बहुजन जिस दिन जाति की जंजीरें तोड़ देंगे न जाति रहेगी और न हिंदू साम्राज्यवाद का नामोनिशान

जाति उन्मूलन और आरक्षण की राजनीति के बीच बहुजनों की भूमिका पर बड़ा सवाल। शत प्रतिशत हिंदुत्व, घर वापसी और आरक्षण की नीतियों को लेकर पलाश विश्वास का विश्लेषण।;

Update: 2019-03-22 13:00 GMT

बहुजन ही जाति उन्मूलन के सबसे ज्यादा खिलाफ हैं

  • शत प्रतिशत हिंदुत्व का ताजा फार्मूला
  • शत प्रतिशत हिंदुत्व और घर वापसी की राजनीति पर नई बहस

जाति उन्मूलन और आरक्षण की राजनीति के बीच बहुजनों की भूमिका पर बड़ा सवाल। शत प्रतिशत हिंदुत्व, घर वापसी और आरक्षण की नीतियों को लेकर पलाश विश्वास का विश्लेषण..

बहुजन जाति उन्मूलन और हिंदुत्व की राजनीति

  • आरक्षण और घर वापसी पर संघ परिवार का नजरिया
  • हिंदुत्व और आरक्षण नीति में बहुजनों की भूमिका
  • जाति व्यवस्था और आरक्षण का भविष्य भारत में
  • दलित बहुजन समाज और हिंदुत्वीकरण का खतरा
  • पलाश विश्वास का जाति उन्मूलन पर विचार
  • मनुस्मृति, हिंदुत्व और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था

घर वापसी के जरिये हिंदुत्व और अपनी जाति में लौटे बिना गैरहिंदुओं को आरक्षण नहीं मिलें, इसका चाकचौबंद इंतजाम हो रहा है…

पलाश विश्वास

सबसे पहले साफ यह कर दूं कि कि कोई होगा ईश्वर किन्हीं समुदाय के लिए, कोई रब भी होगा, कोई खुदा होगा तो कोई मसीहा , फरिश्ता और अवतार। उनकी आस्था और उनके अरदास पर हमें कुछ भी कहना नहीं है जिन पर नियामतों और रहमतों की बरसात हुई हैं। हमें उनकी आस्था और भक्ति से तकलीफ भी नहीं है और न हमारी हैसियत शिकायत लायक है।

हम सिरे से आस्था से बेदखल हैं। किसी ईश्वर, किसी मसीहा और किसी अवतार ने हमें कभी मुड़कर भी नहीं देखा। इसलिए नाम कीर्तन की उम्मीद कमसकम हमसे ना कीजिये। बेवफा भी नहीं हम। लेकिन हमसे किसी ने वफा भी नहीं किया।

हमने न किसी धर्मस्थल में घुटने टेके हैं और न किसी पुरोहित का यजमान रहा हूं और न किसी पवित्र नदी या सरोवर में अपने पाप धोये हैं। न मेरा कोई गाडफादर या गाड मादर है। हम किसी गॉड मदर या गॉडफादर के नाम रोने से तो रहे।

ताजा खबर यह है कि जाति के आधार पर जो अहिंदू बहुजन दूसरे धर्मों के अनुयायी होकर भी आरक्षण का लाभ लेना चाहते हैं, उनके लिए घर वापसी के अलावा आरक्षण के सारे दरवाजे गोहत्या निषेध की तरह बंद करने की तैयारी है।

मोदी सरकार और संघ परिवार का साफ-साफ मानना है कि जाति व्यवस्था सिर्फ हिंदुओं में है और इसके आधार पर आरक्षण का लाभ सिर्फ हिंदुओं को मिलना चाहिए।

धर्मांतरित जिन बहुजनों ने दूसरे किसी धर्म को अपनाया है और वहां जाति व्यवस्था नहीं है, भविष्य में उन्हें उस धर्म के अनुयायी रहते हुए हिंदुओं की जाति व्यवस्था के मुताबिक आरक्षण का लाभ (Reservation benefits based on the Hindu caste system.) नहीं मिलेगा।

घर वापसी के जरिये हिंदुत्व और अपनी जाति में लौटे बिना गैरहिंदुओं को आरक्षण न मिलें, इसका चाकचौबंद इंतजाम हो रहा है।

