द्वारा फैलाए गए मिथकों की सच्चाई।

खिलाफत क्या है ?

इस विषय की चर्चा करने का प्रमुख कारण यह है कि संघ परिवार महात्मा गाँधी को मुस्लिमपस्त कहते थकता नहीं है, जिसमें बंटवारे का पुरजोर विरोध नहीं करने से लेकर, खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के लिए भी गाँधी जी को संघ दोषी मानता है. और इसलिए उन्हें मुस्लिमपस्त कहते थकते नहीं है. हालाँकि महात्मा गाँधी के कांग्रेस के सर्वोच्च नेता बनने के पहले 1916 में लोकमान्य तिलक और बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना के बीच में लखनऊ समझौते से मुसलमानों को स्वतंत्र मतदाता संघ देने की शुरुआत को अनदेखा कर देता है, उसी तरह तिलक जी ने ही खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के निर्णय जब 1919 में मुंबई में अली बंधु और अन्य खिलाफत आंदोलन के नेताओं का आगमन हुआ था तो उनके साथ लोकमान्य तिलक की स्वतंत्र बैठक हुई. और उसी बैठक के नतीजे में खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के लिए संपूर्ण कांग्रेस तैयार हुईं.

और गाँधीजी जालियांवाला बाग हत्याकांड के इंन्क्वायरी के काम में पंजाब में थे, तब दिल्ली में मुसलमानों की एक परिषद खिलाफत के सवाल पर होने जा रही थी. गाँधीजी को उसमें शामिल होने का निमंत्रण प्राप्त हुआ. वह 24 नवम्बर 1919 के दिन दिल्ली पहुँचे. और उसके पहले प्रथम विश्वयुद्ध की युद्धबंदी हो चुकी थी. और 11 नवम्बर 1918 तुर्की के सुलतान के भी उस युद्धबंदी के मसौदे पर हस्ताक्षर करने के कारण अपनी पराजय के ऊपर ठप्पा लगा लिया था. और वही सुलतान मुसलमानों का धार्मिक और राज्य का प्रमुख भी था, मतलब खलीफा था. और इस कारण संपूर्ण विश्व के मुसलमानों को अपना अपमान लगा. और उसी कड़ी में भारत के मुसलमानों को अपना अपमान लगा. और उन्होंने खलीफा के अधिकार हेतु आंदोलन शुरू किया. और उसमें अली बंधु, बैरिस्टर जिन्ना, मौलाना आजाद लोग भी खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने वाले लोगों में शामिल थे. और उसी नवम्बर 1919 के दिन दिल्ली की परिषद में गाँधीजी भी पंजाब से आकर शामिल हुए थे. और उसी परिषद में हिंदुओं ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया. हिंदु-मुस्लिम भाई-भाई का जमाना था. और उस समय महात्मा गाँधीजी भी कांग्रेसी अन्य नेताओं की तरह एक थे. और उस सभा में अंग्रेजी कपड़ों पर बहिष्कार करने की बात किसी वक्ता के मुँह से निकली लेकिन कौन से कपड़े इंग्लैंड के, कौन सा जापान, जर्मनी का यह सवाल आया. तो गाँधी जी की बोलने की बारी आई तो उन्होंने पहली बार विदेशी माल पर बहिष्कार की जगह उन्होंने असहयोग शब्द का उच्चारण किया. और उन्होंने कहा कि अंग्रेजों का विरोध करना और उनके साथ काम करना, यह एक ही समय नहीं चलेगा. तो सिर्फ अंग्रेजी माल पर बहिष्कार करने से काम नहीं चलेगा. अंग्रेजी स्कूल, न्यायालय, अंग्रेजी नौकरियों से लेकर अंग्रेजों के दिये हुए पुरस्कारों और मान-सम्मानों का भी त्याग कर सब पर असहयोग करने की बात गाँधीजी ने सत्याग्रह के अलावा खिलाफत के दिल्ली स्थित परिषद में नवम्बर 1919 के दिन भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए और एक औजार दिया है. जिसका नाम है असहयोग. दक्षिण अफ्रीका में 1906 में सत्याग्रह नाम का अस्त्र ईजाद किया तो पंद्रह साल के भीतर असहयोग आंदोलन का.

