मोदी सरकार की विदेश नीति पर अमेरिकी दबाव, अमेरिकी धमकी पर 70 साल में पहली बार झुका भारत
मोदी सरकार की विदेश नीति पर अमेरिकी दबाव, अमेरिकी धमकी पर 70 साल में पहली बार झुका भारत

Narendra Modi
अमेरिकी धमकी पर भारत का झुकना क्या उसकी राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता को चुनौती नहीं है?
नई दिल्ली, 06 जुलाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति एक बार फिर अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे राजनीतिक संप्रभुता के समर्पण के लिए तैयार है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान से नाभिकीय संधि तोड़ने के बाद दुनिया के तमाम देशों से कह दिया है कि वे चार नवंबर तक ईरान से तेल का आयात पूरी तरह बंद कर दें। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की विजिटिंग प्रतिनिधि निक्की हेली ने यही संदेश भारत के प्रधानमंत्री को कड़े शब्दों में दिया है। उन्होंने कहा है कि भारत ईरान के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करे, क्योंकि अमेरिका ईरान को विश्व-शांति के लिए खतरा मानता है। हेली का कहना था कि ईरान अगला उत्तर कोरिया साबित होने जा रहा है। हालांकि हकीकत यह है कि अमेरिका ने हाल में गाजे-बाजे के साथ उत्तर कोरिया से समझौता कर लिया है। उसी समझौते के सिलसिले में अमेरिकी प्रतिनिधि की व्यस्तता के कारण इसी सात जुलाई को होने वाली भारत-अमेरिका वार्ता रद्द कर दी गई है।
भारतीय विदेश विभाग के प्रवक्ता रवीश कुमार के स्पष्टीकरण का निक्की पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा है। रवीश ने कहा था कि भारत और ईरान के संबंध बहुत पुराने हैं। भारत ईरान से हाइड्रोकार्बन का सबसे बड़ा आयातक देश है। इंडियन आयल अगले मार्च तक 70 लाख टन कच्चा तेल खरीदना चाहता था। मई में भारत ने ईरान से 771000 बैरल तेल प्रतिदिन की दर से आयात किया था। अमेरिकी दबाव के बाद सबसे बड़ी दिक्कत नकद भुगतान को लेकर है। भारत 10 अरब डालर के कच्चे तेल के आयात का भुगतान कैसे करेगा, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। एक तरफ भारत की तेल कंपनियों ने वैकल्पिक योजना तैयार कर रखी है, तो दूसरी ओर ईरान को वस्तु के रूप में भुगतान करने की तैयारी भी है। इन वस्तुओं में गेहूं और दवाइयां जैसी चीजें शामिल हैं।
सोशलिस्ट पार्टी ने मोदी-सरकार से मांग की है कि उसे अमेरिकी दबाव में भारत की पुख्ता ईरान नीति का त्याग नहीं करना चाहिये।
पार्टी प्रवक्ता डॉ. अभिजीत वैद्य ने कहा कि यहां असली सवाल यह है कि अमेरिकी धमकी पर भारत का झुकना क्या उसकी राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता को चुनौती नहीं है? भारत का शासक वर्ग और दुनियां में पूंजीवाद के पैरोकार भारत को एक तेज़ी से उभरती महाशक्ति बताते नहीं थकते। सोशलिस्ट पार्टी पूछना चाहती है कि क्या महाशक्ति भारत को यह तय करने का हक नहीं है कि वह किससे दोस्ती करे और किससे व्यापार करे? लगता यही है कि 'आक्रामक' विदेश-नीति के नाम पर की जाने वाली सारी फू-फां केवल देश की जनता को गुमराह करने के लिए है।
डॉ. अभिजीत वैद्य ने कहा कि जिस समय भारत ने ईरान के साथ गैस पाइप लाइन बनाने की तैयारी कर ली थी, तब भी तत्कालीन बुश प्रशासन ने भारत को नाभिकीय समझौते के लिए मजबूर किया था और ईरान से गैस का संबंध तोड़ने का दबाव बनाया था। आज जब भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ईरान पर निर्भर था, तब फिर उसे सऊदी अरब व दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इस बीच अमेरिकी दबाव में भारत ने लगातार अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के विरुद्ध मतदान भी किया। फिर भी ईरान ने भारत से मैत्री जारी रखी है। इसका कारण है कि भारत की लम्बे समय से एक सुनिश्चित ईरान नीति चली आ रही है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी ईरान से दोस्ती की पेंगे बढ़ाते दिखे थे। लेकिन लग यही रहा है कि अमेरिकी दबाव पड़ते ही वे भारत की स्थापित ईरान नीति पर पलटी मारने को तैयार हैं।
डॉ. अभिजीत वैद्य ने कहा कि सोशलिस्ट पार्टी का मानना है ऐसा होने से एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत की छवि दुनियां में कमजोर होगी और उसके हितों को नुकसान पहुंचेगा। सोशलिस्ट पार्टी मोदी-सरकार से मांग करती है कि उसे अमेरिकी दबाव में भारत की पुख्ता ईरान नीति का त्याग नहीं करना चाहिये।
Web Title: American pressure on Modi government's foreign policy, India bowed down to American threat for the first time in 70 years