भारत को 2021 तक ईसाइयों और मुसलमानों से मुक्त करने के लिए शत प्रतिशत हिंदुत्व का यह अचूक रामवाण अब आजमाया ही जाने वाला है। फिर देखेंगे कि कैसे गैर हिंदू होकर रोजी रोटी कमायेंगे। कैसे गैरहिंदू होकर भी आरक्षण का मलाई बटोरते हुए अपनी-अपनी जाति से चिपके रहेंगे और हिंदू न बनने का साहस रखेंगे।

हमारे लिए खबर यह कतई नहीं कि लौहपुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी फिर कटघरे में हैं बाबरी विध्वंस के मामले में।

हम उनको कटघरे में खड़ा करने की टाइमिंग देख रहे हैं कि बाबरी मामला रफा दफा होने के बाद प्रवीण तोगड़िया जैसों के उदात्त उद्घोष राम की सौगंध खाते हैं, भव्य राममंदिर फिर वहीं बनायेंगे के महाकलरव मध्ये रफा दफा राममंदिर बाबरी प्रकरण को फिर नये सिरे से दावानल की शक्ल देने से धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलखिलाते कमल से कितनी कयामतें और बरसने वाली हैं।

शत प्रतिशत हिंदुत्व के एजेंडे और 2021 तक भारत को ईसाइयों और मुसलमानों से मुक्त कराने के लिए आहूत राजसूय यज्ञ में तो फिर क्या संघ परिवार अपने सबसे मजबूत, सबसे तेज और सबसे आक्रामक दिग्विजयी अश्व को बलिप्रदत्त दिखाकर सारे भारत में नये महाभारत की बिसात तो नहीं बिछा रहा है, हमारे दिलोदिमाग में ताजा खलबली यही है।

गौर कीजिये, अदालती सक्रियताओं के बावजूद मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था के तमाम अहम मामलों में मसलन भोपाल गैस त्रासदी, ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिखों के नरसंहार, बाबरी विध्वंस के आगे पीछे देश विदेश दंगों के कार्निवाल और गुजरात नरसंहार के मामलों में दशकों की अदालती कार्रवाई के बावजूद न्याय किसी को नहीं मिला है। न फिर कभी मिलने के आसार हैं। राजनीति की बासी कढ़ी उबाल पर है।

सच यह है कि न्याय की लड़ाई को ही धर्मोन्मादी महाभारत में अब तक तब्दील किया जाता रहा है और न्याय पीड़ितों से हमेशा मुंह चुराता जा रहा है।

गौरतलब है कि इन तमाम माइलस्टोन घटनाओं के मध्य अभूतपूर्व धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण और बहुसंख्य बहुजन जनता के व्यापक पैमाने पर हिंदुत्वीकरण की नींव पर खड़ा है आज का मुक्त बाजार।

मनुस्मृति धर्म ग्रंथ है या अर्थशास्त्र

यह हम पहली बार नहीं लिख रहे हैं और शुरु से हम लिखते रहे हैं, बोलते रहे हैं कि मनुस्मृति कोई धर्म ग्रंथ नहीं है, वह मुकम्मल अर्थशास्त्र है और वह सिर्फ शासक वर्ग का अर्थशास्त्र है जो प्रजाजनों को सारे संसाधऩों, सारे अधिकारों और उनके नैसर्गिक अस्तित्व और पहचान को जाति में सीमाबद्ध करके उन्हें नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित करके सब कुछ लूट लेने का एकाधिकारवादी वर्चस्ववादी रंगभेदी नस्ली अर्थतंत्र और समाज व्यवस्था की बुनियाद है। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था और ग्लोबल हिंदू साम्राज्यवाद का फासीवादी मुक्तबाजारी बिजनेस फ्रेंडली विकासोन्मुख राजकाज भी वही मनुस्मृति अनुशासन की अर्थव्यवस्था की निरंकुश जनसंहार संस्कृति की बहाली है।

अर्थशास्त्री बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर इस सत्य का समाना कर चुके थे और उन्हें मालूम था कि एकाधिकारवादी वर्णवर्चस्वी नस्ली इस शोषणतंत्र की मुकम्मल अर्थव्यवस्था की बुनियाद जाति है, हिंदू साम्राज्यवाद का एकमेव आधार जाति है, और इसीलिए उन्होंने जाति उन्मूलन का एजेंडा (The agenda for caste abolition) दिया और वंचितों को जाति के आधार पर नहीं, वर्गीय नजरिये से देखा। जाति उन्मूलन के लिए वे जिये तो जाति उन्मूलन के लिए वे मरे भी।