भारत में लोकमान्य तिलक के अलावा और भी नेता रहने के बावजूद गाँधी जी के पास कांग्रेस का नेतृत्व आने के प्रमुख कारणों में से एक कारण बगैर शस्त्र के अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सामान्य जनता को लड़ाई में शामिल करना था. और वह कर सके जो ऐसे अहिंसक कार्यक्रमों की देन है. जो अमेरिका तथा दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद विरोधी लडाई में इस्तेमाल हुए.

2011 के दिसंबर के अंतिम सप्ताह में हम लोग 'अमन ओ कारवां फॉर फ्री फिलिस्तीन की यात्रा के दौरान, 'दमास्कस में खालीद मिशाल नाम के फिलीस्तीनियों की लड़ाई का वर्तमान समय में नेतृत्व कर रहे नेता ने हमसे दो घंटे से भी ज्यादा समय की मुलाकात में दस बार महात्मा गाँधी के मार्ग से हम फिलिस्तीन मुक्ति का संघर्ष कर रहे हैं, ऐसा कहा था. और 1948 से फिलिस्तीन के भीतर जोर-जबर्दस्ती से इसराइल बनाने के खिलाफ लाखों फिलीस्तीनियों ने सत्याग्रह, धरना प्रदर्शन किया, यह इतिहास है. लेकिन पिछले दो सालों से इसराइल फिलिस्तीन के अस्तित्व को मिटाने के लिए तुला हुआ है. और जियोनिस्ट मीडिया द्वारा आतंकवाद-आतंकवाद की रट सुनने, देखने को मिलती है.

तिलक की मृत्यु एक अगस्त 1920 के दिन होने के बाद ही महात्मा गाँधी के पास कांग्रेस का नेतृत्व आया. फिर भी संघ लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय इत्यादि दिग्गजों के रहते हुए सिर्फ महात्मा गाँधी को मुस्लिमपस्त कहते थकता नहीं है. और इसका कारण मेरे हिसाब से महात्मा गाँधी के भारत आगमन के पाँच साल बाद उनकी कांग्रेस के साथ भारतीयों के ऊपर बढ़ता प्रभाव तथा अपने आप को सनातनी हिंदू कहना, भारत की राजनीति में अध्यात्म तथा आश्रमों की स्थापना और उन आश्रमों में एकादश व्रत-उपवास इत्यादि का समावेश करने से और सबसे अहम बात आश्रमों में जाति, धर्म, लिंग भेद को नकारते हुए, सभी के लिए मुक्त प्रवेश करने की बात. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना जनाधार बनाने के लिए, बहुत मुश्किल होने के कारण उपजी ईर्ष्या और उसके कारण महात्मा गाँधी की हर बात का मजाक उड़ाते हैं. और अंततः उनके ही प्रभाव से तैयार हुए कुछ लोगों ने षड्यंत्र करके हत्या करने तक पहुँचने वाला परिवार जैसे किसी भी दंगे में कानून से मुक्त हो जाते हैं, बिलकुल उसी तरह महात्मा गाँधी की हत्या के मामले में बरी होना एक कानूनी चतुराई के अलावा कुछ भी नहीं है. और इसलिए हत्या के बाद भारत की जनता के दिलों पर गाँधी के प्रभाव को कम करने की रणनीति के तहत खिलाफत, बंटवारे से लेकर पूना पैक्ट की आड़ में महात्मा गाँधी के खिलाफ अनर्गल बकवास कर रहे हैं, और करते रहेंगे. क्योंकि आरएसएस की नींव ही द्वेष के ऊपर होने के कारण गाँधी द्वेष और अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ तथा महिलाओं से लेकर आदिवासी, दलितों के खिलाफ द्वेष और खुलकर मनुस्मृति का महिमामंडित करने के समय-समय पर उनके कार्यकलापों के कारण यह संगठन आज भले सत्ता तक पहुँच गया, लेकिन इनकी द्वेषमूलक नींव के कारण हमारे देश की अखंडता की नींव कमजोर करने की गलती कर रहे हैं. और यह भारत की एकता-अखंडता के लिए खतरनाक है. और वह भी एक नकली देश भक्ति (सूडो नैशनलिस्ट ) की आड़ में.

