जस्टिस काटजू ने क्यों दी अब्राहम लिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा को चुनौती

लोकतंत्र पर: भारत की चुनावी वास्तविकता पर न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू का आलोचनात्मक दृष्टिकोण;

By :  Hastakshep
Update: 2025-09-05 05:11 GMT

लोकतंत्र पर: भारत की चुनावी वास्तविकता पर न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू का आलोचनात्मक दृष्टिकोण

  1. लिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा और उसकी सीमाएँ
  2. लोकतंत्र और एक शिक्षित, आधुनिक मानसिकता की आवश्यकता
  3. जातिवाद, सांप्रदायिकता और भारत की चुनावी वास्तविकता
  4. मतदाता उत्तरदायित्व और आपराधिक राजनीति का प्रश्न

जस्टिस काटजू का स्पष्ट निष्कर्ष

नई दिल्ली, 5 सितंबर 2025. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू ने अब्राहम लिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा को चुनौती देते हुए भारत में इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाया है, जहां जाति, सांप्रदायिकता और वोट बैंक की राजनीति चुनावी प्रक्रिया पर हावी है।

hastakshepnews.com पर अंग्रेज़ी में लिखे लेख में जस्टिस काटजू ने लिखा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन के रूप में परिभाषित किया था। अगर यही लोकतंत्र है, तो मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ।

उन्होंने लेख की शुरूआत करते हुए लिखा-"इन दिनों विपक्षी दलों, मीडियाकर्मियों और तथाकथित 'बुद्धिजीवियों' द्वारा, खासकर आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, भाजपा सरकार के साथ मिलकर, भारत के चुनाव आयोग द्वारा कथित तौर पर 'लोकतंत्र की हत्या' किए जाने को लेकर खूब हंगामा मचाया जा रहा है। इन लोगों की धारणा है कि लोकतंत्र एक अच्छी चीज़ है, इसलिए जो भी इसे नुकसान पहुँचाता है वह बुरा है। लेकिन क्या यह धारणा सही है?

"

जस्टिस काटजू ने लिखा-"सरकार निश्चित रूप से जनता के लिए होनी चाहिए, अर्थात उसे जनता के कल्याण के लिए काम करना चाहिए।

लेकिन जनता की और जनता द्वारा (दोनों शब्दों का वास्तव में एक ही अर्थ है) होने के लिए उच्च शिक्षित, आधुनिक सोच वाली जनता की आवश्यकता होती है, क्योंकि पिछड़ी सोच वाले लोग खुद पर शासन कैसे कर सकते हैं? वे छोटे बच्चों की तरह होते हैं, जिन्हें यह नहीं पता कि उनके लिए क्या अच्छा है, और उन्हें अपने माता-पिता और बड़ों द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए।"

उन्होंने लिखा कि भारत में 90% लोग जातिवादी और/या सांप्रदायिक हैं। जातिवाद और सांप्रदायिकता सामंती, पिछड़ी ताकतें हैं, और जो लोग जातिवादी और सांप्रदायिक हैं, उनकी मानसिकता सामंती है, आधुनिक वैज्ञानिक नहीं। क्या वे शासन करने के योग्य हैं?

जस्टिस काटजू ने आगे कहा कि सभी जानते हैं कि भारत में लोकतंत्र मुख्यतः जाति और सांप्रदायिक वोट बैंक के आधार पर चलता है। ज़्यादातर मतदाता जब वोट देने जाते हैं, तो वे उम्मीदवार की योग्यता नहीं देखते, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, शिक्षित हो या अशिक्षित, अपराधी हो या नहीं। वे यह भी नहीं सोचते कि खाद्यान्न जैसी ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छू रही हैं और बेरोज़गारी रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गई है। वे यह भी नहीं सोचते कि भारत में हर दूसरा बच्चा कुपोषित है (गूगल पर ग्लोबल हंगर इंडेक्स देखें) और न ही यह कि 57% भारतीय महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं।

उन्होंने कहा कि मतदाता केवल उम्मीदवार की जाति या धर्म (या वह जाति/धर्म जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा उसकी पार्टी करती है) देखता है। यही कारण है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में चुने गए 543 सांसदों में से 47% कथित तौर पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने पूछा कि क्या ऐसे लोग वोट देने के अधिकार के हकदार हैं?

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