वक्त है अब भी सच का सामना करें अब भी कि

• बहुजन ही जाति उन्मूलन के सबसे ज्यादा खिलाफ हो गये हैं

• और बहुजन जिस दिन जाति की जंजीरें तोड़ देंगे

• न जाति रहेगी और

• न हिंदू साम्राज्यवाद का नामोनिशान रहेगा।

हिंदुत्वीकरण का यह धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद हिंदुत्व का पुनरूत्थान नहीं है यह बाकायदा मनुस्मृति के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था से प्रजाजनों का सिसिलेवार बहिस्कार और नरसंहार का कार्निवाल है।

हमारे परम आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े से पढ़े लिखे बहुजनों को बहुत एलर्जी है कि वे पॉलिटिकली करेक्टनेस की परवाह किये बिना सच को सच कहने को अभ्यस्त हैं। बहुजनों को वे सुहाते नहीं हैं, जबकि वे प्रकांड विद्वान होने के साथ- साथ बाबासाहेब के निकट परिजन भी हैं जो बाबासाहेब के नाम पर कोई राजनीति नहीं करते हैं दूसरे परिजनों और अनुयायियों की तरह।

जिन मुद्दों पर मैं रोजाना अपने रोजनामचे में पढ़े लिखे बहुजनों की नींद में खलल डालने की जोर कोशिश कर रहा हूं और जिन मुद्दों पर उनके यहां सिरे से खामोशी हैं, उन मुद्दों पर हमारी आनंदजी से लगातार लंबी बातें होती रही हैं। सूचनाओं से भी हमारे लोगों को कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए वह सिलसिला बंद करना पड़ रहा है।

बाबा साहेब जाति उन्मूलन एजेंडे में ही न सिर्फ भारतीय जनगण और न सिर्फ अछूतों, आदिवासियों, पिछडो़ं और स्त्रियों, किसानों और मजदूरों की मुक्ति का रास्ता देखते थे, बल्कि मानते रहे होंगे कि यह एकाधिकार प्रभुत्व से भारतीय अर्थव्यवस्था में आम जनता के हक हकूक बहाल करने का एकमात्र रास्ता है, जिसके लिए साम्राज्यवाद और सामंतवाद दोनों ही मोर्चे पर मुक्तिकामी जनता का जनयुद्ध अनिवार्य है इस राज्यतंत्र को सिरे से बदलकर समता और सामाजिक न्याय आधारित वर्गविहीन जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए।

भारत के वाम ने इस कार्यभार को कितना समझा, कितना नहीं समझा, इस पर यह संवाद फिलहाल नहीं है। बाबासाहेब को कभी दरअसल वाम ने सीरियसली समझने की कोशिश की है और अछूत वोटबैंक के मसीहा से ज्यादा उन्हें कोई तरजीह दी है, वाम आंदोलन में सिरे से अनुपस्थित अंबेडकर का किस्सा यही है। अलग से इसे साबित करने की जरूरत नहीं है। वाम मित्र और विशेषज्ञ इस पर कृपया गौर करें तो शायद बात कोई बने।

सच यह है कि इस कार्यभार को स्वीकार करने में कोई बहुजन पढ़ा लिखा किसी भी स्तर पर तैयार नहीं है और बाबा साहेब के अनुयायी होने का एक मात्र सबूत उसका यह है कि या तो जय भीम कहो, या फिर जय मूलनिवासी कहो या फिर नमो बुद्धाय कहो और हर हाल में अपनी अपनी जाति को मजबूत करते रहो।

सत्ता में भागीदारी के लिए बहुजन एकता और सत्ता में आने के बाद बाकी दलित पीड़ित अन्य जातियों के सत्यानाश की कीमत पर सवर्णों से, प्रभु-वर्ग से राजनीतिक समीकरण साधकर सभी संसाधनों और मौकों को सिर्फ अपनी जाति के लिए सुरक्षित कर लेना बहुजन राजनीति है। यह समाजवाद भी है।

बदलाव, समता और सामाजिक न्याय का कुल मिलाकर यही एजेंडा है जिसका मनुस्मृति शासन, मनुस्मृति अर्थव्यवस्था, नस्ली भेदभाव, वर्ण वर्चस्व के विरुद्ध युद्ध से कोई लेना देना नहीं है और न बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजेंडे से।

उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र, यूपी बिहार में सामाजिक बदलाव का पूरा इतिहास जातियुद्ध के सिवाय, जाति वर्चस्व के सिवाय, हिंदुत्व की समरसता के सिवाय़ क्या है, पता लगे तो हमें भी समझा दीजिये।