और भारत का हिंदू-मुस्लिम सवाल महात्मा गाँधी के भारत आगमन के पहले से गोपाल कृष्ण गोखले और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक यह दोनों समकालीन महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण नेताओं ने मुख्य विभक्त मतदार संघ बनाने की मांग 1906-7 से जारी है. जबकि महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका में थे. और तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले यह ताकतवर नेताओं में से थे. और पहली बार अंग्रेज सरकार ने 1909 में विभक्त मतदाता संघ बनाने की मान्यता देने की शुरुआत की. और 1916 में लखनऊ समझौते से मुसलमानों को उनकी जनसंख्या से भी ज्यादा मतदाता संघ दिये गये. यह समझौता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और मुस्लिम लीग के नेता बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना के बीच हुआ. और सिंध नाम का नया प्रांत भी बनने के लिए तिलक जी ने मान्यता दी. जो और सिंध अलग नहीं हुआ होता तो राजनीति का चित्र बदलने की संभावना थी. यहीं से बंटवारे के बीज अंकुरित होने की शुरुआत हुई. और इस समय गाँधी की राजनीतिक हैसियत नहीं के बराबर थी. इन सब घटनाओं की जिम्मेदारी गोखले और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, दोनों समकालीन महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण नेताओं ने निभाई. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार गोखले-तिलक को छोड़कर महात्मा गाँधी के ऊपर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप गढ़ता रहता है. और सबसे संगीन बात खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने की शुरुआत भी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने की. और 1920 अगस्त के एक तारीख को अचानक मुंबई के सरदार गृह नाम के होटल में मृत्यु होने के पश्चात महात्मा गाँधी के हाथों में कांग्रेस का नेतृत्व आया. मतलब वह 1915 में भारत आने के पांच साल बाद. और वह भी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु होने के बाद.

लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार गाहे बगाहे मुस्लिमपस्त महात्मा गाँधी थे. यह प्रचार उनके जीवितकाल और हत्या के बाद भी किए जा रहा है. हालांकि नाथूराम गोडसे और उसके साथियों ने महात्मा गाँधी की हत्या क्यों की ? यह गोपाल गोडसे की 'गांधी हत्या और मै' किताब में भी मुसलमानों के हिमायती होने का आरोप लगाया है. और अब 77 साल के बाद भी वही रट लगाए जा रहा है, जिसमें खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के लिए भी उन्हें जिम्मेदार ठहराते हैं. जो कि अमृतसर कांग्रेस 1919 दिसंबर के अंतिम सप्ताह में खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के प्रस्ताव पारित करने की मुख्य वजह मुसलमानों का भारत के स्वाधीनता संग्राम में सहभागिता थी, जिसे तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल (प्रसिद्ध लाल, बाल, पाल की त्रिमूर्ति ) ने अंजाम दिया। गाँधी उस समय कांग्रेस के नेता नहीं बने थे।

और जब तक खिलाफत आंदोलन चरमोत्कर्ष पर था, तब उसे कांग्रेस के सभी शीर्षस्थ नेताओं का समर्थन था. आर्यसमाज के लाला लाजपत राय, हिंदू महासभा के पंडित मदनमोहन मालवीय, सप्रू, लोकमान्य बाळ गंगाधर तिलक, राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू और उनके सुपुत्र जवाहरलाल नेहरू, बंगाल के बिपिन चंद्र पाल मतलब महात्मा गाँधी के कांग्रेस पर पकड़ होने के पहले के सब.

