परंपरागत ज्ञान बनाम आधुनिक शिक्षा : टकराव या सह-अस्तित्व? – प्रोफेसर राम पुनियानी का विश्लेषण
परंपरागत और आधुनिक ज्ञान के टकराव, औपनिवेशिक शिक्षा, हिंदुत्व विचारधारा और भारतीय समाज में बदलाव पर प्रोफेसर राम पुनियानी का गहन विश्लेषण।;
औपनिवेशिक मानसिकता पर एक नई बहस : मैकाले, मोदी और परंपरा का प्रश्न
- हिंदुत्व राष्ट्रवाद और इतिहास की पुनर्व्याख्या
- आधुनिक शिक्षा से खुले नए द्वार : हाशिए के समाज की आवाज़
- अंग्रेजी शिक्षा, क्षेत्रीय भाषाएँ और सांस्कृतिक पुनर्जागरण
- पुरातत्व, शोध और भारतीय विरासत की नई खोजें
- स्वतंत्रता आंदोलन में आधुनिक शिक्षा की भूमिका
- परंपरागत ज्ञान की पुनर्स्थापना और नई शिक्षा नीति
सभ्यताओं का संगम : न्याय और समानता की ओर बढ़ता रास्ता
भारत में ज्ञान की दो धाराएँ—परंपरागत और आधुनिक ज्ञान—अक्सर आमने–सामने खड़ी दिखती हैं। एक ओर वह विरासत है जिसे सदियों तक संभ्रांत वर्गों ने सँजोई, और दूसरी ओर वह आधुनिक शिक्षा, जिसने समाज के बंद दरवाजों को खोलकर नई चेतना पैदा की। हाल के वर्षों में यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई है, खासकर तब जब औपनिवेशिक मानसिकता, मैकाले की शिक्षा, और भारतीय ज्ञान-परंपरा के भविष्य पर राजनीतिक और वैचारिक विमर्श उभरा है।
इस लेख में सुप्रसिद्ध स्तंभकार प्रोफेसर राम पुनियानी विस्तार से बता रहे हैं कि ज्ञान प्रणालियाँ अलग-अलग दिशाओं से आती हैं, लेकिन उनकी टक्कर हो, यह अनिवार्य नहीं है। वे इतिहास के उन पन्नों को पलटते हैं जहाँ अंग्रेजी शिक्षा ने उदार विचारों को पनपने दिया, क्षेत्रीय भाषाओं को नई ऊर्जा मिली और समाज के वंचित वर्गों को खुद को व्यक्त करने का अवसर मिला। साथ ही प्रोफेसर राम पुनियानी यह भी याद दिलाते हैं कि ब्रिटिश शासन की आलोचना के साथ-साथ उसके द्वारा शुरू की गई संस्थाओं—पुरातत्व सर्वेक्षण, शोध परंपरा, आधुनिक प्रशासनिक ढाँचे—ने हमारे समाज को एक नई दिशा दी।
आज जब नई शिक्षा नीति परंपरागत ज्ञान की पुनर्स्थापना का परचम उठाती है, यह समझना आवश्यक है कि समाज की हर उन्नति किसी एक धारा से नहीं, बल्कि विविध विचारों और सभ्यताओं के संगम से जन्म लेती है। यही संगम न केवल हमें अतीत से जोड़ता है, बल्कि भविष्य का रास्ता भी बनाता है। पढ़िए प्रोफेसर राम पुनियानी का यह लेख
परंपरागत और आधुनिक ज्ञान क्या परस्पर विरोधी हैं?
रामनाथ गोयनका व्याख्यानमाला के अंतर्गत हाल में अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि हमें संकल्प लेना चाहिए कि अगले 10 सालों में हम औपनिवेशिक मानसिकता से पूरी तरह मुक्त हो जाएंगे. दस साल बाद लार्ड मैकाले द्वारा भारत में अंग्रेजी ढंग की शिक्षा देने की शुरुआत हुए 200 साल पूरे हो जाएंगे. मोदी के मुताबिक, "...मैकाले का उद्धेश्य देशज ज्ञान पद्धतियों को तबाह कर भारतीय विचार पद्धति में आमूलचूल बदलाव लाना और औपनिवेशिक शिक्षण देश पर लादना था‘‘. मोदी ने कहा कि मैकाले का जुर्म यह था कि उससे ऐसे भारतीय बनाये जो "दिखने में भारतीय परंतु सोच में अंग्रेज थे". इस प्रणाली ने भारत का आत्मविश्वास नष्ट कर दिया और उसमें हीन भावना उत्पन्न हुई. (दि इंडियन एक्सप्रेस नवंबर 18, 2025)
मोदी हिन्दुत्वादी राष्ट्रवाद के हामी आरएसएस के प्रचारक हैं. आरएसएस की विचारधारा अभी तक "दुष्ट मुस्लिम राजाओं" और हिन्दुओं पर उनके ज़ुल्मों जैसे मंदिर नष्ट करना और उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य करना आदि जैसे मुद्दों पर केन्द्रित रही है. इस नैरेटिव के मुताबिक प्राचीन काल भारत का स्वर्ण युग था और मुस्लिम आक्रांता जब यहां आए तो अपने साथ बुराईयां लाए. पिछले कुछ समय से हिन्दू राष्ट्रवादी विचारकों की नज़र ब्रिटिश शासन की 'औपनिवेशिकता‘ की बुराईयों पर भी केन्द्रित हो गई है. औपनिवेशिकता से आशय है औपनिवेशिक सोच और परंपरागत ज्ञान व विचार प्रणालियों का दमन.