अपनी-अपनी जाति की गोलबंदी के लिए बाबासाहेब के जन्मदिन, बाबासाहेब के तिरोधान दिवस और बाबासाहेब के दीक्षा दिवस का इस्तेमाल करते हुए हम क्रमशः ब्राह्मणों से अधिक ब्राह्मण, ब्राह्मणों से अधिक कर्मकांडी और ब्राह्मणों से सौ गुणा ज्यादा जातिवादी मनुस्मृति के पहरुए, मनुस्मृति के झंडेवरदार बजरंगी बनते चले जा रहे हैं और नीले रंग पर भी अपना दावा नहीं छोड़ रहे हैं। बहुजनों में अंतरजातीय विवाह का चलन (The trend of inter-caste marriages among Dalits) नहीं है जबकि ब्राह्मणों और सवर्णों से रिश्ते बनाने का कोई मौका बहुजन पढ़े लिखे छोड़ते नहीं है और अपने कुलीनत्व में बहुजनों से हरसंभव दूरी बनाये रखने में कोई कोताही बरतते नहीं है।

अपनी जाति के लिए ज्यादा से ज्यादा आरक्षण की लड़ाई एक नया महाभारत है। इससे दबंग जातियां कोई किसी से पीछे नहीं है। जिन्हें आरक्षण मिला नहीं है, वे आरक्षण की मृगतृष्णा में दूसरे बहुजनों के खून की नदियां पार करने की तैयारी करने से हिचक नहीं रहे हैं।

ऐसा हमने रोजगार संकट के विनिवेश निजीकरण कारपोरेट राजकाज समय में विभिन्न राज्य में खूब देखा है। आप भी याद करें। नाम उन जातियों का बताना उचित न होगा। इसलिए जानबूझकर उदाहरण दे नहीं रहा हूं।

यह बहुजन समाज है दरअसल। इस सच का सामना किये बिना हम मुक्तबाजार के वधस्थल पर भेड़ों की जमात के अलावा कुछ नहीं हैं और हमारा अंतिम शरण स्थल फिर वही संघ परिवार का समरस हिंदुत्व है।

अपने आनंद तेलतुंबड़े सच का सामना करने में हमसे ज्यादा बहादुर हैं और सच-सच कहने से नहीं हिचकते कि आरक्षण की व्यवस्था से जाति व्यवस्था को संवैधानिक वैधता मिली है और जाति व्यवस्था दीर्घायु हो गयी है।

आरक्षण के लाभ जो तबका जाति के नाम पर उठा चुका है, उनका सारा कृतित्व व्यक्तित्व और वजूद जाति अस्मिता पर निर्भर हैं और अपनी संतानों को कुलीनत्व और नवधनाढ्य तबके में शामिल करने की अंधी दौड़ में वह तबका जाति को ही मजबूत कर रहा है।

वंचित बहुजन जिनके सामने जीने का कोई सहारा नहीं है, जो निरंतर बेदखली का शिकार है, जो नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित हैं, जो या तो मारे जा रहे हैं या थोकभाव से आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं, उन बहुजनों से पढ़े लिखे बहुजनों का कोई ताल्लुकात नहीं है।

जिस जाति व्यवस्था की वजह से बहुसंख्य बहुजन मारे जा रहे हैं, पढ़े लिखे मलाईदार बहुजन संघ परिवार के एजेंडे के मुताबिक उसी जाति व्यवस्था को मजबूत करने का हर संभव करतब कर रहे हैं और जाति उन्मूलन पर बात करते ही हाय-तोबा मचाकर किसी को भी ब्राह्मणवादी करार देकर सिरे से बहस चलने नहीं देते हैं।

बाबासाहेब ने सच ही कहा था कि सिर्फ उन्हें नहीं, बल्कि बहुसंख्य बहुजनों को लगातार धोखा दे रहे हैं पढ़े लिखे मलाईदार बहुजन, जिनका जीवन मरण जाति का गणित है और जाति के गणित के अलावा उनके दिलोदिमाग को कुछ भी स्पर्श नहीं करता।

स्वजनों की खून की नदियां उन्हें कहीं दीखती नहीं हैं। दीखती हैं तो उन्हें पवित्र गंगा मानकर उसमे स्नान करके खून से लथपथ होने में भी उन्हें न शर्म आती है और न हिचक होती है।