सभी घटनाओं की जिम्मेदारी गाँधी के ऊपर डाल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार इतिहास के बारे में जिस तरह से तोड़-मरोड़कर पाकिस्तान के बनने से लेकर पचपन करोड़ देने के लिए भी गाँधी जी को संघ क्यों लक्षित कर रहा है ?

मुझे अबतक दो बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला है. तो कराची प्रेस क्लब में एक युवक पत्रकार ने मुझे बात-बात में कहा कि गांधी ने भारत-पाकिस्तान का बंटवारा किया. इससे ज्यादा विरोधाभास का उदाहरण और क्या हो सकता है ? क्योंकि बैरिस्टर जीना शुरुआत से ही गाँधी और कांग्रेस को हिंदूओं की जमात कहा करते थे. और संघ मुस्लिमपस्त, ऐसा विरोधाभास और किसी नेता के हिस्से में नहीं है.

इसका मेरे हिसाब से महात्मा गाँधी के खुद को सनातनी हिंदू कहना, अपने राजनैतिक कामों में अध्यात्म, आश्रम पद्धति और सादगी पूर्ण रूप से जीवन जीने के लिए एकादश व्रत-उपवास यही संघ परिवार के पैर तले की जमीन हिलने और अपनी हिंदुत्व की मुख्य घोषणा का औचित्य कमजोर करने के कारण भारत की सबसे बड़ी आबादी को वही अपील करने में कामयाब रहे. और तब भी ज्यादा जनसंख्या हिंदूओं की होने के बावजूद संघ परिवार की भारत के किसी भी क्षेत्र में विशेष प्रभाव बनाने की कोशिश नाकाम रही है. और इसलिए हत्या करने तक कदम उठाया. लेकिन वह और भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बदनामी और वह भी गांधी हत्या के बाद.

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में 1974 में जबरदस्ती से घुस कर आरएसएस ने अपनी छवि को धोने की कोशिश की है. और उसके बाद जनसंघ नाम की उनकी राजनीतिक इकाई के साथ मई 1977 जनता पार्टी नाम की पार्टी बनाने के बाद संघ के दिग्गज नानाजी देशमुख दिल्ली में उन्होंने जनता पार्टी के साथ दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान बनाकर जनता पार्टी की सत्ता की धाक दिखाकर बेशुमार धनराशि उसको खड़ा करने के लिए इकट्ठा की. उसी तरह विभिन्न राज्यों में और मुख्य रूप से महाराष्ट्र में वसंत भागवत उनके चेले प्रमोद महाजन ने मिलकर रामभाऊ म्हाळगी अकादमी नाम से कोंकण के समुद्र तटपर रिसोर्ट के जैसे ट्रेनिंग सेंटर सैकड़ों एकड़ क्षेत्र में खड़ा कर दिया. उसी तरह ग्यान प्रबोधिनी , वनवासी सेवा आश्रम, विवेकानंद केंद्र, सरस्वती शिशु मंदिर और विभिन्न शिक्षा के क्षेत्र में संस्थान बनाकर जनता पार्टी की सत्ता का सबसे बड़ा लाभ उठाने के बाद उन्नीस महीनों में अलग होकर अपनी वर्तमान बीजेपी की स्थापना 1981 में कर के तीस साल के भीतर देश और अन्य राज्यों में अपनी सरकार बनाने में कामयाब रहे. जिसके पहले अंग्रेजों की तर्ज पर बांटों और राज करो की नीति पर राम जन्मभूमि जैसे मुद्दे पर संपूर्ण देश में नब्बे के दशक की शुरुआत में रथयात्रा और, शिला पूजन, कारसेवा के धार्मिक प्रतीक इस्तेमाल कर के संपूर्ण भारत में धार्मिक ध्रुवीकरण कर के आज दिल्ली तक पहुँच गए हैं.