मज़े की बात यह है कि ये बातें एक ऐसी विचारधारा के पैरोकार कर रहे हैं जिसके समर्थकों ने देश की आम जनता द्वारा गांधीजी की अगुवाई में औपनिवेशिक सत्ता के विरूद्ध छेड़ी गई लड़ाई से सुरक्षित दूरी बनाये रखी. .
जहाँ मोदी जमात हमारी खामियों और कमियों के लिए मैकाले को दोषी ठहराती हैं, वहीं चन्द्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक मैकाले के योगदान की यह कहते हुए सराहना करते हैं कि मैकाले ने जो नींव डाली, वही आगे चलकर दलितों एवं समाज के हाशिए पर पड़े अन्य वर्गों की गरिमा एवं समानता के लिए संघर्ष का आधार बनी.
मोदी और उनके जैसे लोग मानते हैं कि मैकाले / अंग्रेजों द्वारा स्थापित संस्कृति एक सीधी रेखा है. दिलचस्प बात यह है कि यह जमात खुद भी यूरोप मार्का राष्ट्रवाद की हामी है, जो धर्म और भाषा पर आधारित है. भारत में विकसित राष्ट्रवाद कहीं अधिक जटिल था. अंग्रेजी के शिक्षण से आधुनिक उदारवादी मूल्य स्थापित हुए और उसने महिलाओं और दलितों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए ज्ञान के दरवाजे खोल दिए. ये दोनों वर्ग शिक्षा से वंचित थे क्योंकि गुरूकुलों में दी जाने वाली शिक्षा सिर्फ ऊंची जातियों के पुरूषों के लिए उपलब्ध थी.
भारत में सुश्रुत, आर्यभट्ट, ब्रम्हगुप्त, लोकायत धारा और भास्कर आदि के योगदान से विकसित ज्ञान ने समाज को प्रबुद्ध एवं ज्ञानवान बनने की दिशा में बढ़ने में योगदान दिया. यह ज्ञान परंपरागत संभ्रात वर्गों के नियंत्रण में था एवं सबकी पहुंच से दूर था. इसलिए ज्ञान और उससे जनित शक्ति और समृद्धि कुछ विशिष्ट समूहों तक सीमित थी.
यह सच है कि मैकाले को ब्रिटिश प्रशासनिक मशीनरी के लिए क्लर्क और अन्य पदों पर काम करने के लिए लोग चाहिए थे. यह भी सच है कि रूडयार्ड किपलिंग जैसे लोगों ने भारतीयों को निचले दर्जे का बताने और अंग्रेजों का यशोगान करने के लिए भारत में ब्रिटेन की राज को ‘गोरों का बोझ‘ बताने का प्रयास किया. मगर यह भी सच है कि आधुनिक शिक्षा की कोख से ही राष्ट्रवादी निकले जिन्होंने औपनिवेशिक गुलामी को चुनौती दी. गांधी, पटेल, सुभाषचन्द्र बोस, नेहरू आदि सभी ने इसी प्रणाली के अंतर्गत ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त की. इनके योगदान से ही औपनिवेशवाद से संग्राम संभव हो सका और हमें विकास की एक नई राह मिली जिसे नेहरू के प्रसिद्ध भाषण ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी‘ में संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है.
क्या अंग्रेजी के कारण क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा हुई? तथ्य यह है कि शिक्षा के प्रसार से क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहन ही मिला. तिलक (मराठा) और महात्मा गांधी (नवजीवन) ने क्षेत्रीय भाषाओं में अपने अखबार प्रकाशित किए. रबीन्द्रनाथ टैगोर और मुंशी प्रेमचंद सहित क्षेत्रीय भाषाओं की कई बड़ी हस्तियों ने भी इसी दौर में अपना योगदान दिया.
कई अंग्रेज शोधकर्ताओं ने ब्राम्ही लिपि और अजंता-एलोरा जैसी हमारी प्राचीन विरासतों को फिर से खोजने में भूमिका निभाई. स्वामीनाथन अय्यर (टाईम्स ऑफ इंडिया, नवंबर 2025) लिखते हैं कि अंग्रेजों ने भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण (एएसआई) की स्थापना की जिसके पहले प्रमुख अलेक्जेंडर कनिंघम बनाए गए. उन्होंने देश भर में खुदाई कर तक्षशिला से नालंदा तक दर्जनों चकित कर देने वाली खोजें कीं. यह औपनिवेशिक शासन से भारत को हुए लाभ का एक उदाहरण था. हालांकि अंग्रेजों का लक्ष्य भारत को लाभान्वित करना नहीं था मगर उनके कामों का परिणाम यही हुआ.
ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेजों ने जो विचार उन्हें दिए, भारतीयों ने उन्हें आँख मूंदकर स्वीकार कर लिया. दादा भाई नैरोजी, एम. जी. रानाडे, जी. के. गोखले और आर. सी. दत्ता ने अंग्रेजों की बातों का जमकर विरोध किया. आजादी का आंदोलन अंग्रेजों के विचारों का सबसे तगड़ा विरोध और उसे मिली सबसे बड़ी चुनौती थी. अंग्रेजी भाषा विचारों के प्रेषण का एक जरिया मात्र थी. समय के साथ अंग्रेजी का भी भारतीयकरण हुआ और अमिताव दास, अरूंधति रॉय और किरन देसाई सहित इस भाषा के कई प्रतिभाशाली लेखकों ने भारतीय विचारों को प्रतिबिंबित किया.
परंपरागत ज्ञान प्रणालियां को समृद्ध करने के लिए उन्हें अन्य ज्ञान प्रणालियों से जोड़ना ज़रूरी होता है. भाषाई आधार पर राज्यों के गठन ने क्षेत्रीय भाषाओं और उनकी परंपरागत ज्ञान प्रणालियों के विकास के लिए पर्याप्त गुंजाइश उपलब्ध करवाई है. दूसरी ओर, पश्चिम ही नहीं वरन् पूरे विश्व से हमारे मेलजोल का हमारे समाज में गहरे तक जड़ जमाए परंपरागत जाति एवं लिंग आधारित उंचनीच का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. अपनी तमाम कमियों के बावजूद आधुनिक शिक्षा ने समानता एवं न्याय की राह के दरवाजे समाज के इन हाशियागत वर्गों के लिए खोले.
भारत में औपनिवेशवाद की भूमिका से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है. शशि थरूर ने अपने प्रसिद्ध आक्सफोर्ड डिबेट में अंग्रेजों द्वारा भारत को लूटने का विस्तार से वर्णन किया, जिसे आगे जाकर 'डार्क इरा ऑफ ब्रिटिश एंपायर' शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया. इसके कुछ महीने बाद डॉ. मनमोहन सिंह इंग्लैंड गए. उन्होंने भारत में आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली की स्थापना में ब्रिटेन की भूमिका की सराहना की.
मुख्य बात यह है कि अंग्रेजों शिक्षा ही वह राह थी जिस पर चलकर उदार मूल्यों और आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था की नींव पड़ी. उदार मूल्यों से स्वतंत्रता आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ जिसमें धर्म से ऊपर उठकर लोगों ने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के प्रयासों में भागीदारी की. वर्तमान हिन्दुत्व राष्ट्रवादियों के पूर्ववर्तियों ने स्पष्टतः यह कहा था कि उनका लक्ष्य प्राचीन काल के वैभव की पुनर्स्थापना करना है जिसमें मनुस्मृति के अनुसार शासन चलता था. शमसुल इस्लाम एक वक्तव्य को उद्धत करते हैं जिसे गोलवलकर का बताया जाता है ‘‘हिन्दुओं, अपनी ऊर्जा अंग्रेजों से लड़ने में बर्बाद मत करो. अपनी शक्ति अपने आंतरिक शत्रुओं मुसलमानों, ईसाईयों और कम्युनिस्टों से लड़ने के लिए बचाकर रखो‘‘. इस नजरिए से यह इंगित होता है कि उनके लिए साम्प्रदायिक मुद्दे महत्वपूर्ण थे, उपनिवेश विरोधी संघर्ष नहीं.
अब हिन्दुत्व राष्ट्रवादी अपनी शक्ति ‘औपनिवेशिकता‘ का मुकाबला करने और पंरपरागत ज्ञान प्रणाली की पुनर्स्थापना पर क्यों केन्द्रित कर रहे हैं? यह ‘नई शिक्षा नीति‘ में भी प्रतिबिंबित हो रहा है. हिन्दुत्व राष्ट्रवादी जाति एवं लिंग आधारित परंपरागत पदानुक्रम के पक्षधर हैं जिसे स्वतंत्रता संघर्ष एवं भारतीय संविधान के कारण थोड़ा झटका लगा है. परंपरगात सामाजिक पदानुक्रम को दुबारा स्थापित करने के लिए मैकाले एवं पश्चिमी ज्ञान प्रणालियों का विरोध करने का यह रास्ता अपनाया गया है. सभ्यताएं नाक की सीध में आगे नहीं बढ़तीं. मगर एक बात तय है कि ‘‘सभ्यताओं का गठजोड़‘‘ हमें न्याय और समानता की ओर ले जाता है.
प्रोफेसर राम पुनियानी
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म के अध्यक्ष हैं)