विनिवेश और संपूर्ण निजीकरण के जमाने में आरक्षण से अब रोजगार और नौकरियां मिलने के अवसर नहीं के बराबर हैं क्योंकि स्थाई नियुक्तियां हो नहीं रही हैं और सरारी नियुक्तियां हो न हो, सरकारी क्षेत्र का दायरा अब शून्य होता जा रहा है। यह आरक्षण सिर्फ और सिर्फ राजनीति आरक्षण है जिससे बहुजनों का अब कोई भला नहीं हो रहा है, बहुजनों का सत्यानाश करने वाले अरबपति करोड़पति नवब्राह्मण तबका जरूर पैदा हो रहा है जो बहुजनों को भेड़ बकरियों की तरह हांक रहा है और उनका गला भी बेहद प्यार से सहलाते हुए रेंत रहा है।

बहुजन पढ़े लिखे मलाईदार तबके ने इसे रोकने के लिए बामसेफ जैसे जबरदस्त संगठन होने के बावजूद पिछले तेइस साल तक कोई पहल उसी तरह नहीं की, जैसे ट्रेड यूनियनों ने मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था के नरसंहारी अश्वमेध का विरोध न करके बचे खुचे कर्मचारियों के बेहतर वेतनमान बेहतर भत्तों और सहूलियतों की लड़ाई में ही सारी ऊर्जा लगा दी।

मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के बजाय नवधनाढ्य सत्ता वर्ग में शामिल कर्मचारी इस व्यवस्था की सारी मलाई खुद दखल करने की लड़ाई लड़ते रहे हैं और जाति इस दखलदारी की सबसे अचूक औजार है।

हमारी मानें तो संघ परिवार का कोई विशेष योगदान नहीं है हिंदुत्व के इस पुनरूत्थान में।

  • नरेंद्र मोदी ब्राह्मण नहीं हैं।
  • आडवाणी भी ब्राह्मण नहीं हैं।
  • बाबरी विध्वंस से लेकर कारसेवकों और उनके अगुवा समुदायों के अलग अलग चेहरे देखें, तो वे ब्राह्मण राजपूत कम ही होंगे, जिन्हें कोसे गरियाये बिना बहुजन राजनीति का काम नहीं चलता। संघ परिवार में ब्राह्मणों की जो जगह थी, वह अब बहुजनों के कब्जे में है।

अपने ही नरसंहार का सामान जुटाने में लगे हैं बहुजन।

धर्मोन्मादी बहुजन कारसेवक बहुजन हीं हैं और संघ परिवार के हिंदुत्व की कामयाबी का रसायन लेकिन यही है।

संघ परिवार ने इसे ठीक से समझा है और इस रसायन के सर्वव्यापी असर के लिए जो कुछ भी करना चाहिए, सब कुछ किया है और उनका सबसे बड़ा दांव निःसंदेह नरेंद्र भाई मोदी ओबीसी हैं, जो जाति पहचान और समीकरण के हिसाब से कमसकम बयालीस से लेकर बावन फीसद तक जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं।

वामदलों ने किसी भी स्तर पर कभी बहुजनों को नेतृत्व देने की कोशिश नहीं की न बहुजनों की वहां कोई सुनवाई हुई है और देश भर में हाशिये पर हो जाने के बावजूद वाम सच का सामना करने को अभी भी तैयार नहीं है, तो बहुजनों के सार्वभौम हिंदुत्वकरण में कामयाब संघ परिवार के मुकाबले हवा हवाई युद्ध घोषणाओं के सिवाय हमारे लिए फिलहाल करने को कुछ नहीं है।

लौह पुरुष को कटघरे में खड़े हो जाने से जो हर्षोल्लास है, उसका दरअसल मतलब कुछ और है।

भोपाल गैस त्रासदी, आपरेशन ब्लू स्टार और सिखों के नरसंहार, बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार के मामलों में हमने अंधे कानून का दसदिगंत व्यापी जलवा देखा है तो मध्य बिहार के तमाम नरसंहार के मामलों में यही होता रहा है।

कानून के राज का करिश्मा यह है कि दलित और स्त्री उत्पीड़न के तमाम मामलों में यही सच बारंबार बारंबार दोहराया जाता रहा है।

कानून के राज का करिश्मा यह है कि फर्जी मुठभेड़ों और फर्जी आतंकी हमलों के तमाम मामले लेकिन कभी खुले ही नहीं है।

कानून के राज का करिश्मा यह है कि नक्सली और माओवादी जिन्हें करार दिया जाता है, जो राष्ट्रद्रोही करार दिये जाते हैं, उन्हें भी न्याय नहीं मिलता है।

कानून के राज और मिथ्या संप्रभू लोकतंत्र का करिश्मा यह है कि इरोम शर्मिला चौदह साल से अनशन पर हैं...

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