और आज जवाहरलाल नेहरू के और महात्मा गाँधी के छवियों को इतिहास को तोड़-मरोड़कर बिगाड़ने का योजना बद्ध काम कर रहे हैं. खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के लिए महात्मा गाँधी को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश भी उसी कड़ी का हिस्सा है. लेकिन वह जान बूझकर गोखले-तिलक की हिंदू-मुस्लिम विवादों को सुलझाने के लिए लखनऊ पैक्ट से लेकर खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के निर्णय की भी जिम्मेदारी महात्मा गाँधी पर डाल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार महाराष्ट्रीय ब्राह्मण नेताओ को बचाने की घृणास्पद कोशिश कर रहा है. और हर बात के लिए नेहरूजी और गाँधीजी को कटघरे में खड़ा कर आज 11 साल से सत्ता में आकर इन्हें कोई और सवाल नहीं पूछे इसलिए पुरानी बातों को निकालने और तोड़-मरोड़कर पेश कर के पूरी चर्चा अपने ऊपर आने के डर से गाँधी-नेहरु में उलझाने की सर्कस कर रहे हैं. इनकी अकर्मण्यता संपूर्ण दुनिया के सामने आर्थिक, स्वास्थ्य, सामाजिक और अब दो हफ्ते बाद 1975 के 26 जून को श्रीमती इंदिरा गाँधी के आपातकाल की घोषणा कर के लगाया था जिसे इस 26 जून को 50 साल हो रहे हैं. और संघ परिवार का 2014 के मई से अघोषित आपातकाल जारी है. और उसकी चर्चा नहीं हो इसलिए और-और मुद्दे उछालकर लोगों को उलझा कर रखना चाहते हैं.

आज खिलाफत आंदोलन को सौ साल से अधिक समय हो गया है. और कमाल अतातुर्क पाशा नाम के एक तुर्की फौजी अफसर ने बगावत कर के और मार्च के 1924 खिलाफत खत्म करने की घोषणा कर के संपूर्ण तुर्की को आधुनिक देश बनाने के लिए सेक्युलर (जिसे संघ परिवार नफरत करता है) तो महिलाओं को शिक्षा और अन्य अधिकार देकर कठमुल्लापन को खत्म करने का ऐतिहासिक काम किया, जो सातवीं शताब्दी में शुरुआत हुए इस्लाम के पंद्रह सौ साल के इतिहास में पहली कोशिश की. और खिलाफत नाम का नामो-निशान तक बचा नहीं.

मुझे तुर्की में दस साल पहले जाने का मौका मिला है. और अपने खुद की आँखो से देखकर यह लिख रहा हूँ. हालाँकि वर्तमान तुर्की शासक एदर्गोँन उसे वापस कठमुल्लापन की तरफ ले जाने की कोशिश कर रहा है. यह बात भारत के वर्तमान बीजेपी को भी लागू है.

लेकिन सौ साल पहले के गडे मुर्दों पर राजनीति करना संघ परिवार का विशेष हुनर है. जैसे बाबरी मस्जिद अब ज्ञानव्यापी और इसी तरह के इतिहास में घटित और अघटित मुद्दों पर देश की जनता को उलझा कर रखना चाहते हैं. ताकि लोग रोजमर्रा के सवालों पर ध्यान नहीं दें, विस्थापन, पर्यावरण तथा बेतहाशा महंगाई, बेरोजगारी , स्वास्थ्य, शिक्षा के क्षेत्र में भयंकर असफलताओं के रहते हुए, जान बूझकर इन ताजे असफलताओं के मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए इस तरह के घटनाक्रम काल की कोठरी में बंद बाते खोज-खोज कर निकाल कर बहस-मुबाहिसे में लोगों को उलझा कर रखना चाहते हैं.

लेख के मूल विषय की ओर आ रहा हूँ तो ऑटोमन साम्राज्य का इतिहास सन ( 1299 -1923 ) यह ऑटोमन साम्राज्य का लगभग सात सौ साल का शायद दुनिया के लिखित इतिहास का सबसे लंबे समय तक का एक मात्र साम्राज्य है. जिसे उस्मानी साम्राज्य भी कहा जाता है. और यह सोलहवीं शताब्दी और सत्रहवीं शताब्दियों में उत्कर्ष के शिखर पर था. एशिया, यूरोप और अफ्रीका इन तीनों खंडों में फैला हुआ साम्राज्य था. और उसी सम्राट को विश्व के सुन्नी मुसलमानों का खलीफा माना जाता था. जो प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की ने जर्मनी की तरफ से शामिल होने के कारण अलाइड फोर्सेस जिनका नेतृत्व इंग्लैंड कर रहा था, तो उनकी नाराजगी का खामियाजा भुगतना पड़ा. क्योंकि उसने अलाइड फोर्सेस की जगह जर्मनी का साथ दिया था. और कमाल अतातुर्क पाशा नाम के एक तुर्की फौजी अफसर ने बगावत कर के, और मार्च 1924 को ऑटोमन साम्राज्य की जगह, तुर्किस्तान नाम का देश बोलते हुए. खिलाफत समाप्त करने की घोषणा करने के साथ ही भारत में चल रहे खिलाफत (1919-20) आंदोलन का अस्तित्व खत्म हो गया था. लेकिन 1916 के लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और मुस्लिम लीग का लखनऊ समझौते से मुसलमानों को अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे आंदोलन में शामिल करने के उद्देश्य से और 1919 में अमृतसर कांग्रेस के अधिवेशन में खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के निर्णय की घोषणा कर के कांग्रेस के नेताओं में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और उसके बाद महात्मा गाँधी से लेकर सभी प्रमुख नेताओं ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने का उद्देश्य भारत के मुसलमानों को अंग्रेजों खिलाफ चल रहे आंदोलन में शामिल करना रहा.

भारत में 1920 के समय अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई तेज गति पकड़ने की शुरुआत के समय का यह वाकया है. अंग्रेजों ने खलीफा पद देने की वादाखिलाफी करने के कारण पूरे विश्व के मुसलमानों के आंदोलन छेड़ने के कारण भारत के भी मुसलमानों में खिलाफत को लेकर जबरदस्त विरोध शुरू हो चुका था. और उसका नेतृत्व मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली, जिन्हें अली बंधु के नाम से जाना जाता था.

अमृतसर कांग्रेस 1919 के बाद भारत के सभी क्षेत्रों में यह आंदोलन आग की तरह फैल गया. और जब 29 जनवरी, 1920 के दिन अली बंधु और मौलाना अब्दुल बारी और अन्य नेताओं का मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस में आगमन हुआ तो ग्रांट रोड स्थित मुजफ्फराबाद हॉल तक बेशुमार भीड़ थी. और कार्यक्रम के अलावा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ अली बंधु और अन्य नेताओं की स्वतंत्र बैठक हुई. और उस समय के सभी कांग्रेस के नेताओं को हिंदू-मुस्लिम एकता का अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने के लिए बहुत ही अच्छा मौका लगा. जिसमें महात्मा गाँधी के अलावा मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, जवाहरलाल नेहरु, तेगबहादुर सप्रू, बिपिन चंद्र पाल, मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचारी, इत्यादि नेताओं का जून 1920 के एक और दो तारीख को सेंट्रल खिलाफत कमिटी की बैठक इलाहाबाद में हुई थी. और उसमें असहयोग आंदोलन के तेजी पकड़ने की वजह उसी दरम्यान हंटर कमिशन की रिपोर्ट भी प्रकाशित करने से असहयोग आंदोलन ने और खिलाफत आंदोलन ने गति पकड़ी.

डॉ. सुरेश खैरनार

नागपुर